रमन सिंह को करीब से जानने वाले लोगों की माने तो मुख्यमंत्री इतने कमज़ोर कभी नहीं दिखे. आज आलम यह है कि हर पंद्रह दिन के बाद राजनीतिक गलियारों में उनके मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने की सुबबुगाहट तेज हो जाती है. सरकार बनने के बाद रमन सिंह के साथ उनका लक नहीं है. तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद एक के बाद एक परेशानियां उनका पीछा कर रही हैं. एक छोड़ती हैं, तो दूसरी आ खड़ी होती है. दूसरी खत्म होती है, तो तीसरी. रमन सिंह मौजूदा वक्त में बुरी तरह से घिरे हुए हैं. जनता नाराज़ है. मीडिया, विपक्ष और सत्ता पक्ष के कई नेताओं के चक्रव्यूह में रमन सिंह घिरे दिखते हैं. हालांकि चुनाव में अभी साढ़े तीन साल बाकी हैं, लेकिन इन चक्रव्यूह से रमन सिंह कैसे निकलते हैं, ये बात देखने वाली होगी.

Drछत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह को किस्मत का धनी माना जाता है. कहा जाता है कि दिलीप सिंह जूदेव, नंदकुमार साय, रमेश बैस और बृजमोहन जैसे दिग्गज नेताओं के रहते 2003 में मुख्यमंत्री का ताज उन्हें इसी किस्मत ने दिलाया था. जिस छत्तीसगढ़ में कांग्रेस हमेशा अपराजेय रही, वहां रमन सरकार के हैट्रिक बनने में जितनी भूमिका रमन सिंह के काम का था, उतनी ही उनके किस्मत की भी रही. इसे किस्मत नहीं तो और क्या कहा जाएगा कि गैर चुनावी सालों में जो कांग्रेस जोरदार तरीके से अपनी मौजूदगी दर्ज कराती है, वो चुनाव के समय सत्ता के नजदीक आकर फुस्स हो जाती है. कभी गुटबाज़ी के चलते तो कभी दरभा में नेताओं को गंवाने की वजह से कांग्रेस सत्ता से दूर ही रही, लेकिन बेहद मामूली बढ़त के साथ तीसरी बार सत्ता में आए रमन सिंह का गुडलक अब उनके साथ नहीं दिखता है.
रमन सिंह को करीब से जानने वाले लोगों की माने तो मुख्यमंत्री इतने कमज़ोर कभी नहीं दिखे. आज आलम यह है कि हर पंद्रह दिन के बाद राजनीतिक गलियारों में उनके मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने की सुबबुगाहट तेज हो जाती है. सरकार बनने के बाद रमन सिंह के साथ उनका लक नहीं है. तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद एक के बाद एक परेशानियां उनका पीछा कर रही हैं. एक छोड़ती हैं, तो दूसरी आ खड़ी होती है. दूसरी खत्म होती है, तो तीसरी. रमन सिंह मौजूदा वक्त में बुरी तरह से घिरे हुए हैं. जनता नाराज़ है. मीडिया, विपक्ष और सत्ता पक्ष के कई नेताओं के चक्रव्यूह में रमन सिंह घिरे दिखते हैं. हालांकि चुनाव में अभी साढ़े तीन साल बाकी हैं, लेकिन इन चक्रव्यूह से रमन सिंह कैसे निकलते हैं, ये बात देखने वाली होगी.
सबसे पहले चर्चा करते हैं उन फैसलों की, जिसकी वजह से जनता के बीच में रमन सिंह सरकार की साख घटी है. रमन के मुश्किलों की शुरुआत लोकसभा चुनाव के बाद शुरू हुई, जब केंद्र में उन्हीं की पार्टी की सरकार बनी, लेकिन अपनी ही पार्टी की सरकार में रमन सिंह की मुश्किलें बढ़ती चली गईं. केंद्र सरकार ने चावल खरीद, बोनस और सब्सिडी पर कड़ा रुख अख्तियार किया और राज्य को मिलने वाली राशि में भारी कटौती कर दी, जिसके चलते मनरेगा, पीडीएस सिस्टम और धान खरीदी और किसानों को बोनस जैसी योजनाओं में राज्य पिछड़ता गया.
राज्य में बीजेपी की सरकार इस वादे के साथ आई थी कि वो सत्ता में आने के बाद धान का समर्थन मूल्य 21 सौ रुपये करने की पहल करेगी. सत्ता में आते ही उसने सबसे पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह की सरकार को एक खत लिखकर पहल की भी, लेकिन जैसे ही केंद्र में मोदी की सरकार आई, ये पहल वहीं खत्म हो गई. रमन सिंह इस मसले पर घिर गए. चर्चाओं के मुताबिक, पहली कुछ मुलाकातों में ही केंद्रीय खाद्य आपूर्ति मंत्री ने मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह को इस बात से अवगत करा दिया कि जिन राज्यों में बोनस बांटा जाएगा, वहां एफसीआई धान की खरीदी नहीं करेगी. इसका असर हुआ कि बोनस के मुद्दे पर रमन सिंह की सरकार ने एक बार सांस तक नहीं लिया.
केंद्र से राज्य को मिलने वाली राशि में भारी कटौती के चलते सरकार को धान खरीदी में सीलिंग लगानी पड़ी. सरकार ने इस साल धान खरीदी की एक सीमा तय कर दी. प्रति एकड़ दस क्विंटल धान. फैसले का पूरे प्रदेश में जमकर विरोध भी हुआ. मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के साथ किसानों ने जगह-जगह इस फैसले के विरोध में सड़क पर उतरे. चक्का जाम से लेकर किसान संसद लगी. सरकार को झुकना पड़ा और खरीद की सीमा दस क्विंटल से बढ़ाकर 15 क्विंटल प्रति एकड़ करनी पड़ी, लेकिन विरोध नहीं रुका. सरकार के इस फैसले से जिन किसानों को बोनस की उम्मीद थी, वो उम्मीद सरकार के रुख से ही टूट गई. गांव में रहने वाली गरीब जनता मनरेगा को लेकर भी मुश्किल में रही. केंद्र सरकार ने महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना में राज्य की प्रस्तावित योजना राशि में करीब 1 हजार करोड़ रुपये से अधिक की कटौती कर दी. राज्य सरकार ने मनरेगा के लिए 27 सौ करोड़ रुपये की मांग की थी, लेकिन केंद्र ने सिर्फ 16 सौ करोड़ रुपये स्वीकृत किए हैं. इससे मनरेगा का काम पिछड़ गया और जब ये पैसे आए, तो कई जगह मज़दूर दूसरे प्रदेशों में मजदूरी के लिए पलायन कर चुके थे.
रमन सिंह ने एक और अप्रिय निर्णय लिया, वह था राशन कार्ड का सत्यापन. विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी सरकार ने करीब 70 लाख राशन कार्ड बनवाए थे. बीजेपी ये मानती है कि विधानसभा चुनाव के परिणाम उनके पक्ष में आने की बड़ी वजह ये राशन कार्ड ही थे, लेकिन नई सरकार बनते ही इसका हिसाब-किताब होने लगा कि कौन से कार्ड सही हैं और कौन से गलत. लाखों की संख्या में कार्ड से अनाजों का वितरण कुछ समय के लिए रोक दिया गया.
सरकार के खिलाफ सबसे मुखर आवाज़ बिलासपुर में हुए नसबंदी कांड पर उठी. इस घटना में 13 महिलाओं की मौत हुई थी. एक के बाद एक मौतें हो रही थीं, तब स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल मरहम लगाने की बजाय चैनलों पर मुस्कुरा-मुस्कुरा कर बातें कर रहे थे. अमर अग्रवाल के कार्यकाल में प्रदेश में इसी तरह के स्वास्थ्य शिविरों में महिलाओं के गर्भाशय निकाल लिए गए थे. मोतियाबिंद के ऑपरेशनों में लोगों की आंखों की रोशनी चली गई, लेकिन तमाम घटनाओं के मुद्दे पर सरकार ने दोषियों से निपटने में न तो सख्ती दिखाई और न ही अपनी व्यवस्था सुधारी. ऊपर से स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल के गैर जिम्मेदाराना रवैया और संवेदनहीनता ने लोगों में आक्रोश पैदा कर दिया. इस मौके पर स्वास्थ्य मंत्री की जवाबदेही पर पूछे गए सवाल के जवाब में मुख्यमंत्री रमन सिंह ने स्वास्थ्य मंत्री ऑपरेशन नहीं करते हैं, कहकर मुसीबत मोल ले ली. अब तक राज्य में मीडिया उनकी छवि के अनुरूप मुख्यमंत्री पर सीधा हमला करने से बचता था, लेकिन उनके बेतुके बयान ने उन्हें भी सीधे निशाने पर ले लिया. मीडिया के सवालों से बचने के लिए स्वास्थ्य मंत्री अपना निर्वाचन क्षेत्र बिलासपुर छोड़कर कहीं और चले गए. कई दिनों तक राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय मीडिया वहां डटा रहा और सरकार की उदासीनता की जमकर फजीहत हुई. सरकारी महकमों ने सच बताने की बजाय छिपाने की कोशिश की और मीडिया ने इस बात को भी जमकर दिखाया. चर्चा इस बात की भी है कि मीडिया देखने वाले लोगों ने खबरों को रुकवाने की कोशिश की थी, जिसके बाद मीडिया की नाराज़गी और बढ़ गई. राज्य में इस दौरान कई बार नक्सली हमले हुए. इन हमलों में मुख्यमंत्री का रटा-रटाया जवाब भी उनके खिलाफ गया. सोशल मीडिया पर इसे लेकर कई चुटकुले वायरल हुए. मीडिया में भी सवाल उठे. पार्टी के अंदर और बाहर तमाम नेता ये आरोप लंबे समय से लगाते रहे हैं कि रमन सिंह का अधिकारियों पर कोई लगाम नहीं है. राज्य में तमाम बड़ी घटनाओं के बाद भी जिम्मेदार अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई न होने से ये आरोप साबित भी होते रहे हैं. इसका सबसे बुरा परिणाम छत्तीसगढ़ के नागरिक आपूर्ति निगम यानी नान घोटाले में सामने आया. छत्तीसगढ़ नागरिक आपूर्ति निगम यानी नान के दफ्तर में एंटी करप्शन ब्यूरो की टीम ने छापामार कार्रवाई करते हुए ढाई करोड़ से ज्यादा नकद राशि जब्त की. प्रदेश में पहली बार किसी सरकारी कार्यालय से ढाई करोड़ रुपये नकद जब्त किए गए. ये पैसे फील्ड के संग्रहण केंद्र से लेकर चावल की क्वालिटी, चावल की बोरी में मात्रा और बोरे की क्वालिटी में गड़बड़ी के एवज में लिए जाते हैं. इसे लेकर हुई प्रेस कांफ्रेंस में एडीजी मुकेश गुप्ता ने कहा कि इसमें एक डायरी भी बरामद हुई, जिसमें उन लोगों के नाम हैं, जिनको ये पैसे पहुंचते थे. डायरी की बात ही सरकार के गले की फांस बन गई. कांग्रेस और दूसरे सामाजिक संगठन डायरी को सार्वजनिक करने की मांग पर अड़ गई. जब इसे सार्वजनिक नहीं किया गया, तो कांग्रेस ने खुद दिल्ली जाकर इसके कुछ पन्ने सार्वजनिक कर दिए. इन पन्नों में बड़े अधिकारियों के साथ मंत्रियों और सीएम हाउस का जिक्र था. कई नाम कोड में थे. सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच इसे लेकर राजनीतिक दांव-पेच चलते रहे. इसी बीच एक न्यूज़पेपर ने इस मामले में एक स्टिंग ऑडियो जारी कर दिया. दावा किया गया कि ये एक पत्रकार और मुख्य आरोपी शिवशंकर भट्ट की बातचीत का ऑडियो है. बातचीत में जो कोड कांग्रेस द्वारा जारी डायरी के पन्नों में लिखा है, उसकी डिकोडिंग है. इसमें खाद्य मंत्री पुन्नूलाल मोहले से लेकर सीएम के रसोइये और सीएम मैडम का जिक्र है, लेकिन बाद में खुद शिवशंकर भट्ट ने इस ऑडियो में अपनी बातचीत को खारिज कर दिया था और पत्रकार पर ब्लैकमेलिंग का आरोप जड़ दिया था. हालांकि उनके इंकार तक ये ऑडियो सोशल मीडिया में वायरल हो चुका था और सरकार की साफ छवि धूमिल हो चुकी थी.

सरकार के खिलाफ सबसे मुखर आवाज़ बिलासपुर में हुए नसबंदी कांड पर उठी. इस घटना में 13 महिलाओं की मौत हुई थी. एक के बाद एक मौतें हो रही थीं, तब स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल मरहम लगाने की बजाय चैनलों पर मुस्कुरा-मुस्कुरा कर बातें कर रहे थे. अमर अग्रवाल के कार्यकाल में प्रदेश में इसी तरह के स्वास्थ्य शिविरों में महिलाओं के गर्भाशय निकाल लिए गए थे. मोतियाबिंद के ऑपरेशनों में लोगों की आंखों की रोशनी चली गई, लेकिन तमाम घटनाओं के मुद्दे पर सरकार ने दोषियों से निपटने में न तो सख्ती दिखाई  और न ही अपनी व्यवस्था सुधारी.

इन तमाम मुद्दों को विपक्ष ने जमकर भुनाया. सदन हो या सड़क, उसने सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ा. सरकार को सदन से लेकर सड़क में घेरा. भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव के नेतृत्व ने यहां कांग्रेस के लगातार तीन चुनाव हारने के बाद भी हतोत्साहित होकर टूटने-बिखरने नहीं दिया और लगातार आंदोलन करते हुए कांग्रेस को चार्ज किए रहे, जिसका नतीजा है कि स्थानीय निकायों में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन किया और नगरीय निकाय चुनावों में बीजेपी पर जीत दर्ज की, लेकिन रमन सिंह के लिए मुश्किल कांग्रेस नहीं है, क्योंकि कांग्रेस बीजेपी को अगले विधानसभा चुनाव से पहले नहीं हिला सकती. असली मुश्किल हैं पार्टी के अंदर के उनके विरोधी, जो रायपुर से लेकर दिल्ली तक सक्रिय हैं. राज्य में राष्ट्रीय महासचिव सरोज पांडेय के अलावा बृजमोहन अग्रवाल, रमेश बैस, प्रेम प्रकाश पांडेय दिल्ली में लगातार सक्रिय हैं. जब-जब उनकी सक्रियता बढ़ती है, सत्ता परिवर्तन की सुगबुगाहट तेज़ हो जाती है. रमन के विरोधी खेमे के कई नेता दबी जुबान में रमन के बदलने की भविष्यवाणी करते रहते हैं. जब बीजेपी के वरिष्ठ सांसद रमेश बैस को केंद्रीय कैबिनेट में जगह नहीं मिली, तब ये चर्चा जोरों पर थी कि उन्हें रमन सिंह की जगह बिठाया जाएगा. दूसरी बार ये चर्चा तब छिड़ी, जब गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पार्रिकर को केंद्र बुलाया गया. उसके बाद नसबंदी कांड और नान घोटाले के समय भी ऐसी चर्चाओं को बल मिला. इन चर्चाओं के सिर्फ अफवाह न होने की बड़ी वजह है कि शिवराज सिंह और रमन सिंह अगर तीन बार अपना कार्यकाल पूरा कर लेंगे, तो भविष्य में आज के पीएम नरेंद्र मोदी को पीएम पद के लिए दावेदार बनकर चुनौती देंगे. लिहाज़ा, मोदी और शाह की जोड़ी दोनों को केंद्र में बुलाकर अपने मातहत रख सकते हैं. इन चर्चाओं को तब और बल मिला है, जब उनके विरोधी समझे जाने वाले नेताओं की सक्रियता दिल्ली में बढ़ गई. केंद्र में एनडीए की सरकार आने के बाद रमन विरोधी नेता अमूमन हर दो हफ्ते में किसी न किसी कारण दिल्ली घूम ही आते हैं. माना जाता है कि रमन सिंह को लोकप्रियता के गिरते ग्राफ के पीछे अफसरशाही का अराजक और मनमाना होना है. रमन सिंह पर लगातार ये आरोप लगते रहे हैं कि उन्होंने अपने अधिकारियों को खुली छूट दे रखी है. वो उनके हर गुनाह माफ करते हैं. यह आरोप सिर्फ विपक्षी नेता नहीं, सरकार के मंत्री और विधायक तक लगाते हैं. अब ये बात मोटे तौर पर स्थापित सत्य बन चुकी है.
विपरीत परिस्थितियों में अफसरशाही रमन सिंह के लिए भारी पड़ रहा है. उनके अधिकारियों के प्रति नरम रुख को लेकर रमन सिंह पर विपक्ष के साथ-साथ उनकी पार्टी के लिए भी हमला कर रहे हैं. विपक्ष खुलकर कर रहा है, तो सहयोगी दबे-छिपे. चर्चा है कि सरकार के खिलाफ खबरों को मैनेज करने के लिए जिस तरीके से जनसंपर्क विभाग के कुछ अधिकारी दखल देने की कोशिश करते हैं, उससे मीडिया के एक बड़े तबके में असंतोष है. समय-समय पर यह असंतोष जाहिर भी होता है.
इस बार प्रदेश में लोक सुराज अभियान चलाया जा रहा है. इससे पहले तक ग्राम सुराज अभियान चलता था, जिसमें मंत्री और मुख्यमंत्री किसी नीयत जगह पर जाते थे और वहां लोगों की सुनते थे. जहां ये लोग जाते थे, वहां आसपास के गांव में मुनादी होती थी. दो-चार गांव के लोग इकट्ठा हो रहे हैं, लेकिन इस बार औचक दौरे बिना मुनादी के हो रहे हैं. पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी कहते हैं कि ऐसा सरकार ने विरोध से बचने के लिए किया है, क्योंकि पहले से मुनादी करने पर मंत्री और मुख्यमंत्री चावल का कोटा कम करने और धान खरीदी का समर्थन मूल्य न बढ़ाने की वजह से घिरेगें. अभी रमन सिंह के कार्यकाल को साढ़े तीन साल और बचा है, लेकिन बड़ा दिलचस्प सवाल है कि वो अपना कार्यकाल पूरा करके मोदी का रिकॉर्ड तोड़ेगें?

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