indianparliamentराज्यसभा की सदस्यता के लिए नामांकन की होड़ एक अजीब दृश्य पेश करता है. आदर्श रूप से राज्यसभा को एक ऐसा सदन होना चाहिए जहां संविधान का संघीय (फेडरल) गुण नज़र आए. राज्यसभा के सदस्य उस राज्य के प्रतिनिधि होने चाहिए जिस राज्य का वे प्रतिनिधित्व कर रहे हों. अगर ऐसा हुआ तो लोकसभा वास्तव में एक राष्ट्रीय सदन बन जाएगी और उसके सदस्य संपूर्ण देश के लोगों के संदेश वाहक बन जायेंगे और राज्यों की ज़िम्मेदारी राज्यसभा के ऊपर छोड़ दी जायेगी.

कम से कम 1935 के गवर्नमेंट ऑ़फ इंडिया एक्ट की यही मंशा थी. इस एक्ट के प्रावधान के मुताबिक कौंसिल ऑ़फ स्टेट ऐसा सदन था जिसमें देशी रियासतों को अपने प्रतिनिधियों को भेजना था, जबकि शेष ब्रिटिश इंडिया को अपने सदस्यों को निचले सदन के लिए चुनना था. चूंकि 1935 के एक्ट के संघीय भागों को कभी लागू नहीं किया गया, इसलिए मूल कौंसिल ऑ़फ स्टेट्‌स कभी वजूद में आया ही नहीं. इसके बावजूद स्वतंत्र भारत के संविधान में राज्यसभा को शामिल किया गया.

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समय के साथ राज्यसभा, ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स की तरह विकसित हुई, जिसके सदस्य पार्टी नामांकन द्वारा चुने जाते हैं (उन सदस्यों को छोड़ कर जो एक स्वतंत्र प्रक्रिया द्वारा चुने जाते हैं). हाउस ऑफ लॉर्ड्स में सदस्यों की संख्या की कोई अंतिम सीमा नहीं होती है. यह विसंगति ब्रिटेन के अलिखित संविधान के कारण पैदा हुई है. आम सहमति के मुताबिक, कोई भी पार्टी हाउस ऑफ लॉर्ड्स में बहुमत नहीं रख सकती, और यदि किसी बिल में संशोधन को लेकर हाउस ऑफ कॉमन्स के साथ कोई असहमति होती है तो ऐसे मामलों में हाउस ऑ़फ कॉमन्स का फैसला आखिरी होता है.

राज्यसभा की चुनावी प्रक्रिया उम्मीद के मुताबिक ही होती है. ज़्यादातर राज्यों में पार्टियों को मालूम होता है कि उनके कितने प्रत्याशी निर्वाचित हो सकते हैं. मामला वहां फंसता है जहां एक पार्टी को दूसरी पार्टियों से मामूली मदद की ज़रूरत होती है. जिस सीट पर पार्टी की जीत सुनिश्चित होती है वहां से ऐसे उम्मीदवार खड़े किए जाते हैं, जिनकी संसद में उपस्थिति पार्टी के लिए ज़यादा अहमियत रखती है.

अपने हस्तांतरित (वर्शींर्श्रींश) सांसदों के बावजूद ग्रेट ब्रिटेन एक संघ नहीं है. ब्रिटिश पीअरेज के सदस्य न तो अपने निवास स्थान का प्रतिनिधित्व करते हैं और न ही अपने चुनाव क्षेत्र का. वे अपनी दूसरी योग्यताओं के कारण चुने जाते हैं. लेकिन भारत का उच्च सदन आदर्श रूप से अमेरिकी सीनेट जैसा है जिसके सदस्य राज्य के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं.

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चुनावी आंकड़ों का पूर्वानुमान पार्टी नेतृत्व को अधिक शक्ति देता है. अजित सिंह को एक शक्तिशाली पार्टी के नेता की तलाश थी जो उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत करे, लेकिन वे भाग्यशाली साबित नहीं हुए. कपिल सिब्बल के बारे में कहा जा रहा है कि उन्हें पार्टी एक ऐसी सीट ही दे सकती थी जिसपर उन्हें दूसरों की मदद की ज़रूरत हो. जिन मंत्रियों के कार्यकाल समाप्त हो गए हैं उन्हें ऐसे राज्यों में भेज दिया गया है, जहां से वे आसानी से चुनाव जीत सकते हैं. वहीं दूसरी तरफ लालू यादव अपनी अनुभवहीन बेटी को राज्यसभा की सीट दे सकते हैं.

इसके लाभ भी हैं. डॉ. मनमोहन सिंह असम और राम जेठमलानी बिहार से राज्यसभा में जा सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह है कि राष्ट्रीय स्तर के व्यक्तित्व की उपस्थिति में असम और बिहार के हित को उतना महत्व हासिल नहीं होगा. दरअसल, यह कहा जा सकता है कि जो लोग चुनाव नहीं जीत सकते उनके लिए राज्यसभा संसद पहुंचने की गारंटी देता है. वहीं दोनों सदनों के पारस्परिक अधिकारों का मुद्दा सामने है. बहरहाल, ब्रिटेन में जिस तरह किसी बिल पर हाउस ऑ़फ लॉर्ड्स के लिए हाउस ऑ़फ कॉमन्स का फैसला अंतिम होता है, उस तरह भारत में राज्यसभा के लिए लोकसभा का फैसला अंतिम नहीं होता. क्या यह ठीक है?

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