भीड़ से भिन्न था

तो क्या बुरा था

कबीर भी थें

अम्बेडकर भी थें

रवीन्द्रनाथ टैगोर भी थें

गांधी की भीड़ कभी पैदा होती है क्या?

पत्ते खाकर

आदमी का रक्त बहा दिया

दोष सब्जियों का नहीं

सोच का है

इस बात पर कि वह

खाता है वह सब

जो भीड़ नहीं खाती

खा लेते कुछ भी

पर इंसान का ग्रासआदमखोर

इन प्रेतों की बढ़ती झुंड आपके

पास आएगी.

आज इस वज़ह से

कल उस वज़ह से

निशाना सिर्फ इंसान होंगे

जो जन्म से मिला

कुछ भी नहीं तुम्हारा

फिर इस चीजों पर

इतना बवाल

इतना उबाल

और फिर ऐसा फसाद ?

आज अल्पसंख्यक सोच को कुचला है,

कल अल्पसंख्यक जाति,परसो धर्म

फिर रंग, कद, काठी, लिंग को

फिर उन गांव शहर देश के लोगों को जिनकी संख्या

भीड़ में कम होगी

किसी एक समय में

किसी एक जगह पर

हर कोई उस भीड़ में होगा अल्पसंख्यक

और भीड़ की लपलपाती हाथें तलाशेंगी

सबका गला, सबकी रीढ़ और सबकी पसलियां

पहले से ही वीभत्स है

बहुसंख्यकों का खूनी इतिहास

अल्पसंख्यकता सापेक्षिक है

याद रहा नहीं किसी को

असभ्यों की भीड़ से एक को चुनकर

सभ्यों की जमात में खड़ा कर दो

और पूछो तुम्हारा स्टेटस क्या है?

अनामिका अनु

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