Patliputra_Karuna_Stupa1ईसा से 304 वर्ष पूर्व भारत की यात्रा पर आए प्रसिद्ध ग्रीक राजदूत मेगास्थनीज ने यदि यह न लिखा होता कि भारत के इस महानतम नगर पाटलिपुत्र (पटना) की सुंदरता एवं वैभव का मुकाबला सुसा और एकबताना जैसे नगर भी नहीं कर सकते, तो शायद आज भारत के गंदे नगरों में गिना जाने वाला पटना कभी इतना सुंदर था, यह मानने के लिए लोग तैयार न होते. आज का पटना देखकर मेगास्थनीज के इस बयान पर सहसा विश्‍वास नहीं होता, किंतु यह यथार्थ है. मेगास्थनीज ने ही नहीं, इसके ठीक 715 साल बाद जब सन् 411 में विश्‍व विश्रुत चीनी यात्री फाहियान इस नगर में दाखिल हुआ, तो वह भी यहां की सुंदरता, वैभव एवं उच्च सांस्कृतिक छटा देखकर चकित और अभिभूत था.
सम्राट अशोक के राजमहल की चर्चा करते हुए एक जगह फाहियान ने लिखा है कि नगर के मध्य में स्थित राजमहल और अन्य आगार, जो अब पुराने हो गए हैं, ये सब किन्हीं आत्माओं के अशरीरी यानी दिव्य आत्माओं द्वारा बनाए गए मालूम होते हैं. जिस प्रकार पत्थरों के खम्भे, दीवार, द्वार और उन पर की गई नक्काशियां, स्थापत्य एवं मूर्ति कला का काम दिखता है, वह मनुष्यों द्वारा किसी भी प्रकार संभव नहीं है. पाटलिपुत्र इतने बड़े कालखंड तक न केवल देश की राजधानी होने का गौरव रखता था, बल्कि यह उच्च सांस्कृतिक, सामाजिक, साहित्यिक, प्रशासनिक एवं राजनीतिक केंद्र के रूप में भी प्रतिष्ठित था. चाहे वह मौर्यवंश का शासनकाल हो या गुप्त वंश का या फिर महान सम्राट अशोक का, वस्तुत: यह भारत के स्वर्णिम अतीत का दैदिप्यमान व्याख्यान था. नागरिक सुविधाओं एवं सामाजिक चेतना के धरातल पर यहां की व्यवस्था और नागरिकों की पहचान एक आदर्श के रूप में थी. पाटलिपुत्र अत्यंत समृद्धशाली था. गंगा, सोन एवं पुनपुन नदियों के त्रिकोण में अवस्थित और विस्तृत यह विशाल नगर वैभव का पर्याय माना जाता था. घरों में समृद्धि और सौंदर्य बोध सहज परिलक्षित होता था, किंतु पाटलिपुत्र के घरों में ताले नहीं लगा करते थे. यह एकमात्र सूचना सोचने पर विवश करती है कि कैसा रहा होगा पाटलिपुत्र? कैसी रही होगी उसकी शासन-व्यवस्था? और कैसे रहे होंगे वहां के नागरिक?
पाटलिपुत्र का अवसान वस्तुत: भारत की अधोगति का पर्याय बन गया. 9वीं शताब्दी के बाद भारत विदेशी आक्रांताओं एवं ग़ैर मुल्की हुक्मरानों की जागीर बन गया और यही स्थिति भारत की आज़ादी के पूर्व तक बनी रही. देश की राजधानी पाटलिपुत्र से हटा दी गई. अकृतज्ञ देश ने धीरे-धीरे पाटलिपुत्र को भूलना शुरू कर दिया. दुनिया का यह सबसे खूबसूरत शहर विध्वंश का शिकार हो चुका था. अगली दो शताब्दियों तक इतिहास के पृष्ठों से हटकर एकदम से गुमनाम हो गया यह नगर. पुण्य सलिला गंगा किंकर्तव्यविमूढ़ सी पाटलिपुत्र की गौरव गाथा को गुमनामी के अंधेरे में जाती मूकदर्शक बनी देखती रह गई. इसके किनारे पर पत्तन पोर्ट भर रह गया था, जिससे जलमार्गीय व्यवसाय यहां होता रहा.
माना जाता है कि ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में इसी पत्तन के निकट एक जागृत देवी का आविर्भाव या प्राकट्य हुआ, जिसे शक्ति पीठ का स्थान हासिल हो चुका था. माना जाता है कि यह स्थल आध्यात्मिक दिव्यता से पुन: जागृत हुआ और पत्तन के निकट होने के कारण इस देवी को पत्तन देवी कहा जाने लगा.
धीरे- धीरे यह स्थान पत्तन देवी के कारण ख्याति प्राप्त करने लगा और फिर एक नए नगर का उत्थान शुरू हुआ. कालांतर में इसे पत्तन कहा जाने लगा, जो अंग्रेजों के समय में अपभ्रंश होकर पटना हो गया. पाटलिपुत्र के अवसान के बाद और बिहार राज्य के पुनर्गठन तक यह नगर इतिहास में कोई विशेष स्थान नहीं बना सका. बंगाल से अलग होने के बाद जब बिहार राज्य का अस्तित्व बना, तो पटना उसकी राजधानी बना. तबसे यह नगर फिर से देेश की मुख्य धारा में लौटा है. इसके पूर्व मध्यकाल में 1541 में जब भारत का तत्कालीन शासक शेरशाह सूरी बंगाल से जलमार्ग द्वारा लौटते हुए यहां पहुंचा था, तो यहां का वातावरण उसे भी रास आ गया. उसने यहां एक किले का निर्माण कराया. फिर बाद में इसे सूबे की प्रशासनिक राजधानी भी घोषित किया. लेकिन, शेरशाह के शीघ्र अवसान ने इसकी लौटती गरिमा को पुन: पीछे धकेल दिया. मुगल काल में अधिकांश समय तक इस सूबे की राजधानी बिहार शरीफ में रही.
समग्र इतिहास की जानकारी मिलने के बाद स्वाभाविक रूप से इस नगर के प्रबुद्ध नागरिकोंें के मन में इसका नाम परिवर्तन करके फिर से पाटलिपुत्र करने की प्रेरणा जगनी शुरू हुई. यहां के नागरिक अपने पुराने गौरवशाली वैभव एवं उच्च सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करने लगे और अपने लेखों-व्याख्यानों में अपने स्वर्णिम अतीत की गाथा उच्च स्वर में गाने भी लगे. पिछली शताब्दी में दुनिया के विभिन्न देशों एवं नगरों के नाम परिवर्तन की सूचना ने भी यहां के नागरिकों के मन में उम्मीद की नई किरण जगाई. पाटलिपुत्र की विदग्ध एवं पीड़ित आत्मा, जो विदेशी आक्रांताओं द्वारा छोड़े गए मलबे और पटना नामक छाया के नीचे दब गई थी, फिर से अपनी मुक्ति के लिए छटपटाने लगी.
नगर के प्रबुद्ध जनों ने इसका नाम पाटलिपुत्र करने के लिए पहली बार 1985-86 के दौरान एक मजबूत और ठोस पहल की थी. जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल मेजर जनरल एस के सिन्हा ने उस वक्त इस जनभावना की अगुवाई की. भारतीय सेना से अवकाश लेने के पश्‍चात उन्होंने इसे एक अभियान की शक्ल दी थी. लगभग एक लाख नागरिकों के हस्ताक्षरों से युक्त एक मांगपत्र भी सौंपा गया था, जिसमें पटना का नाम परिवर्तित कर उसे पाटलिपुत्र करने की बात कही गई थी. तत्कालीन सरकार ने भी नाम परिवर्तन की मांग को उचित माना था और उसकी औपचारिक स्वीकृति के लिए आवश्यक निर्णय लेने की अंतिम तैयारी भी कर ली गई. लेकिन, शायद तब वक्त को यह मंजूर नहीं था. जैसा कि आम तौर पर होता है, हर नेक काम के पीछे एक बुरा साया पड़ जाता है. कुछ ऐसा ही हुआ और एक नई सुबह से पहले ही सूर्यग्रहण लग गया, जो आज तक जारी है.
पुन: दूसरी बार नगर के जागरूक प्रबुद्धजनों द्वारा इन पंक्तियों के लेखक (डॉ. अनिल सुलभ) की अध्यक्षता में पाटलिपुत्र जागरण अभियान समिति नामक एक संस्था का गठन कर 2005 में यह आंदोलन आरंभ किया गया, जिसमें सभी समुदाय के प्रबुद्ध नागरिकों ने खुलकर भाग लिया. इस महत्वपूर्ण विषय पर सबकी एक राय थी. नगर के प्रत्येक चौक-चौराहों पर गोष्ठियां, प्रदर्शन, हस्ताक्षर अभियान आदि कार्यक्रम चलाए गए. त्रिपुरा के पूर्व राज्यपाल प्रो. सिद्धेश्‍वर प्रसाद, बिहार विधान परिषद के तत्कालीन सभापति प्रो. अरुण कुमार, बिहार के तत्कालीन राज्यपाल आर एस गवई, प्रसिद्ध समाजसेवी हारुन रशीद, पटना विश्‍वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. एस एन पी सिन्हा, मगध विश्‍वविद्यालय के पूर्व कुलपति मेजर बलबीर सिंह भसीन समेत नगर के सभी बुद्धिजीवी और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता उत्साह के साथ इन आयोजनों में भाग ले रहे थे. 2007 में बिहार विधान परिषद में एक संकल्प लाकर सरकार से पटना का नाम परिवर्तित कर पाटलिपुत्र करने का प्रस्ताव रखा गया. प्रो. अरुण कुमार स्वयं सदन का सभापतित्व कर रहे थे. सदन में उपस्थित राज्य सरकार के प्राय: सभी मंत्रियों ने एक साथ खड़े होकर सदन में यह आश्‍वासन दिया कि पटना का महानगर के रूप में विस्तार किया जा रहा है और शीघ्र ही इस विस्तृत नगर का नाम पाटलिपुत्र होगा. उत्तर देने वाले मंत्रियों में नंद किशोर यादव एवं अश्‍वनी चौबे भी शामिल थे, किंतु आज तक यह काम अन्य सरकारी आश्‍वासनों की तरह निरा-आश्‍वासन बनकर रह गया.
राज्य सरकार से बेहतर तो भारत का निर्वाचन आयोग सिद्ध हुआ, जिसने इस अभियान के संचालकों एवं पटना के सजग नागरिकों की भावनाओं का आदर करते हुए नए परिसीमन में पाटलिपुत्र नामक एक संसदीय क्षेत्र बनाया. भारत के सदन में अब पटना नहीं है. दूसरे क्षेत्र का नाम पटना साहिब है. इस दौरान देश के कई नगरों के नाम परिवर्तित कर दिए गए. बंबई मुंबई हो गया, मद्रास चेन्नई हो गया, कलकत्ता कोलकाता हो गया और पांडिचेरी पुडुचेरी हो गया. लेकिन, इन सबसे पहले पटना का नाम बदल कर पाटलिपुत्र करने के लिए आवाज़ उठाई गई थी, मगर वह आज तक नहीं हो पाया. जबकि दुनिया में अब तक जितने नगरों एवं देशों के नाम बदले गए हैं, उन सबमें सबसे अधिक पात्रता इस नगर की है और पहला हक़ भी इसी का बनता है. यह हक़ पाटलिपुत्र को अब तक नहीं मिला. लेकिन, अतीत की काल कोठरी में कैद पाटलिपुत्र की आत्मा अब सभी दरो-दीवार तोड़कर बाहर निकल आने को व्याकुल है. देखना है कि पाटलिपुत्र के रूप में भारत की यह आत्मा कब कैद से मुक्त होती है?

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