बिहार में प्रकृति की मार जब भी पड़ती है, उत्तर बिहार के जिलों पर अधिक पड़ती है. उत्तर बिहार के कोई डेढ़ दर्जन जिले प्रकृति के कोपभाजन रहे हैं, लेकिन पूर्णिया, कोशी और दरभंगा के अतिरिक्त तिरहुत प्रमंडल के सीतामढ़ी, शिवहर, मुंगेर प्रमंडल के खगड़िया, बेगूसराय व भागलपुर के नवगछिया अनुमंडल को सबसे अधिक मार झेलनी पड़ती है. ये क्षेत्र नदियों की शरणास्थली के तौर पर जाने जाते हैं. बिहार की 73 प्रतिशत भूमि और 74 प्रतिशत आबादी बाढ़ पीड़ित है, जिसका अधिकांश क्षेत्र यही है. पूर्णिया और सहरसा जिले की कोशी के जलप्रलय, जिसे कुसहा त्रासदी कहते हैं, की पीड़ा से अब तक मुक्त नहीं हुए हैं. उस त्रासदी से आतंकित भूमि और आबादी में अभी विश्वास का माहौल बनाना है, लेकिन इस भूमि को त्रासदी से मुक्ति नहीं मिलनी है. इसलिए इस बार भी इसी क्षेत्र में रूप बदल कर संकटों का आना हुआ है. बिहार सरकार जो भी रिपोर्ट तैयार करे और केन्द्र जितनी और जैसी भी सहायता दे दे, यह सहायता बहुत मायने नहीं रखता.

rahat-ki-rajneetiबिहार पर प्रकृति पिछले कुछ हफ्तों में कुछ ज्यादा ही नाराज लगती है. पहले बेमौसम बरसात से हजारों एकड़ में लगी गेहूं, मकई व दलहन-तिलहन के साथ-साथ केला, आम व लीची की बागानी फसलों की व्यापक क्षति हुई. इस मार से किसानों को दिन में तारे दिखने लगे थे कि आंधी के साथ ओला-वृष्टि (काल बैसाखी) की ऐसी चोट पड़ी कि राज्य के हजारों आशियाने उजड़ गए. इसकी चोट पर किसी मरहम की तलाश चल ही रही थी कि नेपाल में धरती डोल गई और आशियानों के साथ जिन्दगी की उम्मीदें भी धराशायी हो गई. यह सिलसिला इतनी तेजी से चला कि सूबे के सुदूर ग्रामांचल से लेकर पटना-दिल्ली तक भौंचक रह गई. पहले तो बेमौसम बरसात और फिर तूफान व ओला-वृष्टि में कई दर्जन लोग मारे गए थे. जो बचा, उसकी रही-सही कसर भूकम्प ने पूरी कर दी. भूकम्प के कहर से डेढ़ सौ से अधिक लोगों की मौत हो गई, तीन सौ से अधिक लोग घायल हो गए और मुख्यतः नेपाल के सीमावर्त्ती और आम तौर पर उत्तर बिहार के जिलों में हजारों लोग बेघर हो गए हैं. पहले बेमौसम बरसात, फिर आंधी व ओला-वृष्टि और उसके बाद भूकम्प के कहर ने बिहार में ऐसी तबाही मचाई है कि उनके जख्म शायद दशकों में भी न भरें. बिहार सरकार और केन्द्र सरकार ने तत्परता से बचाव व राहत की व्यवस्था की है. बिहार सरकार ने बेमौसम बरसात से परेशान किसानों को राहत देने के लिए साढ़े सतरह अरब रुपये से अधिक की राशि जारी कर दी है. जरूरत पड़ने पर और रकम जारी करने का भरोसा दिलाया है. इन प्राकृतिक आपदाओें में मृत लोगों के परिजनों को चार-चार लाख रुपये की अनुग्रह राशि की घोषणा तो की ही गई, चौबीस से अड़तालीस घंटे के दौरान अनुग्रह राशि के चेकों की संबंधित परिवारों को अदायगी भी कर दी गई. इतना ही नहीं, भूकम्प में नेपाल में मरे बिहारी लोगों के परिजनों को भी इस अनुग्रह-राशि का भुगतान किया जा रहा है. नेपाल के भूकम्प पीड़ितों को सुविधा देने के लिए सीमावर्त्ती नगर रक्सौल, बैरगनिया, जयनगर और जोगबनी के साथ-साथ कोई एक दर्जन अन्य स्थानों पर भी राहत शिविर चलाए जा रहे हैं. ऐसे अनेक स्थानों पर सीमा सुरक्षा बल (एसेसबी) के जवान भी कई राहत शिविर चला रहे हैं, जिन्हें स्थानीय लोगों की भरपूर मदद मिल रही है. बिहार के भूकम्प पीड़ितों के लिए भी ऐसी ही व्यवस्था की गई है. बेमौसम बरसात, आंधी- ओलावृष्टि व भूकम्प से हुई क्षति के आंकलन का काम शुरू करने का दावा किया गया है. अधिकारियों का कहना है कि फसल गंवाने वाले किसानों से मुआवजे के लिए आवेदन हासिल किए जा रहे हैं. पूरी तरह बेघर हुए लोगों की सूची तो तैयार की ही जा रही है, क्षतिग्रस्त मकानों-घरों का भी सर्वेक्षण कार्य तेजी से चल रहा है. अगले कुछ हफ्तों में पीड़ितों को मुआवजे की रकम का भुगतान भी कर दिया जाएगा.
प्राकृतिक संकट के क्षण में इस बचाव व राहत कार्य का सबसे प्रशंसनीय पक्ष है-राज्य और केन्द्र सरकार का एक साथ होना. ऐसा विरल ही होता है-कम से कम बिहार में केन्द्र राज्य के बीच ऐसा समन्वय तो पिछले कई वर्षों या दशकों में देखने को नहीं मिला. बेमौसम बरसात से फसल के मारे जाने पर केन्द्र ने अपनी चिंता जताई थी और मदद का आश्वासन दिया था. आंधी और ओलावृष्टि से जब बिहार के दर्जनों जिलों के तहस-नहस होने की खबर आई तो केन्द्र अत्यधिक संवेदनशील हो गया, सक्रिय दिखने लगा. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं चिंता जताई, गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने मुख्यमंत्री से बातचीत की और केन्द्रीय मंत्रियों की टीम के साथ मौका-मुआयना के लिए बिहार आए. इस टीम में कृषि मंत्री राधामोहन सिंह और संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद भी शामिल थे. श्री राजनाथ सिंह ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ आंधी और ओलावृष्टि से सबसे अधिक प्रभावित पूर्णिया व मधेपुरा जिलों के विभिन्न क्षेत्रों का हवाई सर्वेक्षण किया. इस सर्वेक्षण में बिहार भाजपा के दिग्गज नेताओं सुशील कुमार मोदी और नंदकिशोर यादव को भी शामिल कर लिया गया था. सर्वेक्षण के बाद केन्द्र और राज्य सरकार के ये नुमाइंदे पूर्णिया में मीडिया से रू-ब-रू हुए तो दो विपरीत राजनीतिक सत्ता ध्रुवों में अद्भुत सद्भाव दिखा. राजनाथ सिंह ने कहा कि बिहार सरकार बेहतर काम कर रही है. केन्द्र बिहार के साथ है और विपदा की इस घड़ी में हरसंभव सहयोग किया जाएगा. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि प्रधानमंत्री और केन्द्र सरकार के हम आभारी हैं. इस संकट के क्षण में उन्होंने अद्भुत तत्परता दिखाई है और हरसंभव सहयोग का वायदा किया है. गृह मंत्री के अनुसार बिहार सरकार आंधी और ओलावृष्टि को लेकर एक विस्तृत रिपोर्ट केन्द्र को सौंपेगी. इस रिपोर्ट के अध्ययन के बाद ही केन्द्र पीड़ित बिहार को मदद की घोषणा करेगा, लेकिन आंकलन रिपोर्ट तैयार होने के पहले ही धरती डोल गई और बिहार का प्रशासन इस आफत से तहस-नहस आबादी व क्षेत्र को फौरी राहत देने में जुट गया. नेपाल का मामला होने के कारण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भूकम्प के बचाव व राहत को लेकर स्वयं अत्यधिक सक्रिय रहे और विदेश मंत्रालय सहित अन्य सारे संबंधित मंत्रालयों को कार्य में झोंक दिया, लेकिन बिहार को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से लगातार संपर्क में रहे और यहां भूकम्प की स्थिति का जायजा लेते रहे. भूकम्प पीड़ितों को राहत देने के माले में नीतीश कुमार की सक्रियता को लेकर गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने लोकसभा में उन्हें धन्यवाद दिया, उनका आभार जताया. केन्द्र ने बिहार की क्षति का जायजा लेने केन्द्रीय मंत्री अनंत कुमार व राधामोहन सिंह के अलावा धर्मेन्द्र प्रधान को भेजा. प्रधानमंत्री ने सुशील कुमार मोदी से फीडबैक लिया. केन्द्र सरकार इस संकट में बिहार को सारी सहायता देने को तत्पर दिखती रही है. अब इस संकट में फौरी राहत से फुरसत पाने के बाद ही प्रकृतिक आपदाओं से बिहार में हुई क्षति की रिपोर्टें तैयार होंगी, केन्द्र से मदद मांगी जाएगी. इन रिपोर्टों को तैयार करने में अब जो वक्त लगे.

नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार का यह कदमताल अनायास तो नहीं ही है, यह कदमताल राजनीतिक शह-मात के खेल का ही एक अंग है. इन प्राकृतिक आपदाओं ने नीतीश कुमार को नये सिरे से जनता के बीच गहरे तक जाने का एक मौका दिया है और वह इसका भरपूर लाभ उठा रहे हैं. नीतीश ने बचाव-राहत कार्य का पूरा रोड-मैप खुद तैयार किया, अधिकारियों की शिविरों व अन्य स्थानों पर तैनाती की, मंत्रियों को जिलों में कैम्प करवाया और सारी कार्रवाई का पर्यवेक्षण खुद कर रहे हैं.

बिहार में प्रकृति की मार जब भी पड़ती है, उत्तर बिहार के जिलों पर अधिक पड़ती है. उत्तर बिहार के कोई डेढ़ दर्जन जिले प्रकृति के कोपभाजन रहे हैं, लेकिन पूर्णिया, कोशी और दरभंगा के अतिरिक्त तिरहुत प्रमंडल के सीतामढ़ी, शिवहर, मुंगेर प्रमंडल के खगड़िया, बेगूसराय व भागलपुर के नवगछिया अनुमंडल को सबसे अधिक मार झेलनी पड़ती है. ये क्षेत्र नदियों की शरणास्थली के तौर पर जाने जाते हैं. बिहार की 73 प्रतिशत भूमि और 74 प्रतिशत आबादी बाढ़ पीड़ित है, जिसका अधिकांश क्षेत्र यही है. पूर्णिया और सहरसा जिले की कोशी के जलप्रलय, जिसे कुसहा त्रासदी कहते हैं, की पीड़ा से अब तक मुक्त नहीं हुए हैं. उस त्रासदी से आतंकित भूमि और आबादी में अभी विश्वास का माहौल बनाना है, लेकिन इस भूमि को त्रासदी से मुक्ति नहीं मिलनी है. इसलिए इस बार भी इसी क्षेत्र में रूप बदल कर संकटों का आना हुआ है. बिहार सरकार जो भी रिपोर्ट तैयार करे और केन्द्र जितनी और जैसी भी सहायता दे दे, यह सहायता बहुत मायने नहीं रखता. कुसहा त्रासदी से पीड़ित हजारों परिवारों का पुनर्वास अब प्रक्रिया के पेच में फंसा है. इस बार भी आंधी व ओलावृष्टि से पीड़ित परिवार को अनुग्रह राशि का भुगतान तो हो गया, पर बैंक में खाता न होने के कारण आधा दर्जन से अधिक परिवारों का चेक पड़ा है. उनके लिए एक ही रास्ता है, बैंक में उन परिवारों का खाता खुलवाया जाए, लेकिन अधिकारियों को फुर्सत कहां है. अभी वे भूकम्प राहत में लगे हैं. शायद इसके बाद कुछ करें, यदि कोई और जरूरी काम न आ जाए. इसी तरह क्षति के सर्वेक्षण का काम भी या तो शुरू ही नहीं हुआ है या कागजों पर ही युद्धस्तर पर चल रहा है. वस्तुतः बिचौलिया संस्कृति का विस्तार राजधानी पटना और जिला-प्रखंड मुख्यालयों से आगे पंचायत स्तर तक हो गया है. बिहार के गांवों में बिचौलिया-मुखिया-पंचायत सचिव या अन्य कारिंदों का काला त्रिकोण विकसित हो गया है, जो सरकारी कल्याण योजनाओं को तो चाट ही रहा है, प्राकृतिक आपदा से पीड़ितों के हिस्से को भी डकार रहा है. क्षति के सर्वेक्षण के नाम पर बिहार के प्राकृतिक आपदा पीड़ित जिलों में ऐसा नज़ारा आम है, लेकिन इस ओर देखने की फुरसत अभी किसी को नहीं है, राजनीति को और न नौकरशाही को. अभी तो केन्द्र और राज्य की सरकारें प्राकृतिक संकट के दौर में राहत के नाम पर कदमताल कर रही हैं.
नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार का यह कदमताल अनायास तो नहीं ही है, यह कदमताल राजनीतिक शह-मात के खेल का ही एक अंग है. इन प्राकृतिक आपदाओं ने नीतीश कुमार को नये सिरे से जनता के बीच गहरे तक जाने का एक मौका दिया है और वह इसका भरपूर लाभ उठा रहे हैं. नीतीश ने बचाव-राहत कार्य का पूरा रोड-मैप खुद तैयार किया, अधिकारियों की शिविरों व अन्य स्थानों पर तैनाती की, मंत्रियों को जिलों में कैम्प करवाया और सारी कार्रवाई का पर्यवेक्षण खुद कर रहे हैं. जहां जैसी जरूरत होती है, वैसा वे करते हैं और खुद मुस्तैद रहते हैं. एक वाक्य में वह सब जगह मुस्तैद रहते हैं, दिखते हैं. बिहार विधानसभा चुनाव में अब छह महीने का समय भी नहीं बचा है. इन आपदाओं की छाया-बचाव, राहत कार्य, सहयोग व असहयोग आदि का उस चुनाव पर असर पड़ना तय है. भला ऐसे अवसर को कोई कैसे हाथ से जाने देगा और उसमें भी भाजपा जैसी पार्टी, जो सत्ता हासिल करने को बेकरार बैठी है. इसलिए सूबे में सबसे अधिक संकट के दौर में जनता के बीच नीतीश कुमार का इस तरह सशरीर बना रहना भाजाप को कैसे गंवारा हो सकता है. लिहाजा, भाजपा और उसके नेता नरेन्द्र मोदी के लिए अपने सद्भावपूर्ण रुख का प्रदर्शन जरूरी हो गया. भाजपा ने भी इसे नीतीश कुमार की तरह बिहार की जनता के बीच जाने के एक अतिरिक्त और महत्वपूर्ण अवसर के तौर पर लिया और सक्रिय हो गई. वह और उसके नेता नरेन्द्र मोदी नीतीश कुमार को ऐसा कोई भी अवसर फिलहाल नहीं देना चाहते, जिससे राजनीतिक तौर पर उन्हें (केन्द्र की भाजपा सरकार को) बिहार के विरोधी के तौर चिह्नित किया जा सके.
केन्द्र सरकार ने हर संकट के नाम पर बिहार को हरसंभव मदद का वायदा किया है. वह चाहे बेमौसम बरसात से पीड़ित किसानों को फसल क्षति का मुआवजा हो या आंधी व ओलावृष्टि से पीड़ित आबादी को राहत देने का मामला हो या भूकम्प पीड़ितों को सहायता का. केन्द्र हर बार मंत्रियों की टीम बिहार भेजता रहा है और उस टीम में शामिल मंत्री व उसके नेता बिहार के साथ खड़े रहने व उसे हरसंभव मदद का मुक्त-कंठ से वायदा करते रहे हैं, लेकिन पिछले कई हफ्तों से जारी इस कदमताल से बिहार को कैसे और क्या मिलना है, यह खुलासा कहीं से नहीं हो रहा है. इस मसले पर केन्द्रीय मंत्रियों की टीमें ही नहीं, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी खामोश हैं. बिहार सरकार के वरिष्ठ अधिकारी या भाजपा नेता भूकम्प का हवाला देकर खामोश हो जाते हैं. यह सही भी हो सकता है, पर राजनीति तो अपनी गति से आगे बढ़ती जाती है और वह भी चुनावी साल में. सत्ता जब दांव पर हो या कुर्सी जब मिलती हुई दिखे, तो राजनीति कहती है कि होठ को खुला नहीं रखना चाहिए, सबसे अच्छा चुप रहना है. केन्द्र राज्य की कदमताल और दोनों सत्ता केन्द्रों से जुड़े राजनेताओं-नौकरशाहों की चुप्पी कुछ कहती है. पर, क्या? राम जाने.

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