orissaदक्षिण कोरियाई कंपनी पोस्को (पोहांग स्टील कंपनी) ने ओड़ीशा में इंफ्रास्ट्रक्चर और स्टील प्लांट की अपनी महत्वकांक्षी परियोजना से पीछे हटने का फैसला किया है. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के मामले में यह परियोजना अपने समय की सबसे बड़ी परियोजना थी. लेकिन पिछले एक दशक से जारी विरोध प्रदर्शन, अदालती कार्रवाई और काम में आई बार-बार की रुकावट के बाद पोस्को ने इस एकीकृत परियोजना से अपने हाथ खींचने का फैसला किया है. इस बात का खुलासा कंपनी ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के  समक्ष इस परियोजना से संबंधित सुनवाई के दौरान किया. पोस्को ने ट्रिब्यूनल के सामने यह साफ किया कि ओड़ीशा में स्टील प्लांट और उससे संबंधित बुनियादी ढांचा तैयार करने  में अब उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है. वर्ष 2005 में ओड़ीशा के जगतसिंहपुर में पोस्को द्वारा स्टील प्लांट स्थापित करने की घोषणा हुई थी, लेकिन स्थानीय लोगों के ज़बरदस्त विरोध, पर्यावरणीय मंजूरी (एनवॉयरनमेंट क्लीयरेंस) एवं भूमि अधिग्रहण में आई परेशानियों की वजह से दस साल बाद भी इस प्लांट पर काम शुरू नहीं हो सका. लेकिन उक्त कारणों के अतिरिक्त और भी कई कारण हैं जिनकी वजह से यह परियोजना दिन का उजाला नहीं देख सकी.

पोस्को मामला भारत के सबसे गरीब जिलों में विकास के नाम पर लंबे समय तक चलने वाली बेनतीजा प्रक्रिया का एक बेहतरीन उदाहरण है. इससे यह भी ज़ाहिर होता है कि विदेशी निवेशकों के लिए भारत कितना मुश्किल देश है. बहरहाल काफी समय पहले ही यह लगने लगा था की पोस्को जगतसिंहपुर के अपने विवादित स्टील प्लांट के निर्माण से पीछे हट जाएगा. इस बात का इशारा उसी वक्त मिल गया था जब जगतसिंहपुर में उसकी स्पेशल इकोनॉमिक जोन (एसइजेड) की मंजूरी साल 2014 में समाप्त हो गई थी और  कंपनी ने उसके रिन्यूअल के लिए आवेदन नहीं दिया था.

स्टील प्लांट और इससे जुड़े इंफ्रास्ट्रक्चर की एकीकृत परियोजना के तहत अक्टूबर 2006 में केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय ने एसइजेड को मंजूरी दी थी. जिसके तहत पोस्को को 1,601.6 एकड़ भूमि पर एसइजेड विकसित करने का काम मिला था. लेकिन इस भूमि का अधिग्रहण नहीं हुआ इसलिए इस परियोजना पर कभी काम शुरू नहीं हो सका. इस परियोजना को शुरू करने के लिए मांगी गई अतिरिक्त समय सीमा 24 अक्टूबर 2014 को समाप्त हो गई थी, इसके बाद समय सीमा बढ़ाने के लिए कंपनी ने आवेदन नहीं दिया. ओड़ीशा सरकार और इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ऑ़ङ्ग ओड़ीशा के उदासीन रवैये को देखते हुए वाणिज्य मंत्रालय के विकास आयुक्त ने पोस्को के एसइजेड की मंजूरी रद्द करने की सिफारिश कर दी थी.

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इस परियोजना से पीछे हटने का पोस्को का फैसला अचानक नहीं हुआ. यह बात भारत में दक्षिण कोरिया के राजदूत चो हुन के ओड़ीशा की राजधानी भुवनेश्‍वर के हालिया दौरे में दिए गए बयान से भी साबित होती है. हुन ने कहा था कि पिछले एक वर्ष के दौरान पोस्को ने जगतसिंहपुर प्रोजेक्ट पर दक्षिण कोरिया सरकार से मदद नहीं मांगी है और न ही यह मुद्दा भारत-दक्षिण कोरिया के बीच हुई हालिया द्विपक्षीय वार्ता के दौरान उठा. अब सवाल यह उठता है कि पोस्को ने इस परियोजना से पीछे हटने का फैसला क्यों किया? क्या जनता के विरोध की वजह से ऐसा हुआ? या भूमि अधिग्रहण में ओड़ीशा सरकार की नाकामी इसका कारण बनी? या फिर इसकी कोई और वजह थी? भूमि अधिग्रहण में अत्यधिक विलम्ब के साथ-साथ पर्यावरण मंजूरी से जुड़े मामले पोस्को के लिए चिंता का विषय बने हुए थे. लेकिन दस साल लंबे इंतजार के बाद कंपनी के इस परियोजना से पीछे हटने के केवल यही कारण नहीं थे. हालांकि, लोगों को यह भी लग सकता है कि पोस्को का यह फैसला तात्कालिक है, लेकिन हकीक़त यह है कि इस फैसले के लिए कम से कम एक साल पहले से ज़मीन तैयार की जा चुकी थी.

दरअसल, मार्च 2015 में केंद्र सरकार द्वारा खदानों की नीलामी से संबंधित पारित क़ानून इस परियोजना के ताबूत की अंतिम कील साबित हुआ. हालांकि इस क़ानून के पारित होने से पहले ओड़ीशा सरकार ने पोस्को को यह आश्‍वासन दिया था कि उसे खदान की लीज मुफ्त में दी जाएगी, लेकिन अब इस नए क़ानून के मुताबिक़ उसे खदानों की नीलामी में भाग लेना होगा. ज़ाहिर है, नीलामी में यह आशंका तो बनी ही रहेगी कि उसे खदानों की लीज मिलेगी या नहीं? दूसरा प्रतिस्पर्धा के आधार पर बोली लगने की वजह से खनिज  की लागत भी बढ़ सकती है. इस दौरान वैश्‍विक बाज़ार में स्टील की कीमतों में लगातार गिरावट आई है. लिहाजा इस परियोजना की व्यावहारिकता भी सवालों के घेरे में आ गई है. पिछले साल भारत में पोस्को के प्रवक्ता आईजी ली ने पोस्को का पक्ष साफ करते हुए कहा था कि हमें देखना होगा कि इस परियोजना पर कितनी लागत आएगी और यह आर्थिक तौर पर व्यावहारिक है या नहीं. उन्होंने यह भी कहा था कि आखिरी निर्णय नीलामी का पूरा विवरण आने के बाद ही लिया जाएगा.

बहरहाल, पोस्को ने नीलामी में भाग नहीं लिया था और उसके फौरन बाद अपने स्टाफ की संख्या में भी कटौती करके उसने अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी थी. ओड़ीशा सरकार की मदद से कंपनी ने केंद्र सरकार को प्रभावित करने की कोशिश की थी, लेकिन उसे उसमें सफलता नहीं मिली. ओड़ीशा के स्टील और खान मंत्री प्रफुल्ल मल्लिक के मुताबिक पोस्को को रियायत देने के राज्य सरकार के प्रस्ताव को केंद्र सरकार ने अस्वीकार कर दिया. उसके बाद पोस्को को यह फैसला करना था कि वह नीलामी में हिस्सा ले या नहीं, और नीलामी उसके लिए व्यावहारिक है या नहीं.

जब साल 2005 में ओड़ीशा सरकार के साथ पोस्को ने इस परियोजना के लिए समझौता किया था तब यह (उस समय तक का) भारत में आया सबसे बड़ा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश था. पोस्को ने स्टील प्लांट के साथ-साथ एक बंदरगाह और एक मल्टी-प्रोडक्ट एसइजेड की एकीकृत परियोजना के लिए 12 अरब डॉलर के निवेश का प्रस्ताव रखा था. वर्ष 2007 में जहां उसे पर्यावरण की मंज़ूरी मिल गई थी, वहीं 2010 में वन विभाग ने भी परियोजना को हरी झंडी दिखा दी थी लेकिन भूमि अधिग्रहण मुश्किल काम साबित हुआ, क्योंकि स्थानीय लोगों (जिनके लिए चावल और पान के पत्तों की खेती जीविका का मुख्य साधन है) ने इसका पुरजोर विरोध किया था.

इस दौरान 2014 में पर्यावरण की संशोधित मंजूरी को ओड़ीशा के पर्यावरण कार्यकर्त्ता प्रफुल्ल समंतारे ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में चुनौती दी थी. लेकिन इस परियोजना का बचाव करने के बजाए पोस्को ने ट्रिब्यूनल से इस मंज़ूरी को समाप्त करने की अपील कर दी. कंपनी ने भूमि अधिग्रहण में आने वाली दुश्‍वारियों का हवाला देते हुए कहा कि 19 जुलाई 2017 तक दी गई पर्यावरण मंजूरी की अवधि में पोस्को के लिए इस परियोजना को पूरा कर पाना असंभव है.

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पर्यावरण मामलों के वकील ऋत्विक दत्त कहते हैं कि भारत में किस तरह वैधानिक और क़ानूनी प्रक्रिया की अनदेखी करके विदेशी निवेशकों को आमंत्रित किया जाता है, पोस्को प्रकरण इसका एक बेहतरीन उदाहरण है. इस परियोजना के लिए उचित पर्यावरण प्रभाव आकलन (एनवायरनमेंट इम्पैक्ट असेस्मेंट) नहीं किया गया. बगैर इस बात की जांच किए कि 12 अरब डॉलर की इस परियोजना का पर्यावरण और सामाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने उसे अपनी स्वीकृति भी दे दी. इसमें सबसे हैरानी वाली बात यह है कि पोस्को ने बिना लौह अयस्क की उपलब्धता की गारंटी लिए स्टील प्लांट स्थापित करने और बंदरगाह निर्माण की परियोजना में हाथ डाल दिया. पोस्को का मामला एक और उदाहरण पेश करता है जिसमें कंपनियां सरकारों के सामने ऐसे हालात खड़े कर देती हैं जहां से वापस नहीं लौटा जा सकता. ग्रीन ट्रिब्यूनल में यह साबित हो गया कि पोस्को को मंजूरी देते वक्त सभी शर्तों का ध्यान नहीं रखा गया था और निर्णय प्रक्रिया भी पूर्वाग्रह से ग्रसित थी. दत्ता के मुताबिक कंपनी ने वन संरक्षण अधिनियम-1980 के प्रावधानों के तहत औपचारिक अनुमति से पहले ही पेड़ों की कटाई शुरू कर दी थी. एक कंपनी के व्यापारिक हितों के लिए बिना किसी रोक-टोक के क़ानून तोड़ने दिए गए. सरकार आम लोगों (खास तौर पर हाशिए पर पड़े लोगों) के हितों की रक्षा करने के बजाए, कंपनी की एजेंट बन गई. और कंपनी हित को लोक हित बताकर उसके लिए काम करने लगी.

निवेश की इस दुर्गति में पोस्को, राज्य और केंद्र सरकार और राज्य की जनता सभी शामिल हैं. पोस्को के वापस जाने के फैसले के बाद क्या फिर सब कुछ वहीं वापस चला गया है जहां से इसकी शुरूआत हुई थी. शायद नहीं! क्योंकि इस परियोजना पर पूरी तरह से पर्दा गिरना अभी बाकी है. सरकार के फैसले वापस हो सकते हैं लेकिन पिछले दस वर्षों में यहां जो काम हुआ है वह वापस नहीं हो सकता.

पिछले दस वर्षों के दौरान सरकार और स्थानीय लोगों के बीच घमासान लगातार जारी रहा. जहां एक तरफ सरकार दक्षिण कोरियाई कंपनी के लिए किसी भी कीमत पर भूमि अधिग्रहण के लिए दृढ़ थी, वहीं दूसरी तरफ स्थानीय लोग अपनी जान देकर भी अपनी जीविका के पारंपरिक साधन को हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे. प्लांट की साईट से लेकर कई अंतरराष्ट्रीय मंच इस लड़ाई का मैदान बने हुए थे. दरअसल सामाजिक बहिष्कार से लेकर धरना प्रदर्शन और आर्थिक नाकेबंदी तक सभी तरह के हथियार इस्तेमाल किए गए.

अब जब यह जंग समाप्त हो गई है, तो जाहिर है इसमें किसी की जीत हुई होगी और किसी की हार. धिनकि, नवगांव और गडकुजंग ग्राम पंचायतों ने मौजूदा घटनाक्रम पर अपनी प्रसन्नता जाहिर की है, लेकिन उन्होंने अपनी अप्रसन्नता के भी कई कारण गिनवाए हैं. मनोरमा खटुआ का कहना है कि लड़ाई अभी समाप्त नहीं हुई है. जो ज़मीन किसानों से जबरदस्ती छिनी गई है, हम उनकी वापसी की मांग करेंगे. आज कंचन मल्ला,  कुनिलता, स्वेन और सबितल दौलुआ जैसी वृद्ध महिलाओं समेत सैकड़ों आंदोलनकारी अपने शरीर पर रबर की गोलियों के घाव लेकर बैठी हुई हैं. इन जैसे लोग आज भी कष्ट उठा रहे हैं क्योंकि उनके पास न तो हिम्मत है और न ही पैसा. ताकि वे अस्पताल जाकर अपना इलाज करवा सकें. वहीं नारायण मंडल की त्रासदी कौन सुनेगा जिन्होंने 20 जून 2008 को पोस्को के विरोध में आयोजित प्रदर्शन में अपने 33 वर्षीय बेटे तपन को खो दिया था या फिर तरुण जिनका छोटा बेटा 2 मार्च 2013 को मारा गया था, उनका दुखड़ा कौन सुनेगा. इसके अलावा उन 1200 पोस्को विरोधी आंदोलनकारियों के विरुद्ध दर्ज मुक़दमों का क्या होगा?

पोस्को के समर्थकों की परेशानियां और भी बड़ी हैं. उन्होंने अपना वर्तमान और भविष्य सब कुछ पोस्को के पास गिरवी रख दिया था. पटान गांव के उन 52 परिवारों का क्या होगा जिन्होंने पोस्को का समर्थन किया था और अपनी जड़ों और घरों से विस्थापित हो गए थे? वे एक अलग तरह के संघर्ष से जूझ रहे हैं. वे फिर से अपने पुश्तैनी गांव में बसना चाहते हैं.  क्या इन परिवारों की जीवन फिर से सामान्य हो पाएगा? इन किसानों ने आगे आकर पोस्को समर्थक ग्रुप बनाया था. इन्होंने अपने लिए नौकरी के सपने पाल रखे थे ताकि अपने परिवार को आर्थिक रूप से सुरक्षित कर सकें. बहुतों को मुआवजे की जो रक़म मिली थी उसे उन्होंने घोटाला ग्रस्त चिट-फंड कंपनियों में गंवा दिया, पिछले कई वर्षों से उनके हाथ खाली हैं. प्रभाकर स्वेन स्थानीय लोगों की भावनाओं को बयान करते हुए कहते हैं कि इस खेल में केवल दलालों को फायदा पहुंचा है. स्थानीय लोगों ने अपनी जायदाद और जीविका के साधन खो दिए हैं. आपसी भाईचारा खो दिया है. जो लोग  पोस्को का समर्थन कर रहे थे वे आज पोस्को का विरोध करने वाले लोगों का सामना करने की स्थिति में नहीं हैं. क्षेत्र में आम सोच यह है कि यदि लोगों की ज़मीनें उन्हें वापस दे दी जाती हैं और आंदोलनकारियों पर दर्ज मुक़दमे वापस ले लिए जाते हैं तब भी सामान्य जीवन के पटरी पर आने में थोड़ा समय लगेगा. बहरहाल सरकार की तरफ से इस सिलसिले में कोई गर्मजोशी नहीं दिखाई जा रही है.

यदि मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के बयान से कुछ नतीजा निकाला जाए तो ऐसा नहीं लगता है कि इस परियोजना को लेकर सरकार में कोई उत्साह बाक़ी है. इस मामले पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पटनायक ने कहा कि ग्रीन ट्रिब्यूनल के समक्ष अपना पक्ष ज़ाहिर करने के बाद पोस्को ने हमारे समक्ष हालिया बैठक कुछ भी नहीं कहा है. यदि राज्य सरकार अब इस सिलसिले में पोस्को से बात करने में पहल नहीं कर रही है तो वह परियोजना का विरोध करने वाले लोगों की फिक्र क्या करेगी?

राज्य सरकार ने भी इस परियोजना में अपनी राजनीतिक विश्‍वसनीयता दांव पर लगा रखी थी लेकिन उसके हाथ कुछ भी नहीं आया. कोरियाई कंपनी के राज्य से बाहर जाने की वजह से निवेश के लिए एक ठोस स्थान के रूप में ओड़ीशा के नाम पर बट्टा लगा है. क्या ओड़ीशा इस बदनामी से उभर पाएगा? जिस तरह प्रशासन इस स्थिति से अनजान बनने की कोशिश कर रहा है उससे तो ऐसा नहीं लगता है.

पोस्को का मामला भारत में निवेश के इक्षुक निवेशकों के लिए एक महत्वपूर्ण सबक भी है. उनके लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि वे भारत के क़ानून का अक्षरशः पालन करते हुए आगे बढ़ें. दूसरी बात यह कि कोई भी व्यवसाय स्थानीय लोगों को अलग-थलग करके सफल नहीं हो सकता.

रेगुलेटरी (नियामक) शॉर्टकट्स किसी परियोजना के लिए केवल विलंब का कारण ही बन सकते हैं. भारत में औद्योगिकरण के लिए पर्यावरण की मंजूरी पेड़ों और वन जीवन की सुरक्षा से संबंधित होते हैं लेकिन यहां स्थानीय लोगों की जीविका, उनकी जीवनशैली और उनकी संस्कृति की भी सुरक्षा होनी चाहिए. जीविका और ज़मीन से संबंधित कोई भी फैसला स्थानीय लोगों की सहमती और उनकी सहभागिता से होना चाहिए. उनकी अनदेखी करना व्यवसाय के लिए हानिकारक हो सकता है, चाहे वह व्यवसाय निर्यात, राजस्व और रोज़गार के कितने ही अवसर पैदा करने का दावा क्यों न करता हो.

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