सपा का पारिवारिक झगड़ा, बसपा का मुस्लिम वोटों के लिए रगड़ा नोटबंदी पर भाजपा का जोर तगड़ा : झगड़ा और रगड़ा में चुनाव तगड़ा

UPउत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव सामने है. सारे राजनीतिक दल अपने-अपने पैंतरे और अपने-अपने हथकंडे से आम जनता पर प्रभाव कायम करने में लगे हैं. लेकिन आप विषद् दृष्टि डालें तो पाएंगे कि हर चुनाव में मुद्दे बदल जाते हैं और नेताओं के बयान नई-नई शक्लें ले लेते हैं.

2017 का विधानसभा चुनाव भी इस बार नई शक्ल में सामने आ रहा है. आम जन से जुड़ा मुद्दा नदारद है. समाजवादी पार्टी का पारिवारिक झगड़ा है, बसपा का मुस्लिम वोटों के लिए रगड़ा है और नोटबंदी पर भाजपा का जोर तगड़ा है.

विकास के नाम पर एक्सप्रेस-वे और मेट्रो है, किसानों की पीड़ा, गन्ना किसानों के अरबों के बकाये, युवाओं की भारी बेरोजगारी, श्रम जगत और गैर-सरकारी नौकरी से आजीविका चलाने वाले मध्यम वर्ग की भीषण दुश्वारियां और आम आदमी की सुरक्षा जैसे मसलों पर कहीं भी किसी भी दल में चिंता का कोई भाव नहीं दिखता.

सारे दल आम जनता को फिर से बेवकूफ बना कर वोट हथियाने की जुगत में लगे हैं. जनता के पास बेवकूफ बनने के सिवा और कोई चारा भी नहीं है. वोट देने के अधिकार के अलावा उसके पास कुछ नहीं और उस अधिकार में शक्ति कुछ नहीं.

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में नेताओं के चरित्र की तरह बदलते रहे मुद्दों पर विहंगम दृष्टि डालें तो पाते हैं कि प्रत्येक विधानसभा चुनाव में मुद्दे अलग-अलग रूप ले लेते हैं. 1989 से उत्तर प्रदेश में गैर कांग्रेसी सरकार है.

इसके 28वें साल में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस के पुनर्जीवित होने का कोई संकेत नहीं मिल रहा है. कांग्रेस के पास कोई ऐसा मुद्दा भी नहीं रहा है, जो आम-जन को छू सके. 27 वर्षों में उत्तर प्रदेश में सात चुनाव हुए जिसमें केवल तीन बार ही पूर्ण बहुमत की सरकार बनी.

1991 में कल्याण सिंह की सरकार, 2007 में बसपा सरकार और 2012 में सपा सरकार पूर्ण बहुमत से आई. हालांकि अयोध्या आंदोलन और बाबरी विध्वंस के कारण कल्याण सिंह की सरकार अधिक दिन नहीं चल पाई थी.

अब फिर 2017 में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इस चुनाव पर पूरे देश की दृष्टि लगी हुई है. केवल बहुमत की सरकार का मसला नहीं है, मसला प्रतिष्ठा से जुड़ा है. अंतर्कलह झेल रही सपा सत्ता में वापस लौटती है कि नहीं, बसपा सोशल-रिलीजियस इंजीनियरिंग के बूते सत्ता हासिल करती है कि नहीं, भाजपा मोदी-नोटबंदी के बल पर उभर कर राजनीतिक-परिदृश्य पर छाती है कि नहीं. इसमें कांग्रेस या छोटे दलों की भूमिका क्या होती है, यह कदाचित उतना मायने नहीं रखेगा.

1989 में था बोफोर्स और  गैर-कांग्रेसवाद
1989 में उत्तर प्रदेश का विधानसभा और लोकसभा का चुनाव दोनों ही बोफोर्स के मुद्दे और गैर-कांग्रेसवाद के नारे पर हुआ था. केंद्र में वीपी सिंह के नेतृत्व में और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में चुनाव लड़े गए.

गैर-कांग्रेसवाद के नारे पर हुए चुनाव में भाजपा और जनता दल ने एक साथ मिलकर 415 सांसदों वाली भारी बहुमत की कांग्रेस की सरकार को धराशाई कर दिया था. केंद्र में भाजपा के समर्थन से वीपी सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में 5 सितम्बर 1989 को सरकार का गठन हुआ था.

इस चुनाव में कांग्रेस 28 प्रतिशत मत पाकर 94 सीटों पर सिमट गई थी, जबकि जनता दल ने 29.59 प्रतिशत मत पाकर 204 सीटों पर कामयाबी पाई थी. भाजपा 11.68 प्रतिशत मत पाकर 57 सीटों पर काबिज हुई थी. उस चुनाव की सबसे बड़ी विशेषता कांशीराम के नेतृत्व में गठित बसपा को जनता की तरफ से मिली मान्यता थी. पहली बार 9.33 प्रतिशत वोट पाकर बसपा 13 सीटों पर जीती थी. उस बार के चुनाव में निर्दलियों की संख्या भी काफी थी.

15.32 प्रतिशत मत के साथ 40 निर्दलीय सदस्य विधानसभा पहुंचे थे. इन निर्दलियों में दर्जनभर से अधिक विधायक आपराधिक पृष्ठभूमि के थे. 1989 के चुनाव में लोकदल (बी) नाम से बने दल ने 204 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन उसे महज दो सीटें मिली थीं. चौधरी अजित सिंह जनता दल के महत्वपूर्ण नेता के रूप में शामिल थे.

धार्मिक उन्माद में बदल गया था 1991 का विधानसभा चुनाव
1991 में विधानसभा चुनाव धार्मिक उन्माद के माहौल में हुआ, जिसमें भाजपा पहली बार बहुमत की सरकार बनाने की ताकत के साथ उभर कर सामने आई. कल्याण सिंह के नेतृत्व में 24 जून 1991 को भाजपा की बहुमत की सरकार बनी. 1991 के चुनावी मुद्दे में मंडल और कमंडल की राजनीति हावी रही थी. 1989 में केंद्र में बनी वीपी सिंह की सरकार का भविष्य अधर में था. चंद्रशेखर और देवीलाल जैसे अगरधत्तों की खींचतान थी.

देवीलाल पिछड़ों के सर्वमान्य नेता के रूप में उभर कर शक्ति-संतुलन बिगाड़ रहे थे. ऐसे में वीपी ने मंडल रिपोर्ट लागू कर देशभर में राजनीतिक-सामाजिक सनसनी फैला दी. पूरे देश में बवाल खड़ा हो गया. अगड़े पिछड़े की जंग छिड़ गई. छात्रों के आत्मदाह होने लगे. इस हालात में भाजपा ने वीपीसिंह सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया. भाजपा ने मंडल के खिलाफ कमंडल का आंदोलन शुरू कर दिया.

लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा ने राम जन्मभूमि आंदोलन को धार्मिक उन्माद की शक्ल में बदल डाला. भाजपा के समर्थन वापस लेने के बाद कांग्रेस के समर्थन से केंद्र में चन्द्रशेखर की सरकार बनी. उत्तर प्रदेश में भी जनता दल का विभाजन हो गया. यूपी में भी कांग्रेस के समर्थन से मुलायम सिंह यादव सरकार बची रही.

दिसम्बर 1989 से 24 जून 1991(भाजपा सरकार के गठन तक) उत्तर प्रदेश में अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर धार्मिक उन्माद कायम रहा. आडवाणी की रथयात्रा को बिहार में लालू प्रसाद यादव ने रोका, उनकी गिरफ्तारी की नौटंकी हुई. उत्तर प्रदेश में मुलायम ने 45 दिनों में 48 रैलियां कीं और अपने मुस्लिम-पक्षीय बयानों से प्रतिरोधी माहौल खड़ा कर दिया.

हिंदू और मुसलमानों के बीच जबरदस्त तनाव बन गया. लेकिन इस उन्माद से बने ध्रुवीकरण का फायदा भाजपा को मिला और उत्तर प्रदेश में भाजपा की बहुमत की सरकार बनी. यूपी में मंडल पर कमंडल जीत गया. कल्याण सिंह मुख्यमंत्री तो बने लेकिन अधिक दिन नहीं चल पाए. छह दिसम्बर 1992 से सरकार बर्खास्तगी तक अयोध्या मुद्दा ही छाया रहा. चुनाव के दौरान ही 21 मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या हो गई.

नतीजतन लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 244 सीटों के साथ अप्रत्याशित सफलता मिली. नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने. 120 सीटें पाकर भाजपा दूसरे स्थान पर रही और 69 सीटों के साथ जनता दल को तीसरा स्थान मिला. इधर यूपी में 1991 के विधानसभा चुनाव में मंडल-कमंडल के बावजूद बसपा का मत प्रतिशत बढ़ा. बसपा को 9.52 प्रतिशत मत के साथ 12 सीटें मिलीं. भाजपा ने 31.80 प्रतिशत मत के साथ 211 सीटों पर जीत हासिल की.

कांग्रेस को 46 सीटें मिलीं. सबसे खराब हालत मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली तत्कालीन जनता पार्टी की हुई. सत्ता पर रहते हुए मुलायम को 12.45 वोट के साथ महज 30 सीटें हासिल हुईं, जबकि उनके प्रत्याशी 411 सीटों पर चुनाव लड़े थे. उस समय यूपी विधानसभा में 425 सीटें थीं. तब उत्तरांचल नहीं बना था.

1993 में सपा-बसपा गठबंधन ने बनाया नया जातीय समीकरण
1991 में हाशिए पर जाने के बाद मुलायम ने बसपा के साथ तालमेल बनाया और राजनीति के केंद्र में बने रहे. बसपा के गठजोड़ से 4 दिसम्बर 1993 को दूसरी बार मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. 1989 के बाद भाजपा ने धार्मिक उन्माद का फायदा उठाया था, लेकिन मुलायम ने इसे अपने दलित-पिछड़े गठजोड़ से कमजोर कर दिया.

छह दिसम्बर 1992 को अयोध्या में विवादित ढांचा गिरने के बाद यूपी समेत भाजपा शासित चार राज्यों की सरकार बर्खास्त कर दी गई थी. 1993 में फिर चुनाव हुए और सपा-बसपा गठबंधन ने जातीय समीकरण बना कर जीत हासिल कर ली. सपा 264 सीटों पर चुनाव लड़ी और 17.82 प्रतिशत मत पाकर 109 सीटों पर जीती. बसपा 163 सीटों पर चुनाव लड़ी और 67 सीटों पर जीती.

बसपा को 11.11 प्रतिशत वोट मिले थे. 1991 में 30 सीटें पाकर हाशिए पर चली गई समाजवादी पार्टी ने 1993 के चुनाव में पांच प्रतिशत अधिक मत हासिल किए और तीन गुना अधिक सीटें जीतकर राजनीति के केंद्र में आ गई. बसपा को भी इस गठबंधन का फायदा हुआ, उसकी सीटें 12 से बढ़कर 67 हो गईं. कांग्रेस को 28 सीटें मिलीं. लेकिन सपा-बसपा का गठबंधन अधिक दिन तक नहीं चला.

दो जून 1995 को हुए बहुचर्चित गेस्ट-हाउस कांड के बाद राजनीतिक समीकरण बदल गए और भाजपा के समर्थन से पहली बार मायावती के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार बनी. चार महीने बाद ही 17 अक्टूबर 1995 को भाजपा ने समर्थन वापस लिया और प्रदेश में एक बार फिर राष्ट्रपति शासन लग गया.

1996 विधानसभा चुनावः मारपीट, विश्वासघात और अमर्यादा का रिकॉर्ड
राम जन्मभूमि आंदोलन और सपा-बसपा के अप्रत्याशित गठबंधन के बाद 1996 में फिर एक नया समीकरण सामने आया. इस बार बसपा ने कांग्रेस से समझौता किया और साम्प्रदायिकता के खिलाफ नारा देकर चुनाव लड़ा गया. लेकिन 1996 के चुनाव में बसपा-कांग्रेस समीकरण नहीं चला और 175 सीटें जीत कर भाजपा सबसे बड़े दल के तौर पर सामने आई.

बसपा को 67 सीटें मिलीं और कांग्रेस को 33 सीटें हासिल हुईं. 1996 के चुनाव में बसपा कांग्रेस गठबंधन के साथ मैदान में उतरी थी, लेकिन उस चुनाव में किसी भी दल को बहुमत हासिल नहीं हुआ. सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद भाजपा को सरकार बनाने का मौका नहीं मिला और 17 अक्टूबर 1996 को प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया. यह 21 मार्च 1997 तक रहा.

इसके बाद प्रदेश का राजनीतिक समीकरण फिर बदला और भाजपा-बसपा में छह-छह महीने सरकार चलाने का करार हुआ. मायावती पहले खेप में मुख्यमंत्री बनीं, लेकिन अपना खेप पूरा कर लेने के बाद उन्होंने एक सितम्बर 1997 को गठबंधन तोड़ दिया और भाजपा से समर्थन वापस ले लिया. मायावती ने इसके पीछे दलित एक्ट को लेकर हुए विवाद को कारण बताया. किसी तरह जद्दोजहद करके भाजपा ने सदन में अपना बहुमत सिद्ध किया.

उस दौरान उत्तर प्रदेश विधानसभा में विधायकों की मारपीट भी राजनीतिक इतिहास का हिस्सा बनी. इस बीच कल्याण सिंह से लेकर राम प्रकाश गुप्त और राजनाथ सिंह तक मुख्यमंत्री बने. प्रदेश के इतिहास में यह भी पहली बार ही हुआ कि 103 विधायकों में से 100 विधायकों को मंत्री की कुर्सी मिली.

Read also : मायावती का क़द

राजनीतिक अस्थिरता और जम्बो मंत्रिमंडल था 2002 का चुनावी उत्पाद
2002 के विधानसभा चुनाव में राजनाथ सिंह कार्यकाल का सौ सदस्यीय जम्बोजेट मंत्रिमंडल भी एक बड़ा बना चुनावी मुद्दा था. लेकिन चुनाव परिणाम किसी भी दल के पक्ष में निर्णायक रूप में नहीं आया. उस समय भाजपा और चौधरी अजित सिंह साथ मिलकर चुनाव लड़े थे. भाजपा 86 सीटें जीती और चौधरी के 14 विधायक चुने गए.

सपा 141 सीटों पर जीत हासिल कर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी. बसपा 1996 की तुलना में 4.5 प्रतिशत मत अधिक यानि 23.1 प्रतिशत मत पाकर 98 सीटों पर काबिज हुई. कांग्रेस के पास 25 सीटें रह गईं. सबसे बड़े दल के रूप में आने के बावजूद सरकार बनाने का मौका नहीं दिए जाने के विरोध में सपा ने राजभवन के आगे धरना दिया था.

उसी धरने में एक विधायक की गोली मार कर हत्या कर दी गई थी. आठ मार्च 2002 को उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया. दो महीने बाद ही भाजपा ने फिर बसपा को समर्थन दिया और तीन मई 2002 को उत्तर प्रदेश में मायावती के नेतृत्व में बसपा-भाजपा की फिर से मिलीजुली सरकार बनी जो 29 सितम्बर 2003 तक चली.

भाजपा से विवाद का बहाना बना कर मायावती ने इस्तीफा दे दिया और विधानसभा चुनाव कराने की सिफारिश कर दी. केंद्र ने मायावती की सिफारिश नहीं मानी और कांग्रेस, रालोद व अन्य दलों के समर्थन से सपा की सरकार बनवा दी. याद करते चलें कि तीन मई 2002 को बसपा-भाजपा की मिली जुली सरकार बनने के बाद से ही मंत्रिमंडल में शामिल होने को लेकर विरोध शुरू हो गया था.

रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भइया और अन्य कई विधायक सरकार बनने के बाद से ही असंतोष जाहिर कर रहे थे. मायावती के इस्तीफा देने के बाद सपा को मौका मिल गया और उसने बसपा और भाजपा के नाराज विधायकों को तोड़ कर अपने में शामिल कर लिया.

सपा को कांग्रेस का भी समर्थन मिला और सपा की सरकार बन गई. विधायकों को तोड़ने और सरकार बनवाने में अमर सिंह ने भी सक्रिय भूमिका अदा की, लेकिन कानून व्यवस्था के मुद्दे पर सपा सरकार की साख जाती रही.

2007 के चुनाव में कानून व्यवस्था ही मुद्दा थी
वर्ष 2007 का विधानसभा चुनाव यूपी की बदहाल कानून व्यवस्था पर केंद्रित हो गया था. ‘चढ़ गुंडों की छाती पर, मुहर लगाओ हाथी पर’ का नारा बसपा के ऊंचे हो रहे ग्राफ को इंगित कर रहा था. मायावती की सोशल इंजीनियरिंग ने ब्राह्मण समुदाय को बसपा की तरफ झुका दिया था. दलित-ब्राह्मण गठजोड़ का परिणाम यह रहा कि उत्तर प्रदेश में 1991 के बाद का रिकार्ड टूटा और मायावती के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी.

बसपा का 2002 का 23.18 मत प्रतिशत बढ़ कर 30.46 प्रतिशत हो गया. सपा की सीटें कम होकर 97 रह गईं. भाजपा का ग्राफ काफी नीचे गिर गया और उसका मत प्रतिशत 20.03 से घट कर 16.93 रह गया.

मायावती के भ्रष्टाचार ने 2012 में सपा को सत्ता पर बिठा दिया
2012 के विधानसभा चुनाव में नए परिसीमन के बाद विधानसभा क्षेत्र के जातीय, धार्मिक और राजनीतिक समीकरण बदले. 2007 के विधानसभा चुनाव में 70 से अधिक विधानसभा सीटें ऐसी थीं, जिनकी आबादी 15 लाख से अधिक थी और 107 विधानसभा सीटें ऐसी थीं, जिनकी आबादी तीन से चार लाख थी. विधानसभा क्षेत्र के नए परिसीमन में 403 विधानसभाओं की आबादी लगभग बराबर हो गई. औसत जनसंख्या साढ़े चार लाख हो गई.

नए परिसीमन से सभी विधानसभा क्षेत्रों में बदलाव आया. 2012 के विधान सभा चुनाव में मायावती सरकार का भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा रहा. जिस तरह लखनऊ से लेकर नोएडा तक मूर्तियों, पार्कों और स्मारकों के निर्माण में अरबों-खरबों रुपये खर्च किए गए, उससे जनता में बसपा के खिलाफ भीषण आक्रोश था.

इसके अलावा बसपा ने 2007 में सपा सरकार में बढ़ते अपराध के खिलाफ मुहिम चला कर सत्ता हासिल की थी, लेकिन बसपा सरकार में भी कानून व्यवस्था की वही बदतर हालत हो गई.

सपा सरकार के आपराधिक छवि के कई नेता पैसे के बूते बसपा में शामिल हो गए. बसपा सरकार के पांच वर्ष के कार्यकाल में एनआरएचएम घोटाला, दो-दो सीएमओ की हत्या, अकूतखनन घोटाला, आबकारी घोटाला, पत्थर घोटाला और स्मारक घोटाला जनता के दिमाग पर छा गया.

समाजवादी पार्टी ने इसका फायदा उठाया. सपा के अखिलेश यादव के नौजवान नेतृत्व के प्रति आशा रखते हुए जनता ने सपा को रिकॉर्ड बहुमत के साथ सत्ता तक पहुंचा दिया. पंचायतों के चुनाव में प्रधान, ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष पदों पर जिस तरह बसपा ने धन-बल के बूते कब्जा किया था, वह भी बसपा के ताबूत में ढेर सारे कील की तरह धंस गया.

2012 में सपा ने 224 सीटें जीतीं. उसे 29.15 प्रतिशत वोट मिले. बसपा 80 सीटों पर सिमट गई. भाजपा को 47 सीटें और कांग्रेस को 28 सीटें मिलीं. राष्ट्रीय लोक दल को नौ सीटें ही मिलीं. इसी तरह पीस पार्टी को चार, कौमी एकता दल को दो, एनसीपी, अपना दल और तृणमूल कांग्रेस को एक-एक सीटें मिलीं. आधा दर्जन निर्दलीय प्रत्याशी भी चुनाव जीते.

अब सामने है 2017 का विधानसभा चुनाव
कुछ दिन पहले तक यह लग रहा था कि पाकिस्तान के खिलाफ केंद्र सरकार का सर्जिकल स्ट्राइक उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए चुनावी मुद्दा बनेगा. इसकी जोरशोर से शुरुआत भी कर दी गई थी. लेकिन अचानक अब नोटबंदी का मसला सामने आ गया. नोटबंदी के मसले को लेकर ही सारे राजनीतिक दल भाजपा को घेरने में लग गए हैं. अब तक के दूसरे राजनीतिक समीकरण और मसले-मसाएल ध्वस्त हो गए हैं.

समाजवादी पार्टी विकास के मसले को चुनाव में उठा रही है, लेकिन सपा का अंदरूनी झगड़ा सारे दावों पर विरोधाभास की स्थिति पैदा कर रहा है. बसपा के सारे बड़े नेता दल छोड़ कर अलग हो गए. इस झटके से उबरने के लिए मायावती दलित-मुस्लिम गठजोड़ स्थापित करने का प्रयास कर रही हैं. यह प्रयास सपा के वोट बैंक में सेंधमारी करने जैसा है. बसपा की यह नई सोशल इंजीनियरिंग है.

अभी तक यही लग रहा था कि चुनावी मुद्दा विकास, भ्रष्टाचार, जातिवाद और सख्त कानून व्यवस्था वाली स्थिर सरकार देने का ही होगा, लेकिन स्थितियां जिस तरह बदलीं, उससे चुनावी मुद्दा भी बदलेगा. सपा और बसपा के अलावा भाजपा भी अति-पिछड़े मतदाताओं को अपने साथ जोड़ने में लगी है. सपा और बसपा मुसलमानों को रिझाने में लगी है, तो भाजपा अति पिछड़ों के साथ-साथ दलितों और सवर्ण मतों को एकीकृत करने की कवायद में लगी है.

27 वर्षों से सत्ता से बाहर कांग्रेस भी जद्दोजहद कर रही है. लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए फिल्म अभिनेता राजबब्बर को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया, तो ब्राह्मणों को जोड़ने के लिए शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री के प्रत्याशी के बतौर प्रोजेक्ट कर दिया. ठाकुर, ब्राह्मण और पिछड़े व दलित और अल्पसंख्यक मतों को जोड़ने के लिए भी कांग्रेस के बड़े नेताओं को जिम्मेदारी सौंपी गई है.

प्रियंका गांधी को भी आगे बढ़ाया जा रहा है. इसके साथ ही कांग्रेस छोटे दलों के साथ महागठबंधन कायम करने की तैयारी में लगी है. प्रदेश की राजनीति में जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण के प्रयासों पर नोटबंदी का मसला हावी हो गया है.

ऐसे साम्प्रदायिकता, विकास, भ्रष्टाचार और कानून व्यवस्था का मुद्दा कहीं छाया-क्षेत्र में न चला जाए, इस बात की आशंका है. वाकई 2017 में होने वाला उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव समाजवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होगा.

मुद्दे तो बदल रहे, पर सर्वेक्षण अब भी निगाह में 

कुछ अर्सा पहले उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के बीच किया गया एक सर्वेक्षण तात्कालिक तौर पर खूब सुर्खियों में रहा, लेकिन जैसे-जैसे समय आगे खिसक रहा है और तेज गति से मुद्दे बदल रहे हैं, वह सर्वेक्षण अप्रासंगिक होता जा रहा है. हालांकि राजनीतिक समीक्षकों का कहना है कि वह सर्वेक्षण अब भी निगाह में है और बदलते समीकरण को सर्वेक्षण की कसौटी पर भी रख कर देखा जा रहा है.

उक्त सर्वेक्षण एक समाचार चैनल और सर्वे एजेंसी ने साझा तौर पर किया था. उस सर्वेक्षण पर उत्तर प्रदेश के मुख्मंत्री ने तीखी प्रतिक्रिया भी जताई थी, क्योंकि सर्वे ने मायावती को संभावित मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया था.

सर्वे में सामने आया था कि प्रदेश के मतदाता पूर्व मुख्यमंत्री मायावती को 2017 में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं. लोगों की पसंद के आधार पर सर्वे में मायावती को 31 फीसदी, अखिलेश को 30 फीसदी, राजनाथ को 18 फीसदी, वरुण गांधी को सात फीसदी, स्मृति को चार फीसदी और प्रियंका गांधी को दो फीसदी मत मिले थे.

सर्वे में लोगों से जब अखिलेश सरकार के चार साल का हाल पूछा गया तो सामने आया कि अखिलेश सरकार से 32 फीसदी लोग संतुष्ट हैं, जबकि 34 फीसदी ने खराब और बहुत खराब कहा. इसका विस्तार यह है कि सात फीसदी लोगों ने अखिलेश सरकार को बहुत अच्छा कहा.

25 फीसदी ने अच्छा बताया और 29 फीसदी लोगों ने औसत बताया. 23 फीसदी लोगों ने अखिलेश सरकार को खराब कहा और 11 फीसदी लोगों ने बहुत खराब बताया. मार्च महीने में हुए सर्वे में लोगों ने बेरोजगारी को सबसे बड़ा मुद्दा बताया था. इसमें 29 फीसदी लोगों ने बेरोजगारी, 22 फीसदी लोगों ने महंगाई, 17 फीसदी लोगों ने भ्रष्टाचार और 15 फीसदी लोगों ने गरीबी को सबसे बड़ा मुद्दा बताया था.

अयोध्या, मथुरा, काशी जैसे मुद्दों को मतदाताओं ने खारिज कर दिया था. अधिकतर लोग यूपी में कानून व्यवस्था की बदहाली स्वीकार करते हैं. 60 प्रतिशत से अधिक लोगों ने कहा था कि प्रदेश की कानून व्यवस्था बिगड़ी हुई है. 66 फीसदी लोग मानते हैं कि उन्होंने अपने इलाके में किसी बड़े विकास का काम होते हुए नहीं देखा. 39 फीसदी लोगों ने कहा कि अखिलेश सरकार में भी काफी भ्रष्टाचार हुआ.

अभी से महसूस हो रहा नोटबंदी का असर

चुनाव विश्लेषकों का मानना है कि नोटबंदी का मसला उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में प्रभावकारी रोल अदा करेगा. उत्तर प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रदीप माथुर का भी कहना है कि नोटबंदी के बाद की स्थितियों में नए तरीके से चुनावी रणनीति बनानी होगी. अब छोटी रैलियों पर आना पड़ेगा और वोटरों को खुश करने के तौर-तरीकों में भी काफी कटौती हो जाएगी.

कई अन्य नेताओं ने यह संकेत दिया कि अब चुनाव में सीधे तौर पर कॉरपोरेट धन दाताओं की मुख्य भूमिका होगी. प्रचार अभियानों की फंडिंग का अध्ययन करने वाली संस्था सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ (सीएमएस) के मुताबिक, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में कुल फंडिंग के दो-तिहाई से भी कम के लिए भाजपा नकद पर निर्भर है.

जबकि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे क्षेत्रीय दल अपने प्रचार पर होने वाले कुल खर्च के 80 से 95 प्रतिशत हिस्से के लिए नकदी पर निर्भर करते हैं. चुनावों के लिए सरकारी फंडिंग नहीं होने के कारण गैरकानूनी नकदी ही राजनीतिक दलों के काम आती रही है. उसी से रैलियों के आयोजन, हेलीकॉप्टरों के इंतजाम और मतदाताओं को खुश किए जाने पर खर्च होता रहा है. नोटबंदी के कारण इस पर अचानक रोक लग गई.

नोटबंदी पर बसपा प्रमुख मायावती ने कहा कि नोटबंदी का समय राजनीतिक इरादे से चुना गया. मायावती पर पार्टी टिकट के बदले प्रत्याशियों से पैसा लेकर काला धन जमा करने का आरोप लगता रहा है. मायावती के करीबी एक नेता ने कहा कि नोटबंदी के कारण बसपा की कुछ रैलियां रद्द कर दी जाएंगी और उसके स्थान पर घर-घर जाकर प्रचार ज़्यादा किया जाएगा.

नोटबंदी के पहले बसपा की लखनऊ रैली में लोगों को जुटाने में काफी नकद खर्च हो गया. अब नकदी मुश्किल में आ गई. सपा के भी एक नेता ने कहा कि चुनाव प्रचार के नए ग्रास-रूट तौर-तरीके अख्तियार में लाए जाएंगे. नोटबंदी के कारण राजनीतिक दलों के लिए काम करने वाले ईवेंट मैनेजर भी विलोप-भवन में चले गए हैं. उनका कामकाज चुनाव के दिनों में काफी फलता-फूलता था.

पिछले 10 साल से लाउड स्पीकरों, आउटडोर एयरकंडीशनरों और रैलियों में तमाम इंतजामात करने का कारोबार करने वाले एक व्यापारी ने कहा कि अब कोई भी राजनीतिक दल जनवरी से पहले बड़ी रैली आयोजित करने के मूड में नहीं दिख रहा. सभी पार्टियां नकदी पर ही निर्भर रहती हैं. सीएमएस की रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2014 के चुनाव में पार्टियों ने 37 हजार करोड़ रुपये खर्च किए थे.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here