पुण्यतिथि विशेष

जन्मतिथि- 18 फरवरी 1894

पुण्यतिथि- 24 अक्टूबर 1954

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रफ़ी अहमद क़िदवई भारतीय राजनीतिक इतिहास के उन चंद शख्सियतों में शामिल रहे हैं, जिन्होंने आजादी से पूर्व और आजादी के बाद भी देश को एक दिशा में देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. रफ़ी अहमद क़िदवई का जन्म 18 फ़रवरी 1894 को उत्तर प्रदेश के बाराबंकी ज़िले के मसौली नामक स्थान पर हुआ था. उनके पिता एक ज़मींदार और सरकारी अधिकारी थे. रफ़ी अहमद क़िदवई की आरम्भिक शिक्षा बाराबंकी में हुई और अलीगढ़ के एएमओ कॉलेज से उन्होंने अपनी स्नातक की शिक्षा पूरी की. उ

सके बाद उन्होंने क़ानून की पढ़ाई शुरू की, लेकिन पढ़ाई के बीच में ही महात्मा गांधी के आह्वान पर असहयोग आंदोलन में सम्मिलित हो गए. ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध प्रदर्शन करने और नारे लगाने के अभियोग में उन्हें दस माह के कठोर कारावास का दंड दिया गया. कारावास से मुक्ति के बाद वे नेहरू के आवास आनंदभवन चले गए. मोतीलाल नेहरू ने उन्हें अपना सचिव नियुक्त कर दिया.

उसके बाद वे मोतीलाल नेहरू द्वारा संगठित स्वराज्य पार्टी के सक्रिय सदस्य हो गए. क़िदवई का नेहरूद्वय और विशेषकर जवाहरलाल में अटूट विश्वास था. उनकी संपूर्ण राजनीति जवाहरलाल जी के प्रति मोह से प्रभावित रही. कई लोग उन्हें नेहरू का पूरक कहते थे. कहा जाता है कि नेहरू जी योजना बनाते थे और रफ़ी अहमद उसे कार्यान्वित करते थे. उनमें संगठन की अपूर्व क्षमता थी. 1918 में उनकी शादी हुई, जिससे उन्हें एक पुत्र हुआ. लेकिन दुर्भाग्यवश बच्चा सात वर्ष की आयु में ही चल बसा.

1926 में वे स्वराज्य पार्टी के टिकट पर लखनऊ फैजाबाद क्षेत्र से केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा के सदस्य निर्वाचित हुए और स्वराज्य पार्टी के मुख्य सचेतक नियुक्त किए गए. रफ़ी अहमद गांधी-इरविन-समझौते से असंतुष्ट थे. वे स्वराज्य-प्राप्ति हेतु क्रांति का मार्ग ग्रहण करने के पक्षधर थे. इस संबंध में 1930 में कांग्रेस के निश्चयानुसार उन्होंने भी सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया. 1931 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के करांची अधिवेशन के अवसर पर उन्होंने मानवेंद्रनाथ राय से परामर्श किया और उनके परामर्शानुसार क़िदवई ने जवाहरलाल नेहरू जी के साथ इलाहाबाद और समीपवर्ती जिलों के किसानों के मध्य कार्य करना प्रारंभ किया.

जमींदारों द्वारा किए जा रहे किसानों के दोहन और शोषण की समाप्ति के लिए वे सतत प्रयत्नशील रहे. 1935 में शासन विधान लागू होते समय रफ़ी अहमद क़िदवई उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे. मुस्लिम लीग द्वारा उनके ख़िलाफ़ फैलाए गए वातावरण के कारण उन्हें पहली बार चुनाव में सफलता नहीं मिली, जिसके बाद उपचुनाव के द्वारा वे उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य बने. बाद में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के निर्णयानुसार रफी अहमद ने केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया. वे उत्तर प्रदेश कांग्रेस के महामंत्री और बाद में अध्यक्ष निर्वाचित हुए. 1937 के महानिर्वाचन में वे उत्तर प्रदेश कांग्रेस के चुनाव संचालक थे. उस समय वे स्वयं दो स्थानों से प्रत्याशी रहे, पर दोनों क्षेत्रों से पराजित हुए.

मुस्लिम लीग के प्रभाव के कारण उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के लिए सुरक्षित स्थानों में से एक पर भी कांग्रेस प्रत्याशी विजयी न हो सका. रफ़ी अहमद बाद में एक उपनिर्वाचन में विजयी हुए, जिसके बाद वे उत्तर प्रदेश सरकार में राजस्व मंत्री नियुक्त किए गए. उत्तर प्रदेश के दखीलकारी (टेनेंसी) विधेयक उनके मंत्रित्वकाल की क्रांतिकारी देन थी. द्वितीय महायुद्ध के समय कांग्रेस के निर्णयानुसार सभी मंत्रिमंडल सदस्यों ने त्यागपत्र दे दिए.

रफ़ी अहमद का व्यक्तित्व अत्यंत रहस्यमय और निर्भीक था. उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में वरिष्ठ पद पर रहते हुए उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए उच्च कमान के आधिकारिक प्रत्याशी पट्‌टाभि सीतारमैया के विरुद्ध सुभाषचंद्र बोस को खुला समर्थन दिया और उनके पक्ष में प्रचार भी किया, इसमें बोस विजयी हुए. 1949 में उन्होंने अध्यक्ष पद के लिए सरदार बल्लभ भाई पटेल के प्रत्याशी पुरुषोत्मदास टंडन के विरुद्ध डॉ. सीतारमैया का समर्थन किया, जिसमें श्री टंडन पराजित हुए. 1946 में राजस्व मंत्री रहे किदवई बाद में उत्तर प्रदेश के गृहमंत्री बने.

यह देशविभाजन का दौर था. कहा जाता है कि किदवई का गृह मंत्री पद पद बने रहना उत्तर प्रदेश के कुछ संकीर्ण दृष्टि के लोगों को रास नहीं आ रहा था, उनकी आलोचना होने लगी थी, जिसके बाद नेहरू ने उन्हें दिल्ली बुला लिया और वे केंद्रीय संचार और नागरिक उड्‌डयन मंत्री नियुक्त किए गए. संगठन में कुछ और विचार भेद होने के कारण कुछ समय के लिए वे कांग्रेस संगठन और मंत्रिमंडल से अलग होकर किसान मज़दूर प्रजापार्टी के सदस्य बन गए थे.

लेकिन नेहरू जी के कांग्रेस अध्यक्ष बनते ही वे पुन: दल में वापस आ गए. वापसी के बाद उन्होंने केंद्र में खाद्य और कृषिमंत्री का पदभार सम्भाला. शासन के सभी पदों पर, चाहे प्रदेश हो या केंद्र, उन्होंने अपनी छाप छोड़ी और प्रशासनिक क्षमता के नए मापदंड स्थापित किए.

जवाहरलाल जी की समाजवाद में आस्था थी और सरदार पटेल दक्षिणपंथी विचारधारा के पोषक थे. कांग्रेस संगठन पर सरदार का अधिकार था. यद्यपि सरदार पटेल ने नेहरू जी को प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया था, तथापि क़िदवई को इस कटु सत्य का स्पष्ट भान था कि सरदार पटेल की उपस्थिति में नेहरू जी शासन के नाममात्र के अध्यक्ष रहेंगे.

वे नेहरू जी का मार्ग निष्कंटक बनाना चाहते थे, जिससे कांग्रेस की सत्ता उनके हाथ में हो. लेकिन रफ़ी अहमद अपने प्रयास में विफल रहे. उत्तर प्रदेश में रफ़ी-समूह के विधायकों पर अनुशासनहीनता के आरोप लगाकर उन्हें कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया, जिसके बाद रफ़ी-समूह विरोध पक्ष में आ गया. मई 1951 में कांग्रेस महासमिति की बैठक हुई, जिसमें टंडन जी से समझौता न होने पर आचार्य कृपलानी ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया, लेकिन रफ़ी की अनिश्चय की स्थिति बनी रही.

कहा जाता है कि यदि वे नेहरू जी का मोह त्यागकर कांग्रेस से अलग हो गए होते, तो या तो राजनीति में समाप्त हो जाते या फिर देश के सर्वोच्च नेता होते और शीघ्र ही शासन की बागडोर उनके हाथ में आ जाती. जुलाई में बेंगलुरु अधिवेशन से निराश होकर उन्होंने कांग्रेस की प्रारंभिक सदस्यता और केंद्रीय मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया और किसान मजदूर प्रजा पार्टी की सदस्यता स्वीकार कर ली. जवाहरलाल जी के कांग्रेस अध्यक्ष निर्वाचित होने के पश्चात रफी अहमद पुन: कांग्रेस में लौट आए.

1952 में बहराइच संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से विजयी होने के पश्चात वे भारत के खाद्य और कृषि मंत्री नियुक्त हुए. संचार और नागरिक उड्‌डयन मंत्री के रूप में कई क्रांतिकारी कार्यों के लिए उन्होंने पर्याप्त ख्याति अर्जित की थी. उस समय खाद्य मंत्रालय को अशुभ माना जाता था, इसलिए सभी को शंका थी कि यह मंत्रालय किदवई के राजनीतिक भविष्य के लिए भी अशुभ सिद्ध होगा.

लेकिन उससे उलट क़िदवई ने चमत्कार कर दिया. कृत्रिम अभाव की स्थिति को समाप्त करने के लिए उन्होंने मनोवैज्ञानिक उपचार के आवश्यक पग उठाए और खाद्यान्न व्यापार को नियंत्रण मुक्तकर दिया. प्रकृति ने भी क़िदवई का साथ दिया. यह उनकी राजनीतिक प्रतिष्ठा का चरमोत्कर्ष था. शीघ्र ही उप-प्रधानमंत्री के रिक्त स्थान पर उनकी नियुक्ति की संभावना थी, लेकिन 1936 से ही उच्च रक्तचाप और हृदरोग से पीड़ित रफ़ी अहमद के स्वास्थ्य ने उनका साथ नहीं दिया और 24 अक्टूबर 1954 को हृदयगति रूक जाने से दिल्ली में उनका देहावसान हो गया. उनके अंतिम दर्शन के लिए उनके घर मसौली पहुंचे नेहरू को जब पता चला कि उनके ऊपर कर्ज़ है और घर की दीवारें कच्ची हैं, तो वे वहीं उनके आंगन में रो दिए.

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