irshadulस्वतंत्र भारत के इतिहास में पटना के विशाल गांधी मैदान को जनसमूह से पाट देने का रिकॉर्ड अब तक सिर्फ दो लोगों के नाम था. पहला जय प्रकाश नारायण और दूसरा लालू प्रसाद यादव. इस कड़ी में 15 अप्रैल को एक तीसरा नाम मौलाना वली रहमानी का जुड़ गया. अब इसी फैक्ट को दूसरे अंदाज में देखिए. सन 74 और 90 के उत्तरार्द्ध में क्रमश: जेपी और लालू के आह्‌वान पर हिंदू, मुस्लिम समेत तमाम मतों व पंथों के लोग शामिल थे. इस आईने में देखें तो वली रहमानी ने मुसलमानों के जन सैलाब से गांधी मैदान को पाट कर इतिहास रचा है. बिहार में मुसलमान कुल आबादी का महज 16.9 प्रतिशत हैं. इस कठिन काम को दीन बचाओ देश बचाओ कॉन्फ्रेंस के माध्यम से इमारत शरिया व ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के रहनुमाओं ने कर दिखाया.

इस आयोजन का मकसद दीन (धर्म) शरीयत व देश (राजनीति) की चाशनी का ऐसा मुलम्मा चढ़ाया गया कि लोग गांधी मैदान की तरफ टूट पड़े. जिस 15 अप्रैल की शाम वली रहमानी ने अपना अध्यक्षीय भाषण दिया, उसके आधे घंटे के अंदर जदयू ने विधान परिषद चुनाव के लिए अपने तीन प्रत्याशियों के नामों की घोषणा कर दी. इन तीन नामों में एक नाम खालिद अनवर का था. खालिद अनवर दीन बचाओ देश बचाओ रैली के दौरान मंच का संचालन कर रहे थे और अपने अध्यक्षीय भाषण में मौलाना रहमानी ने उन्हें अपना अजीजम( प्रिय) कहकर संबोधित किया था. इसी लिखित भाषण की आखिरी पंक्ति जहां खत्म होती है, उसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का शुक्रिया अदा करते हुए कहा गया था कि सरकार व प्रशासन ने इस आयोजन को शांतिपूर्वक निपटाने में बड़ी भूमिका निभाई है.

रैलियों से निकल कर ज्यादातर लोग रास्ते में ही थे और कुछ ने अपने टीवी सेट को ऑन किया तो विधान परिषद के प्रत्याशियों के नामों की घोषणा के बाद सोशल मीडिया पर तूफान मच गया. इस तूफान की जद में अगर कोई था, तो वह वली रहमानी थे. वही वली रहमानी, जिनमें लोगों ने 21वीं सदी के मौलाना आजाद का रूप देखा था. पल भर में उनकी ये उम्मीदें रेत के महल की तरह भरभरा कर गिर गईं. लोगों को लगा कि दीन के नाम पर लाखों मुसलमानों के सरों का सौदा विधान परिषद की महज एक सीट के लिए कर दिया गया. लोगों को भारी मायूसी हुई. दूसरे ही दिन पटना में वली रहमानी के खिलाफ मुस्लिम युवा सड़क पर उतर आए. उनके खिलाफ नारेबाजी की गई.

क्यों टूटी उम्मीद?

अब सवाल यह है कि आखिर यह उम्मीदें अचानक क्यों टूटीं? दरअसल यह रैली मुसलमानों के उत्साह और उनके जज्बे के प्रकटीकरण का नायाब नमूना थी. यह रैली मुसलमानों के खिलाफ बढ़े भेदभाव, सरकार द्वारा शरीयत कानून में हस्तक्षेप, मॉब लींचिग (भीड़ द्वारा मारे जा रहे लोगों), बिहार के 10 से ज्यादा जिलों में रामनवमी के दौरान दंगा भड़काने की साजिश, मुसलमानों की दुकानों को जला कर खाक करने का सियासी खेल आदि समेत कई मुद्दों के खिलाफ भड़के गुस्से के खिलाफ लोग इकट्‌ठे थे.

लोगों को वली रहमानी में एक अप्रत्याशित उम्मीद दिख रही थी. आजादी के सत्तर सालों बाद मुसलमानों में लीडरशिप, संगठन क्षमता और राजनीतिक दूरदर्शिता पहली बार दिखी थी. मौलाना रहमानी ने इस रैली के माध्यम से खुद को बिहार के ताकतवर नेताओं-लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के समानांतर खड़ा कर दिया था. यह उस रैली की ताकत से उपजे भय का ही नतीजा था कि नीतीश सरकार ने रैली के तीन दिन पहले बिहार में दो हजार से ज्यादा होर्डिंग टंगवा दी थी. इन तमाम होर्डिंग्स पर बिहार सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों के लिए अब तक किए गए कामों का जिक्र था, तो भविष्य की योजनाओं का उल्लेख भी था. दूसरी तरफ भाजपा को छोड़ तमाम छोटी-बड़ी सियासी पार्टियों के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने भी इस रैली में आर्थिक मदद की.

इतना ही नहीं भाजपा के अलावा हर दल के शिखर नेता  इमारत पहुंच कर अपनी हाजिरी लगाने से भी खुद को नहीं रोक सके. कई नेता बिन बुलाए भी पहुंचे. ये सारी चीजें इस रैली की विराटता को साबित करती हैं. अचानक रैली के कुछ पलों बाद एक घटनाक्रम सामने आता है. नीतीश कुमार की पार्टी विधान परिषद के प्रत्याशियों की लिस्ट जारी करती है. उस लिस्ट में एक नाम उस व्यक्ति का होता है, जो दीन बचाओ रैली के मंच का न सिर्फ संचालक था, बल्कि इस रैली के संयोजक की भूमिका भी निभा रहा था. यह फैसला बाउंस बैक कर गया और सोशल मीडिया में कोहराम मचाने लगा.

अचानक लालू व नीतीश के समानांतर खड़ा होने का सामर्थ्य सिद्ध करने वाला नेता बदनामियों की आंधी की जद में आ गया. जिसे मुसलमानों ने 21 वीं सदी के मौलाना आजाद बनकर उभरने  जैसी उम्मीदें पाल ली थीं, वह घंटे भर में सोशल मीडिया में मौकापरस्त नेता के रूप में आलोचनाएं झेलने लगा. लोगों ने इल्जाम लगाना शुरू कर दिया कि इस रैली की कीमत पर महज विधान परिषद की एक सीट के लिए सौदेबाजी कर ली गई. इसके लिए मौलाना रहमानी कितने जिम्मेदार हैं, यह बहस तलब मुद्दा जरूर है, लेकिन मौलाना जिस तरह से अपने चंद शागिर्दों से घिरे थे, उन पर भी सवाल उठने लगे. 15 अप्रैल के बाद 16 तारीख बीती और फिर 17 तारीख भी आ गई. मौलाना रहमानी गोशानशीनी से बाहर नहीं आए. उन्होंने इन आलोचनाओं या इल्जामों पर मुंह नहीं खोला.

सियासी रैली की क़ीमत

राजनीति की नब्ज पर पकड़ रखने वाले मानते हैं कि सियासी रैलियों की कीमत ऐसे भी वसूली जाती है. लेकिन एक कद्दावर नेता अपनी शर्तों पर सौदाबाजी करे तब उसकी स्वीकार्यता बढ़ती है. जनता दल राष्ट्रवादी के राष्ट्रीय कन्वेनर अशफाक रहमान कहते हैं कि इसी काम को रणनीतिक रूप से किया गया होता तो वली रहमानी का कद और बढ़ जाता. बस उन्हें रैली के दौरान यह घोषणा करनी चाहिए थी कि विधानपरिषद चुनाव में हम अपना एक प्रत्याशी स्वतंत्र रूप से खड़ा करेंगे और सेक्युलर पार्टियों का इम्तहान लेंगे कि कौन-कौन पार्टी हमारे उम्मीदवार को वोट करती है.

इससे नीतीश कुमार और लालू प्रसाद दोनों के लिए संकट और चुनौतियां बढ़ जातीं. संभव था दोनों उस उम्मीदवार की हिमायत में आ जाते. अगर नहीं भी आते तो इतना तो तय था कि वली रहमानी में जो लोग मौलाना आजाद जैसी उम्मीदें पाल ली थीं, उनकी नजर में वे हीरो बनकर उभरते. वे कहते हैं मौलाना रहमानी शायद अपने शागिर्दी के मोह में इस तरह संवेदनशील हो गए या कर दिए गए कि उन्होंने अपनी विराट छवि को धक्का लगवा दिया.

खुद इस रैली में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले एडवोकेट एजाज अहमद ने खुद के साथ धोखा महसूस किया. उन्होंने व्हाट्सएप पर मैसेज फ्लैश किया कि मौलाना रहमानी ने नापाक साजिश रच दी. उन्हें अमीर ए शरीअत के पद पर रहने का कोई हक नहीं है. उन्हें हटाए जाने तक वे संघर्ष करेंगे.

इस रैली की रणनीति और इसकी उपलब्धियों और उद्देश्यों पर चर्चा करने से पहले कुछ और महत्वपूर्ण बातों का जिक्र करना जरूरी है. इस रैली का आइडिया खुद एक क्रांतिकारी आइडिया था, क्योंकि इस रैली के पहले ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने 256 प्रोटेस्ट मार्च पूरे देश भर में निकाले थे. इन तमाम मार्चों में सिर्फ मुस्लिम महिलाएं शामिल होती रहीं. किसी भी प्रोटेस्ट मार्च में दस हजार से कम महिलाएं नहीं थीं. मार्च में शामिल इन महिलाओं का कहना था कि तलाक संबंधी जो बिल लोकसभा में पास किया गया है, वह महिलाओं के हक के खिलाफ है. इसे सरकार वापस ले. रहमानी ने इन पंक्तियों के लेखक के सामने दावा किया था कि दुनिया के किसी देश में एक मुद्दे पर 256 प्रोटेस्ट मार्च नहीं हुए.

इतना ही नहीं मुस्लिमों के मजहबी संगठन इमारत शरीया व ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने पूरे देश से चार करोड़ पैंसठ लाख मुसलमानों के दस्तखत लेकर केंद्र सरकार को भेजा था. इसमें तलाक संबंधी बिल को वापस लेने की अपील की गई थी. इन तमाम कार्यक्रमों के बाद पटना में दीन बचाओ देश बचाओ रैली का आयोजन हुआ. यह आयोजन उन्ही प्रोटेस्ट मार्चों का विस्तार था. दीन व शरीयत से जुड़े इस मुद्दे को देश बचाने से जोड़ कर सियासत को साधने का यह फॉर्मूला ड्रॉ किया गया था. इस रैली में जो रिजोलुशन पास किए गए, उसमें दलित आरक्षण के खिलाफ कथित साजिशों के विरुद्ध दलितों के साथ खड़े होने का जिक्र था, तो दलित-मुस्लिम इत्तेहाद पर जोर देने की कसमें भी खाई गईं.

इस रैली की तैयारियों की व्यापकता पर तमाम दलों की नजरें थीं. नीतीश कुमार खुद भी इमारत शरीआ पहुंचे. नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी भी वहां हो आए. विधायक, सांसदों का तो वहां जमावड़ा हर वक्त लगा ही रहा, क्योंकि उन्हें ऐसा लग रहा था कि इस आयोजन में शरीक हो कर वे मुस्लिम वोटरों की हमदर्दी बटोरेंगे. लेकिन दूसरी तरफ मौलाना रहमानी ने रैली के दिन एक भी सांसद, विधायक या राजनीति के किसी बड़े चेहरे को मंच पर फटकने नहीं दिया तो लोगों को लगा कि यह साहस भरा काम है. इन पंक्तियों के लेखक ने इस संबंध में वली रहमानी से पूछा भी था कि उनके ऊपर बड़े राजनेताओ का प्रेशर है कि उन्हें भी मंच पर जगह दें तो रहमानी ने जवाब दिया था कि मैं सन 74 में महज 30 वर्ष की उम्र में विधान परिषद का सदस्य रह चुका हूं. राजनीति में प्रेशर को कैसे टेकल करना है, हमें बखूबी मालूम है.

लोग जानते हैं कि वली रहमानी किसी प्रेशर में नहीं आता. हां अगर कोई नेता इस रैली में आना चाहे तो हमारे लोग उनके लिए पास आवंटित करेंगे और वे वीआईपी गैलरी में हमारे मेहमान होंगे. रहमानी जब ये बातें कह रहे थे तो वह आत्मविश्वास से लबरेज थे. लेकिन 15 अप्रैल को रैली खत्म होने से चंद मिनट पहले जब वे अपना अध्यक्षीय भाषण, जो लिखित था, पढ़ते हुए जिस एक व्यक्ति का शुक्रिया अदा किया उसका नाम नीतीश कुमार है. रहमानी ने जैसे ही नीतीश का नाम लिया, वहां मौजूद सैकड़ों लोगों के चेहरे अचानक हैरत में पड़ गए. यहां तक कि मंच पर बैठे दलित नेता वामन मेश्राम भी चकित थे.

जब रैली खत्म हुई तो उसके कुछ ही मिनटों बाद जदयू ने उस व्यक्ति को एमएलसी के प्रत्याशी के रूप में घोषित कर दिया, जिन्हें कुछ समय पहले वली रहमानी ने अपना प्रिय कह कर संबोधित किया था. रैली के दिन के ये आखिरी लम्हे अचानक तूफान पैदा करने वाले साबित हुए. जानकार इस बात की पहले से चर्चा कर रहे थे कि राज्यसभा या विधानसभा जैसे पदों के लिए पहले ही गुप्त बैठकें हुई थीं. आने वाले काफी समय तक इस रैली के परिणामों पर चर्चा होती रहेगी. लेकिन फिलहाल सच्चाई यह है कि लोग सोशल मीडिया पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए लिख रहे हैं कि लाखों मुसलमानों की भीड़ के एवज में सत्ताधारी दल से सौदा कर लिया गया.

कौन हैं वली रहमानी

वली रहमानी मुंगेर की खानकाह के सज्जादानशी हैं. वह पहले से मजहबी संठन इमारत शरीआ के उपाध्यक्ष थे. कुछ साल पहले मौलाना निजामुद्दीन की मृत्यु के बाद वे इमारत शरीआ के अमीर बनाए गए थे. इन दो पहचानों के अलावा वली रहमानी की दो पहचान और भी है. इनमें से एक ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव जबकि दूसरी पहचान शिक्षा जगत से जुड़ी है. रहमानी सुपर 30 नामक कोचिंग संस्थान के संस्थापक भी खुद वली रहमानी हैं, जहां गरीब पर योग्य मुस्लिम छात्रों को इंजीनियरिंग की फ्री कोचिंग दी जाती है. इस संस्थान से हर वर्ष सात-आठ छात्र आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में नामांकन के लिए चयनित होते हैं.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here