जिन लोगों से जान-पहचान हो, उनके बारे में कुछ भी लिखना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन चूंकि कही हुई बातें और किए हुए काम राजनीति में एक नई परंपरा डाल रहे हैं, इसलिए इनके बारे में बात करना ज़रूरी है. राजनीति में अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने कई नई बातों की शुरुआत की है. जो बातें दूसरे राजनीतिक दल छिपे तौर पर करते थे और जिनकी आलोचना होती थी, आज वे काम आम आदमी पार्टी के साथी करते हैं. 
Santosh-Sirसबसे पहले योगेंद्र यादव की बात करें. योगेंद्र यादव देश में एक ऐसा नाम था, जिसके बारे में माना जाता था कि समाजवाद की मानवीय परंपरा के वह पहरेदार हैं. स्वर्गीय किशन पटनायक लोकसभा में नौजवान सांसद के नाते काफी चर्चित रहे. डॉक्टर लोहिया किशन पटनायक को संभावित नेता के रूप में देखते थे. योगेंद्र यादव किशन पटनायक के साथी रहे और उन्होंने किशन पटनायक की बहुत सारी बातों को आगे भी बढ़ाया. जब समाजवादी धारा से छिटक कर लोग राजनीति में भटकाव का शिकार हुए, तो योगेंद्र यादव उनके साथ नहीं गए और उन्होंने किशन पटनायक के संपादकत्व में निकलने वाली पत्रिका सामयिक वार्ता का संपादन भी किया.
योगेंद्र यादव ने शोध संस्थान बनाकर देश में चुनावी संभावनाओं का विश्‍लेषण करने में महारथ हासिल की. उनकी बात पर लोग विश्‍वास भी करते थे, लेकिन अब योगेंद्र यादव अपनी उसी साख का इस्तेमाल कुतर्क के लिए करने लगे हैं. जब योगेंद्र यादव से पूछा गया कि आप आरोप लगाते हैं, लेकिन उनका कोई प्रमाण आप नहीं दिखाते. तो योगेंद्र यादव कहते हैं कि हमने आरोप लगाया, सामने वाला अगर चाहे, तो अदालत में चला जाए और अदालत में जाकर हमारे आरोपों का जवाब दे. हम उसका जवाब अदालत में देंगे. यह एक ऐसा तर्क है, जो ख़तरनाक तर्क है. इसका मतलब अब लोग आरोप लगाएंगे और कहेंगे कि आप अदालत में जाएं, हम वहीं पर आपको जवाब देंगे.
कम से कम योगेंद्र यादव से इस कुतर्क की आशा नहीं थी. लेकिन जब योगेंद्र यादव ने यह कुतर्क शुरू किया, तो आशुतोष गुप्ता जी पीछे कैसे रहते, बल्कि अरविंद केजरीवाल और उनके सारे साथी इसी कुतर्क का सहारा ले रहे हैं. मैं इसे अनहोनी नहीं मानता, क्योंकि अरविंद केजरीवाल का कोई वैचारिक रिश्ता किसी आंदोलन से कभी रहा ही नहीं. वैसे तो अरविंद केजरीवाल किसी आंदोलन का कभी हिस्सा नहीं रहे, लेकिन विचारधारा एक ऐसी चीज है, जो अप्रासंगिक हो चुकी है, इसे स्थापित करने का काम भी अरविंद केजरीवाल ने किया. वह समस्याओं को विचारधारा बनाने लगे, जबकि समस्याएं विचारधारा और नीतियां न होने की वजह से पैदा होती हैं.
अन्ना हजारे कहते हैं कि अगर देश में आर्थिक नीतियां नहीं बदलीं, तो भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोज़गारी कभी ख़त्म नहीं हो सकते, क्योंकि ये तीनों और इनसे जुड़ी हुई सारी बुराइयां इन आर्थिक नीतियों की देन हैं. इसलिए अगर इन बुराइयों को ख़त्म करना है, तो आर्थिक नीतियों को बदलना पड़ेगा और गांवों को छोटी इकाई बनाना पड़ेगा. यानी जहां उत्पादन होता है, उन्हें प्रमुखता देनी पड़ेगी और शहरों में, जहां उत्पादन नहीं होता है, उन्हें उत्पादन की इकाइयों का पूरक बनाना पड़ेगा. अगर गांव को उत्पादन का मुख्य केंद्र मानें, तो शहरों को उसका पूरक बनाना पड़ेगा, न कि गांव को शहर का पूरक बनाना पड़ेगा. इस तथ्य को मुझे लगता है कि योगेंद्र यादव और आनंद कुमार समझ सकते हैं, लेकिन वे अगर जागते हुए भी सोने का नाटक करें, तो कोई समझा नहीं सकता.

अरविंद केजरीवाल की समझ में ये तथ्य शायद नहीं आए, इसीलिए वह नीतियों की जगह समस्याओं को विचारधारा बना रहे हैं. यही काम भारतीय जनता पार्टी करती है, यही काम कांग्रेस करती है और यही काम अरविंद केजरीवाल कर रहे हैं तथा ये तीनों मिलकर मौजूदा बाज़ार आधारित नव-उदारवादी नीतियों के समर्थक हैं. जब अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि सरकार का काम स़िर्फ निगरानी रखना है, उद्योग चलाने का काम उद्योगपति करें, तो वह देश की जनता को बाज़ार के हाथों में सौंपने का निर्मम काम कर रहे हैं.

दूसरी तरफ़ हम राजनीति में हुल्लड़बाजी, दंगा-फसाद और तोड़-फोड़ के कभी समर्थक नहीं रहे और इसीलिए जब इन चीजोंे को बढ़ावा मिलता है, तो हुड़दंगी लोग आम जनता में ही उत्पात नहीं करते, वे टेलीविजन चैनलों एवं समाचारपत्रों के दफ्तरों में भी तोड़-फोड़ करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि समाचारपत्र या चैनल उनके हित के ख़िलाफ़ लिख-बोल रहे हैं. राजनीति की सारी शिक्षा ताख पर रख दी जाती है. वाल्टेयर और रूसो का किस्सा मशहूर है, जो शायद ये सब भूल चुके हैं. दोनों परस्पर जानी दुश्मन थे, लेकिन जब वाल्टेयर को बोलने से रोका गया, तब रूसो ने कहा कि मैं वाल्टेयर का जानी दुश्मन हूं, लेकिन वाल्टेयर को बोलने से रोकना, यह एक ख़तरनाक चीज है और मैं इसके लिए जी-जान से लड़ूंगा कि वाल्टेयर को बोलने का हक़ दिया जाए. यह कहानी नहीं है, यह राजनीति का बुनियादी सिद्धांत है.
वहीं पर हम राजनीतिक दलों के एक्शन को देखते हैं. नरेंद्र मोदी की पुलिस अरविंद केजरीवाल को गुजरात में घूमने से रोकती है. स्वाभाविक है, क्योंकि नरेंद्र मोदी खुद लोकतांत्रिक नहीं हैं. लेकिन, अरविंद केजरीवाल और उनके साथी तो लोकतंत्र में विश्‍वास का दावा करते हैं, फिर भी वे गांधीवादी प्रदर्शन की जगह भारतीय जनता युवा मोर्चा और यूथ कांग्रेस के प्रदर्शन के तरीकों की नकल करते हैं. यह ख़तरनाक है. इसका मतलब है कि अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों का कभी अन्ना के आंदोलन और गांधीवादी तरीके में विश्‍वास रहा ही नहीं. अगर अरविंद केजरीवाल के हाथ में आंदोलन की बागडोर रहती और अन्ना हजारे लगातार अहिंसा की बात नहीं करते, तो 2011 में इस देश में दंगे हो चुके होते, क्योंकि लोगों में गुस्सा था, लोग बदलाव चाहते थे, सरकार सुन नहीं रही थी, संसद सुन नहीं रही थी.
अगर हम आज की स्थिति में उस समय की कल्पना करें, तो अरविंद केजरीवाल निश्‍चित रूप से लोगों को भड़का कर देश में अराजकता का माहौल पैदा कर देते. और यह भी कमाल की चीज है कि अरविंद केजरीवाल सार्वजनिक रूप से, मैं अराजक हूं, इसकी घोषणा करते हैं. इसका मतलब कि जितने भी अलगाववादी हिंसक आंदोलन हो रहे हैं, उन सबको राजनीतिक तर्क अरविंद केजरीवाल दे रहे हैं. अगर अरविंद केजरीवाल यह सब जान-बूझकर कर रहे हैं, तो वह लोकतंत्र के विरोधी हैं. लोकतंत्र में विरोध का एक रास्ता है, यह रास्ता सिविल नाफरमानी का है. इस शब्द का मतलब अरविंद केजरीवाल को नहीं पता, लेकिन इस शब्द का मतलब आनंद कुमार और योगेंद्र यादव को पता है. ये बातें मैं दु:ख के साथ लिख रहा हूं. मैं जानता हूं कि अब अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों को समझाया नहीं जा सकता. ये सड़क पर खड़े होकर कभी भी किसी को भी गाली देने का अभियान चला सकते हैं, लेकिन ये भूल जाते हैं कि आसमान पर थूकने से थूक आसमान के ऊपर नहीं जाता, उनके खुद के मुंह के ऊपर गिरता है.
आम आदमी पार्टी और उसके क्रियाकलापों पर सबसे ज़्यादा अफ़सोस मुझे इसलिए होता है, क्योंकि अन्ना के नाम पर बनी आम आदमी पार्टी के बारे में दिल्ली के लोगों ने माना कि ये अन्ना का विचार लेकर ही चलेंगे, उन्हीं तरीकों से दिल्ली को चलाएंगे, लेकिन उन्होंने अन्ना के सारे विचारों को धूल-धूसरित कर दिया और वह काम किया, जो भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस करना चाहती थीं. मैं नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी को लोकतांत्रिक मानता ही नहीं, लेकिन जो लोकतांत्रिक नहीं है, उसके सामने हम भी अलोकतांत्रिक तरीका अपनाएं, तो फिर हम भी लोकतांत्रिक नहीं हैं.
राजनीति में एक नई चीज पैदा हुई है, जिसका नाम है अज्ञानता, बदतमीजी, फूहड़पन, वैचारिक शून्यता और हम जो कहें वही सही है, यह दुस्साहस. यह चीज स़िर्फ राजनीति के लिए ख़तरनाक नहीं है, बल्कि जो लोग इस तरीके को अपना रहे हैं, उनके लिए भी है. यह तरीका बदलाव की तरफ़ नहीं जाता, यह तरीका सचमुच की अराजकता की तरफ़ जाता है. और, आज जो इस तरीके को अपना रहे हैं, कल यह तरीका उन्हीं के गले की हड्डी बनने वाला है. इसमें कम से कम हमें तो कोई संशय नज़र नहीं आता.

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