अवधेश बजाज

एक भावशून्यता भीतर कुंडली मारकर बैठ चुकी है। कैफी आजमी की गरम हवा वाली रात सहचरी बन गयी लगती है। प्रेमचंद की पूस वाली रात के बर्फीले अहसास ने विचार प्रक्रिया का भी खून जमा दिया लगता है। दुष्यंत कुमार की आवाज में असर के लिए बेकरारी अब हताशा के चलते छटपटाहट में बदल गयी होगी। शमीम जयपुरी ने लिखा था, ‘बहुत तवील शब-ए-ग़म है क्या किया जाए, उमीद-ए-सुब्ह बहुत कम है क्या किया जाए’ ये सारी रचनाएं किसी भी तरह आशाजनक वातावरण की नुमाइंदगी नहीं करती हैं। और शायद यही वजह है कि मौजूदा माहौल में इनकी सोहबत एकदम सम-सामयिक मामला लगने लगा है। हम संगतराश होते तो यकीनन बीते छह साल और कुछ अधिक वाले समय में उम्मीदों के विखंडन वाली मूर्तियों के अलावा और कुछ भी न बना सके होते। यदि मुसव्विर वाली काबिलियत होती तो भी कैनवास पर हमारी कूची इस दौर की काली लकीरें ही उकेर सकती थी। मौसिकी का हुनर होता तो हमारे साज चीत्कार वाली धुनों से अधिक और कुछ भी न कर पाते और जो नग्मानिगार कहे जाते तो रुदन-घुटन से आगे बढऩे की कलम की हैसियत ही नहीं रह जाती।

आधा दर्जन साल से ज्यादा का समय बीत गया। हालात ऐसे ही हैं ‘अँधेरा कायम रहे’ की भयावह हसरत के परवान चढऩे का दौर है यह, और सच की रोशनी, वो तो हुक्मरानों और उनके गुलामों की रक्कासा बनकर रह गयी है। सच अपना जलवा नुमाया करने की कीमत वसूलता है। सच को इच्छाधारी नाग बना दिया गया है। जैसी मर्जी, वैसा रूप लेकर वह भरमाने के काम करने लगा है। हाल ही में उसने प्रकट किया कि आज का एकलौता सच यही है कि मध्यप्रदेश सरकार जेईई, नीट देने वालों के आने-जाने के लिए परिवहन का मुफ्त बंदोबस्त करेगी। लेकिन इसके नंगे पक्ष को छिपा लिया गया। यह तथ्य कम दिखने और बिलकुल भी न बिकने वाले मीडिया तक ही सिमट कर रह गया कि राज्य में करीब तीस फीसदी बच्चे इन इन्तेहानों में शामिल ही नहीं हो सके। क्योंकि सरकार की मुफ्त सुविधा के रूप में केवल छलावा उनके हिस्से आया। दरअसल यह दिल्ली के उन्माद को बढ़ावा देने का प्रयास मात्र था।

केंद्र की सरकार इस बात पर आमादा थी कि जेईई और नीट को लेकर विपक्ष के किसी सुझाव/मांग को किसी भी तरह नहीं मानना है। इसलिए आधे-अधूरे इंतजामात के बीच ये परीक्षाएं आयोजित कर दी गयीं। सोचिये कि इसके चलते यदि अकेले मध्यप्रदेश में ही बड़ी संख्या में लोग परीक्षा न दे सके तो देश के स्तर पर ऐसे मामले कितनी बड़ी संख्या में हुए होंगे। लेकिन इच्छाधारी सांप ऐसे सच को लीलता जा रहा है, उसके जहर के हवा में प्रसारित कण कई तथ्यों के आगे पर्दा डाल दे रहे हैं। इसीलिये तो हम य यह नहीं देख पा रहे कि कॉलेज लेवल से नीचे के विद्यार्थियों के साथ ही कोरोना के नाम पर कितना बड़ा खेल किया जा रहा है। ऑनलाइन पढ़ाई वह शोशेबाजी है, जो इसका सच समझने वालों को भीतर तक साल रही है। क्योंकि यह तथ्य उनसे छिपा नहीं है कि देश के ज्यादातर गाँव और कस्बों में आज भी बिजली की कमी व्याप्त है। इंटरनेट के लिए सुविधाएँ नहीं दी गयी हैं। तो फिर इस बहुत बड़े स्थान पर रहने वाली नौनिहालों की बहुत बड़ी आबादी को भला ऑनलाइन शिक्षा का क्या लाभ मिल पा रहा होगा? यहां यह मांग उचित नहीं है कि कोरोना के बावजूद स्कूल खोल दिए जाएं, किन्तु यह मांग करना भी तो गलत नहीं है कि पढ़ाई की देशव्यापी वैकल्पिक व्यवस्था सुनिश्चित की जाए।

आप जूनून से भरकर ‘मन की बात’ करते चले जा रहे हैं। लेकिन धन की बात करना आपको सुहाता ही नहीं है। तो चलिए यह काम हम ही कर देते हैं, मूडीज की एक हालिया रिपोर्ट को जरा आईना बनाकर देख लीजियेगा। रपट कहती है कि हमारा देश बहुत जल्दी दुनिया की सबसे बड़ी कर्जदार अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है। इसमें यह भी कहा गया है कि उभरते बाजार में हमारी इकोनॉमी आने वाले समय में सबसे ज्यादा बोझ वाली साबित होगी। याने दिल्ली वालों के ‘अच्छे दिन’ इस रूप में हमें नोचने-खसोटने जा रहे हैं, लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज सुनने की किसी को फुरसत ही नहीं है, हम तो देसी कुत्ते के शोर में डूबे हुए है, देश में ही बने खिलौनों की विरुदावली के कोलाहल में मगन हैं, मैंने देखे हैं तो नेता और अफसर, जिनके घर विदेश से लाये गए लाखों रुपये के कुत्ते आज भी पाले जा रहे हैं, ऐसे आशियाने, जिनमें पचास हजार तक के कुत्ते को ‘चीप’ कहकर हिकारत की नजर से देखा जाता है, इन सबके बीच देसी कुत्तों की चिंता हमारे माथे मढ़ दी जा रही है, भोपाल से होशंगाबाद जाने वाले रास्ते पर आज भी बैठते हैं वे लोग, जो लकड़ी के देसी खिलौने बनाते हैं, ऑनलाइन गेम की पीढ़ी के बीच उनका व्यवसाय लगातार दम तोड़ रहा है, कौन रूचि लेगा उनसे खिलौने लेने में? लेकिन आपको कुछ कहना था तो कह दिया। बगैर यह समझे कि कहने को और भी बहुत कुछ बचा है, यह क्षमा मांगना है कि नोटबंदी से नाहक ही आम जनता को परेशान होना पड़ा, इस अत्याचार के लिए भी सामूहिक माफी मांगनी है कि जीएसटी आखिरकार सही में गब्बर सिंह टैक्स ही साबित हुआ है, राज्यों को तो उनका हिस्सा आप दे ही नहीं रहे, इधर, सुप्रीम कोर्ट खफा है, चीख कर कह रही है कि आप कोरोना काल के बावजूद बैंकों को लोगों से ब्याज वसूलने से नहीं रोक पा रहे, मगर आप चुप हैं, चुनिंदा टेलीकॉम कंपनियों को राहत देने के लिए आप मोबाइल फोन का टेरिफ 27 फीसदी तक बढ़ाने की फिराक में हैं, और कितना निचोड़ोगे हमें प्रभु! राहुल गाँधी का यह आरोप बिलकुल सही है की जीडीपी में ऐतिहासिक गिरावट आयी है, बेरोजगारी का आंकड़ा बीते पैंतालीस साल में सबसे ज्यादा हो चुका है।

इस सब पर तुर्रा यह कि आप गरीबी मिटाने के लिए ठेठ पूंजीवादी तरीके से काम कर रहे हैं, एक रुपये किलो चावल या ऐसे ही बहुत कम दाम पर कोई सामान उन्हें उपलब्ध करवाना समस्या का समाधान नहीं है, इससे तो उनके गरीबी से बाहर आने के जज्बात ही खत्म हो जाएंगे। वे सरकारी सहूलियतों की अफीम चाट कर मस्त पड़े रहेंगे। सच तो यह है कि भले ही आप एक अरब से ज्यादा आबादी की चिंता के दावे करें, किन्तु आप खुद को उन सत्तर हजार आला अफसरों के मकडज़ाल से बाहर नहीं निकाल पाए हैं, जो आपसे अपनी सुविधानुसार नीतियों को बनाने और उनकी आड़ में अपना उल्लूओं सीधा करने के काम को अंजाम दे रहे हैं, कभी मन की बात में इस सबका भी जिक्र कर दें महानुभाव। ताकि एक क्षण को ही सही, यह तो प्रतीत हो कि सच से आपका नाता अभी भी पूरी तरह टूटा नहीं है।

अंत में, एक बात बहुत अधिक विचलित कर रही है, ये देसी कुत्ते वाली बात से आपका सच्चा आशय क्या है? छह साल से अधिक समय से तो आप जैसे मास्टर की आवाज ही सुनने को हम मजबूर हैं, तो क्या देसी कुत्ते से आपका आशय आपके और हमारे बीच मास्टर तथा उसे सुनने वाले चौपाये से है? मुझे पता है कि हमेशा की ही तरह आप इसका कोई जवाब नहीं देंगे, लेकिन क्या करूँ, चुप रहना अब असहनीय हो चुका है।

लेखक बिच्छू डॉट कॉम के संपादक हैं

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