vikasलैंगिक भेदभाव के मामले में भारत का स्थान चीन और बांग्लादेश से भी पीछे है. विश्व आर्थिक मंच ने वैश्विक लैंगिक असमानता सूचकांक में भारत को 108वां स्थान दिया है. इस सूची में 144 देशों को शामिल किया गया था. पिछले साल भारत को इस सूची में 87वां स्थान मिला था. यानी हम पिछले साल से 21 पायदान नीचे आ गए हैं. अब भी देश की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की उचित भागीदारी नहीं है. उन्हें पुरुषों के मुकाबले कम वेतन दिया जाता है.

हालांकि भारत सरकार के लिए यह बात संतोषजनक है कि इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत अपने यहां लैंगिक भेदभाव को 67 प्रतिशत तक दूर करने में सफल रहा है. इसके बावजूद वह अपने पड़ोसियों चीन और बांग्लादेश से काफी पीछे है. इस सूची में बांग्लादेश को 47 वां स्थान मिला है, जबकि चीन 100 वें स्थान पर है. महिलाओं की आर्थिक स्थिति, स्वास्थ्य, शिक्षा और राजनीति में योगदान के आधार पर लैंगिक असमानता रिपोर्ट तैयार की गई थी.

अर्थव्यवस्था में महिलाओं के योगदान और वेतन की बदहाल स्थिति के कारण भारत इस क्षेत्र में 139 वें स्थान पर है. रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र किया गया है कि भारत में 66 फीसदी महिलाओं को बिना वेतन के ही काम करना पड़ता है. स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी भारत में महिलाओं और पुरुषों के बीच काफी असमानताएं हैं. इस क्षेत्र में भारत का स्थान 144 देशों में से 141वें पर है. रिपोर्ट में कहा गया है कि 2234 तक हम कार्यस्थलों पर महिलाओं और पुरुषों में पूरी समानता के लक्ष्य को हासिल कर लेंगे. हालांकि एक साल पहले अनुमान था कि महिला पुरुषों के बीच असमानता को दूर करने में 83 साल लग जाएंगे.

राजनीति में महिला नेतृत्व के मामले में भी भारत की स्थिति बेहतर नहीं है. हालांकि पंचायत स्तर पर महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, लेकिन भारत को अभी इस क्षेत्र में और ध्यान देने की जरूरत है. राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए महिलाओं को राष्ट्रीय और प्रदेश स्तर पर राजनीति में भी जगह देनी होगी. ग्राम पंचायत स्तर पर भी जहां महिलाएं मुखिया या सरपंच हैं, उन्हें स्वतंत्र रूप से काम करने देना होगा. ये आश्चर्य की बात है कि दुनिया भर में सशक्त महिला नेतृत्व का डंका बजाने वाला देश आज महिला नेतृत्व के मामले में भी पिछड़ता जा रहा है. हालांकि प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में लड़कियों की स्थिति में सुधार हुआ है, जो भारत के लिए बेहतर स्थिति कही जा सकती है.

रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र है कि 2017 में महिला-पुरुष असमानता को दूर करने के प्रयास ठहर गए हैं. 2006 के बाद से यह पहला मौका है, जबकि महिला-पुरुष में यह अंतर बढ़ा है. इसमें कहा गया है कि वैश्विक स्तर पर महिला-पुरुष असमानता 68 प्रतिशत घटी है, जबकि 2016 में यह आंकड़ा 68.3 प्रतिशत था. डब्लूईएफ ने सबसे पहले 2006 में इस तरह की सूची प्रकाशित की थी.

अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने भी यह कहा है कि अगर भारत श्रम बल में महिलाओं को अधिक संख्या में शामिल करता है, तो यह भारत के लिए बेहतर स्थिति होगी. मुद्राकोष ने इसके लिए बुनियादी ढांचे में निवेश और सामाजिक खर्च बढ़ाने की बात भी की है. इतना ही नहीं, आईएमएफ ने ये भी कहा था कि अगर भारत रोजगार के मामले में महिलाओं को पुरुषों की संख्या के समान कर लेता है, तो इससे भारत की जीडीपी दो फीसदी तक बढ़ जाएगी.

वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ का लक्ष्य है कि 2030 तक सभी देशों में लिंग समानता हासिल कर लेना है. इसके तहत सभी देशों में महिलाओं और लड़कियों को सशक्त बनाने का लक्ष्य रखा गया है. महिला कल्याण से जुड़ी योजनाओं को प्रोत्साहन देने के लिए भारत ने 2005 में इसे स्थान दिया था, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है. बजट में इसकी व्यवस्था करने के साथ-साथ योजनाओं के सही क्रियान्वयन पर भी नजर रखनी होगी. श्रम बल की भागीदारी और यौन हिंसा पर रोकथाम जैसे मसलों पर भी ध्यान देने की जरूरत है.

राष्ट्रीय आंकड़ों से पता चलता है कि देश में महिला सशक्तिकरण को लेकर समुचित प्रयास किए गए हैं. ये आंकड़े स्वास्थ्य सर्वेक्षण-2015-16 के हैं. एक दशक के दौरान बाल विवाह में 20 फीसदी की कमी आई है. ये आंकड़े 47 फीसदी से घटकर 27 फीसदी हो गए हैं. घरेलू हिंसा भी 37 फीसदी से घटकर 29 फीसदी तक हो गई है. इसके बावजूद भारत में, प्रति 1,000 लड़कों पर 919 लड़कियों का होना सरकार के तमाम प्रयासों पर सवाल खड़े करता है. श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी भी 2006 में 29 फीसदी से घटकर वर्ष 2016 में 25 फीसदी हो गई है.

सरकार द्वारा चलाई गई योजनाओं से महिलाओं और लड़कियों की तुलना में अधिक पुरुष लाभान्वित हुए हैं. इसके बाद ही सरकार ने महिला सशक्तिकरण को ध्यान में रखकर  2005 में लिंग बजट का प्रावधान किया था. उम्मीद है कि महिला सशक्तिकरण को ध्यान में रखकर सरकार इस बजट को और बढ़ाने पर विचार करेगी.

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