santosh-bhartiyaबेंगलुरु में गाय के ऊपर आयोजित एक सम्मेलन में शामिल होने गया था. छह तारीख की शाम मुझे कर्नाटक के मुख्यमंत्री से मिलना था. मुझे मुख्यमंत्री के पास ले जाने के लिए बीआर पाटिल अपनी गाड़ी में आए और ले गए.

ट्रैफिक बहुत ज़्यादा था. जब मुख्यमंत्री से मिलकर मैं वापस लौटा, तो इतनी भीड़ थी कि बीआर पाटिल की गाड़ी ने समय से मुझे होटल पहुंचाने से इंकार कर दिया और तब मैं एक ऑटो रिक्शा में बैठ गया.

उस ऑटो रिक्शा के चालक का नाम राजेश था. थोड़ी देर के बाद मैंने देखा कि वह दाएं-बाएं से निकलने वाले लोगों को गुस्से से घूरकर देख रहा है और कन्नड़ में कुछ कह रहा है.

मैंने उससे पूछा, तुम पास से ग़ुजरने वालों, कार या मोटर साइकिल चलाने वालों से क्या कह रहे हो? उसने मुझसे कहा, मैं ऑटो चलाता हूं, सड़क ही मेरी ज़िंदगी है और मेरा दिमाग़ भन्ना जाता है, जब मैं बिना मतलब लोगों को हॉर्न बजाते हुए निकलते देखता हूं.

उसने कहा कि इतना ध्वनि प्रदूषण इस हॉर्न की वजह से होता है और इसकी रोक का कोई उपाय हम लोग नहीं कर रहे हैं. मेरी रुचि जगी. मैंने उससे पूछा, तुम क्या कहना चाहते हो? सा़फ बताओ.

बेंगलुरु के उस ऑटो रिक्शा चालक राजेश ने मुझसे कहा कि आप इस सड़क को देख रहे हैं. यह वन-वे सड़क है. दूर-दूर तक इस पर नज़र जाती है. जहां रेड लाइट है, वह दूर से नज़र आती है. इसके बावजूद मोटर साइकिल पर चलने वाले लोग हों या कार में चलने वाले लोग हों, जबरदस्ती हॉर्न बजाते हैं और उस आवाज़ के शोर से शिराएं फटने लगती हैं.

उसने कहा, मैंने कसम खाई है कि मैं जब तक ऑटो चलाऊंगा, तब तक हॉर्न नहीं बजाऊंगा. और, सचमुच उसने हॉर्न नहीं बजाया. उसने मुझसे कहा, यही बात मैं अड़ोस-पड़ोस से निकलने वाले कार चालकों एवं मोटर साइकिल चालकों से कहता हूं कि हॉर्न क्यों बजा रहे हो? जब तुम देख रहे हो कि सड़क खाली है, तब भी तुम हॉर्न बजाते हो.

जब तुम देखते हो कि सड़क भरी हुई है और आगे जाने का रास्ता नहीं है, तब भी तुम हॉर्न बजाते हो. ऑटो रिक्शा चालक राजेश की बात सुनकर मुझमें कौतुहल जागा कि एक ऑटो चलाने वाला ध्वनि प्रदूषण के बारे में इतनी गंभीरता से सोच रहा है! इसके बाद उसने कहा, आप नहीं समझते, ये जो कार चलाने वाले हैं और मोटर साइकिल चलाने वाले हैं, ये सब पढ़े-लिखे समझदार लोग हैं.

इन्हें पता है कि प्रदूषण क्या होता है, खासकर ध्वनि प्रदूषण क्या होता है. ध्वनि प्रदूषण लोगों के शरीर को उत्तेजना में ले आता है और उनमें असहनशीलता पैदा करता है. इसके बावजूद ये सारे पढ़े-लिखे समझदार लोग हॉर्न बजाते हुए चलते हैं. मैं इनसे यही कहता हूं कि हॉर्न मत बजाओ.

उस ऑटो रिक्शा चालक राजेश की बात सुनकर मुझमें और कौतुहल जागा और मैंने उससे पूछा, तुम इसके बारे में कबसे सोचने लगे? उसने कहा, मैं सन्‌ 92 से इसके बारे में सोच रहा हूं और मैं लगातार सन्‌ 92 से हॉर्न नहीं बजाता हूं तथा हर एक को समझाता हूं कि चलते हुए हॉर्न मत बजाओ. इसके बाद उस ऑटो रिक्शा चालक ने एक और कमाल की बात बताई.

उसने कहा कि जब राष्ट्रपति जी की गाड़ी चलती है या प्रधानमंत्री जी की गाड़ी चलती है या गवर्नर साहब की गाड़ी चलती है या मुख्यमंत्री जी की गाड़ी चलती है, तो सड़क सिग्नल फ्री होती है. सड़क पर कोई सवारी नहीं होती. इसके बावजूद उनकी गाड़ी सायरन बजाते हुए निकलती है. क्या यह ध्वनि प्रदूषण नहीं है? जब आप खाली सड़क पर जहां कोई नहीं होता, रेड लाइट भी नहीं होती, किसी तरह का कोई व्यवधान नहीं होता, तब आप सायरन बजाते हुए निकलते हैं!

इसका मतलब है कि आप बाकी लोगों को ध्वनि प्रदूषण के लिए आमंत्रण देते हैं. मुझे उसकी बात में काफी तर्क नज़र आया और मुझे लगा कि इतना साधारण व्यक्ति जब इतनी गंभीरता से सोच रहा है, तो यह बात देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल और किसी मुख्यमंत्री को क्यों नहीं सोचनी चाहिए और क्यों नहीं अमल करना चाहिए?

ऑटो रिक्शा चालक राजेश मुझसे कहने लगा, सर, मैं इसे लेकर एक कैंपेन करना चाहता हूं. आप क्या करते हैं? मैंने कहा, मैं पत्रकार हूं, तो उसने कहा, आप मुझे एक राय दीजिए. मैं अपने ऑटो रिक्शा के पीछे लिखवाना चाहता हूं कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बाद आप हैं, जो इस देश में ध्वनि प्रदूषण फैला रहे हैं. और, हा..हा..हा (हंसी की आवाज़) लिखवाना चाहता हूं. मैंने कहा कि इससे क्या होगा?

राजेश बोला, सर, इससे जो लोग मेरे पीछे ऑटो को देखेंगे, वे सोचेंगे कि क्या वे ध्वनि प्रदूषण के क्रम में इन चारों के बाद पांचवें हैं? हो सकता है कि वे ध्वनि प्रदूषण न करें. मैं उस ऑटो रिक्शा चालक राजेश की बात सुनकर चकित रह गया.

उसने मुझसे इतना और पूछा, सर, मैं ग़रीब आदमी हूं, ऑटो चलाता हूं और अपने बच्चों का पेट पालता हूं. क्या इससे मुझे कोई ऩुकसान तो नहीं होगा? मैंने उससे कहा, राजेश, तुम्हारा कोई ऩुकसान नहीं होगा और अगर कोई ऩुकसान हो, तो तुम मुझे खबर करो. हम इसके बारे में तुम्हारे पक्ष में देश का जनमत बनाएंगे.

राजेश, जो ऑटो रिक्शा चलाता है, जो निम्न-मध्यम वर्ग का भी नहीं है, वह अगर इतनी गंभीरता से ध्वनि प्रदूषण के बारे में सोच रहा है, तो क्यों बेंगलुरु या देश के पढ़े-लिखे लोग, जो कार और मोटर साइकिल रखने की हैसियत रखते हैं, जो उच्च वर्ग और उच्च-मध्यम वर्ग से आते हैं, वे इसके बारे में नहीं सोच सकते? और, जब तक बहुत आवश्यक न हो, तब तक गाड़ी का हॉर्न न बजाएं, क्या इसके बारे में कोई फैसला नहीं ले सकते?

बस वाले चलते हैं, तो प्रेशर हॉर्न बजाते हैं. टैक्सी वाले चलते हैं, तो हॉर्न बजाते हैं. किसी भी शहर का यह किस्सा है और इससे कितने लोगों के मन में एक संवेदनशील किस्म की प्रतिक्रियाएं होती हैं, इसे लोग नहीं समझ रहे हैं. मैंने पूछा, राजेश, तुम सड़क पर ऑटो चलाते हो, बेंगलुरु में ट्रैफिक की इतनी बड़ी समस्या है, क्या इसका कोई हल नहीं है? उसने कहा कि हल है.

आठ साल पहले बेंगलुरु में मेट्रो बननी शुरू हुई थी, जो पांच साल में पूरी होनी थी. अगले पांच साल भी वह पूरी नहीं होगी और फिर उसके बाद अगले पांच साल भी वह पूरी नहीं होगी. बेंगलुरु की ट्रैफिक समस्या का हल मेट्रो नहीं है. मेट्रो उनके लिए है, जो पैसे खाना चाहते हैं.

उसने कहा कि बहुत कम पैसा यानी मेट्रो के बजट का 15 प्रतिशत अगर सरकार स़िर्फ बेंगलुरु शहर में कुछ अंडरपास और कुछ फ्लाईओवर बनाने में खर्च कर दे, तो ट्रैफिक समस्या सुधर सकती है, पर सरकार यह नहीं सोचेगी.

तब मुझे लगा कि हम समस्याओं के बारे में उनसे कभी राय नहीं लेते, जो उन समस्याओं से वर्षों से रूबरू हो रहे हैं, वह चाहे बेंगलुरु की ट्रैफिक समस्या हो, देश में स्वच्छता अभियान की विफलता हो, गंदगी की समस्या हो, बेरा़ेजगारी हो, महंगाई हो या फिर भ्रष्टाचार हो. किसी चीज के बारे में हम खुद तो कुछ सोचते ही नहीं और सरकार उन लोगों से भी सुझाव नहीं मंगाती, जो भुक्तभोगी हैं.

अगर देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यों के राज्यपाल और मुख्यमंत्री जनता से समस्याओं के निदान मांगें, तो शायद उन्हें ऐसे-ऐसे निदान मिल जाएंगे, जिनके ऊपर न खर्च होगा और जिन्हें अमल में लाने से लोगों की समस्याएं हल हो जाएंगी. हां, इतना ज़रूर है कि भ्रष्टाचार कम होने से बहुत सारे लोगों की जेब में पैसा जाने से बच जाएगा और शायद हर नए उपक्रम में लगने वाले पैसे की लूट रुक जाए. यह बात भला लोगों को कहां बर्दाश्त होती है?

मैं उस ऑटो रिक्शा चालक राजेश को सचमुच तहेदिल से सलाम करना चाहता हूं, जिसने इस समस्या के बारे में स़िर्फ सोचा ही नहीं, बल्कि सन्‌ 92 से हॉर्न न बजाकर एक उदाहरण प्रस्तुत किया है.

क्या उस ऑटो रिक्शा चालक राजेश का अनुकरण पढ़े-लिखे, सोचने-समझने वाले, कार और मोटर साइकिल रखने वाले लोग कर पाएंगे? अगर नहीं अनुसरण करते हैं, तो फिर मेरी समझ से उनकी समझदारी एक ऑटो रिक्शा चालक से बहुत कम है. लेकिन, खुशी की बात यह है कि राजेश जैसे और भी लोग होंगे, जो इस तरह से सोचते होंगे. उन सारे लोगों को मैं अपने इस संपादकीय में प्रणाम करता हूं.

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