नीतीश कुमार की सरकार बने लगभग तीन साल हो गए हैं, लेकिन न तो आयोगों का गठन हो रहा है और न ही बीस सूत्री कमेटी का गठन हो रहा है. जद (यू) और भाजपा से जुड़े बहुत सारे सक्रिय कार्यकर्ताओं को लगता है कि अगर नीतीश जी इन आयोगों का गठन नहीं करते हैं और बीस सूत्री कमेटी नहीं बनाते हैं, तो फिर राजनीतिकि तौर पर इसका नुकसान पार्टी को उठाना पड़ सकता है.

nitishआजकल आप बिहार में किसी भी मंत्री या विधायक के निवास पर चले जाइए, एक अजीब सा सन्नाटा महसूस करेंगे. आजकल वहां मंत्री जी के स्टाफ व सुरक्षाकर्मियों के अलावा कुछ चुनिंदा लोगों के चेहरे ही आपको नजर आएंगे. सत्ता की धमक वाली कोई रौनक वहां कहीं भी दिखाई नहीं पड़ेगी. पुराने लोग बताते हैं कि उनके जमाने में सत्ता के गलियारों में सुबह और शाम तो ऐसे लगता था, जैसे वहां मेला लगा हुआ हो. मंत्री की छोड़िए, विधायकों के निवास पर भी क्षेत्र की जनता व स्थानीय नेताओं का जमावड़ा लगा रहता था.

मंत्रियों के यहां की तो बात ही कुछ और होती थी. उनके यहां पूरा ‘दरबार’ लगता था और मंत्री महोदय एक-एक कर अपने क्षेत्र के लोगों की समस्याएं सुनते थे और उसके समाधान का प्रयास करते थे. कार्यकर्ता भी मंत्री जी के विभाग से लौटने का इंतजार करते रहते थे. चाय व नाश्ते का दौर चलता था और जिन्हें रुकना पड़ गया, उनके लिए खाने का भी इंतजाम होता था. क्षेत्र की जनता यह कहकर लौटती थी कि नेता जी ने हमारी बात ध्यान से सुनी और उम्मीद है कि काम हो जाएगा. लेकिन आज तो इन गलियारों में खालिस सन्नाटा ही सन्नाटा है. आखिर ऐसा क्यों है, इसका जबाव ‘उम्मीद’ में छिपा है.

कड़वा सच यह है कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने मंत्रियों और विधायकों से उम्मीद ही छोड़ दी है. उन्हें लगने लगा है कि पटना में दरबारी करने से कुछ नहीं होगा, बेहतर है कि अपने घर में ही दाल रोटी का जुगाड़ किया जाए. बहुत सारे राजनीतिक कार्यकर्ताओं से बातचीतमें यह बात सामने आई कि इन जैसे लोगों का राजनीतिक आकाओं पर से भरोसा कम हो रहा है. क्षेत्र में मंत्री जी और विधायक जी का झोला ढोने में अपनी जिंदगी के 20-30 साल निकाल देने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं को लगने लगा है कि इन्हें सत्ता की तिजोरी से सिवाय आश्वासनों के, कुछ मिलने वाला नहीं है. इसलिए अब बेवजह इन मंत्रियों और विधायकों की ‘दरबारी’ करने का क्या फायदा. अब तो यह सभी मानने लगे हैं कि आजकल के मंत्रियों और विधायकों में पुराने मंत्रियों और विधायकों जैसा दमखम नहीं है.

अधिकारी अब इनकी बातों को इतनी गंभीरता से नहीं लेते, जितना पहले लेते थे. थाने में पैरवी करनी हो या फिर ठेका-पट्‌टा लेना हो, अब मंत्रियों और विधायकों की बहुत ज्यादा नहीं चलती. इसलिए क्षेत्र के लोगों ने पटना में मंत्रियों और विधायकों के यहां जाकर फरियाद करना कम कर दिया है, यहा कारण है कि इनके निवाासों पर तो सन्नाटा पसरा है. मंत्रियों और विधायकों के यहां ज्यादा तादाद राजनीतिक कार्यकर्ताओें की होती थी, लेकिन इनकी निराशा और हताशा तो इन दिनों और भी चरम पर है. चुनावों में बढ़-चढ़ कर सक्रिय रहने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं को उम्मीद थी कि सरकार बनने पर इनका वनवास खत्म होगा और किसी न किसी आयोग या फिर बीस सूत्री की कमेटी में इन्हें जगह मिल जाएगी. इन कार्यकर्ताओं का कहना है कि मंत्री या विधायक तो चुनिंदा लोग ही बन सकते हैं, हमलोगों की उम्मीद तो इन्हीं आयोगों और बीस सूत्री कमेटी के गठन पर लगी रहती है.

नीतीश कुमार की सरकार बने लगभग तीन साल हो गए हैं, लेकिन न तो आयोगों का गठन हो रहा है और न ही बीस सूत्री कमेटी का गठन हो रहा है. जद (यू) और भाजपा से जुड़े बहुत सारे सक्रिय कार्यकर्ताओं को लगता है कि अगर नीतीश जी इन आयोगों का गठन नहीं करते हैं और बीस सूत्री कमेटी नहीं बनाते हैं, तो फिर राजनीतिकि तौर पर इसका नुकसान पार्टी को उठाना पड़ सकता है. गौरतलब है कि लगभग दो दर्जन आयोग और प्रदेश से लेकर जिला व अनुमंडल स्तर पर अगर बीस सूत्री कमेटियों का गठन कर दिया जाए, तो लगभग दस हजार राजनीतिक कार्यकर्ताओं के पद का वनवास खत्म हो सकता है.

जिला, अनुमंडल और ब्लॉक स्तर पर इसमें सदस्य बने राजनीतिक कार्यकर्ता तब एक नए जोश के साथ पार्टी के लिए रात दिन एक करने की स्थिति में आ जाएंगे. नीतीश कुमार ने जब लालू प्रसाद के साथ मिलकर सरकार बनाई थी, तो यह तय हुआ था कि आयोगों का गठन होगा और बीस सूत्री की कमेटी बनाई जाएगी. फार्मूला 40:40:20 का तय हुआ था. यानि कि 40 फीसदी लोग जद (यू) के, 40 फीसदी लोग राजद के और 20 फीसदी कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को समायोजित करने की बात तय हुई थी. बात आगे भी बढ़ी थी और लगने लगा था कि इन सीटों को भर दिया जाएगा, लेकिन तभी राजनीति ने ऐसी करवट बदली कि नीतीश ने राजद का साथ छोड़कर भाजपा के साथ सरकार बना ली.

यह सरकार बने भी साल  भर हो गया, पर इन आयोगों और कमेटियों के गठन को लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं है. जानकार बताते हैं कि जद (यू) और भाजपा के स्तर पर आज की तारीख तक इस मामले पर कोई बातचीत नहीं हुई है. इसकी सबसे बड़ी वजह दोनों ही दलों में इन पदों पर विराजने की आस लगाए नेताओं की बड़ी संख्या है. जद (यू) और भाजपा का शीर्ष नेतत्व अभी नहीं चाहता है कि कैडरों के बीच कोई फूट पड़े, खासकर लोकसभा चुनाव तक. पार्टी के सूत्र बताते हैं कि एक अनार सौ बीमार जैसी स्थिति है और ऐसे हालात में कोई भी दल जोखिम उठाना नहीं चाहता. आश्वासनों के भरोसे जब तक गाड़ी चल रही है, तब तक चलने देने में ही भलाई समझी जा रही है. लेकिन विपक्ष कहता है कि सरकार में इच्छा शक्ति का अभाव है, इसलिए वह इन नियुक्तियों की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है. राजद के वरिष्ठ नेता रामबदन राय कहते हैं कि ‘जमीनी और ईमानदार कार्यकर्ताओं को सम्मान देने की मंशा इस सरकार में है ही नहीं. केवल चाटूकार नेताओें और अधिकारियों को मलाई बांटने में यह सरकार मशगूल है.

इसलिए जमीन पर काम कर रहे राजनीतिक कार्यकर्ताओं को इस सरकार से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए.’ श्री राय कहते हैं कि लगभग दो दर्जन आयोगों और 20 सूत्री कमेटियों के गठन से नीतीश कुमार को कौन रोक रहा है. जाहिर है, जमीन पर बैठे राजनीतिक कार्यकर्ताओं की इन्हें कोई फिक्र नहीं. रामबदन राय कहते हैं कि जो निगम और आयोग अभी अस्तित्व में हैं, उनमें सारी चीजें अधिकारियों की मुट्‌ठी में है, राजनीतिक कार्यकर्ता तो बस मोहरे हैं. भाजपा और जद (यू) से जुड़े सूत्रों का कहना है कि अभी राजनीतिक कार्यकर्ताओं को लोकसभा चुनाव तक इंतजार करना पड़ेगा और इसके बाद भी पिटारा खुल ही जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है. ऐसे लोगों का मानना है कि बिरनी के खोते में कोई हाथ नहीं डालना चाहता, इसलिए बेहतर है कि बगल से निकल लिया जाए.

कैबिनेट विस्तार में भी होगी देरी

समाज कल्याण मंत्री मंजू वर्मा के इस्तीफे के बाद एक बार फिर से नीतीश कैबिनेट के विस्तार की अटकलें तेज हो गई हैं. संवैधानिक प्रावधानों के तहत अभी नीतीश कुमार आठ और लोगों को मंत्री बना सकते हैं. बिहार विधानसभा की सदस्य संख्या को देखते हुए राज्य मंत्रिमंडल में 36 मंत्री ही रह सकते हैं. जद (यू) कोटे से 14, भाजपा कोटे से 12 और लोजपा से एक को मंत्री बनाया गया. इस तरह पहले से ही कैबिनेट में सात जगहें खाली रह गई थीं. मंजू वर्मा के इस्तीफे के बाद अब आठ सीटें खाली हो गई हैं.

पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक चौधरी के नेतृत्व में कांगे्रस के चार विधान परिषद सदस्यों के जद (यू) में शामिल होने के बाद से ही मंत्रिमंडल विस्तार की चर्चा चल रही है. मंजू वर्मा के इस्तीफा देने के बाद यह चर्चा एक बार फिर और तेज हो गई है. लेकिन हमारे सूत्र बताते हैं कि नीतीश कुमार इसे लेकर बहुत जल्दबाजी में नहीं हैं. गौरतलब है कि समाज कल्याण मंत्री मंजू वर्मा राज्य कैबिनेट में एकमात्र महिला सदस्य थीं. इसलिए यह उम्मीद की जा सकती है कि मंत्रिमंडल का एक छोटा विस्तार हो सकता है, लेकिन वह भी शीतकालील सत्र के पहले.

इस विस्तार में एक या दो लोगों को जगह मिल सकती है. जानकार कहते हैं कि यह संभावना लगभग न के बराबर है कि नीतीश कुमार मंत्रियों के सभी आठ खाली पदों को एक साथ भर देंगे. अभी तक यह तय था कि मंत्रिमंडल का कोई भी विस्तार लोकसभा चुनावों के बाद ही होगा, लेकिन मंजू वर्मा वाले प्रकरण को लेकर एक दुविधा महिला कोटे की मंत्री को लेकर आ रही है. इसलिए यह उम्मीद कुछ हद तक की जा सकती है कि दशहरे के बाद नीतीश कुमार एक या दो लोगों को मंत्री बना सकते हैं. हालांकि अभी से ही इसके लिए दावेदारों के नाम तैरने लगे हैं. महिला कोटे से लेसी सिंह का दावा सबसे ज्यादा मजबूत है. वे नीतीश सरकार में पहले भी मंत्री रह चुकी हैं. सीमांचल की राजनीति में जद (यू) की पैठ बढ़ाने के लिए नीतीश कुमार लेसी सिंह को मौका दे सकते हैं. कुशवाहा कोटे से मंत्री बनने का सबसे मजबूत दावा नीतीश कुमार के विश्वासपात्र रामबालक सिंह का है.

समस्तीपुर जिले के विभूतिपुर के विधायक रामबालक सिंह की छवि और नीतीश कुमार के प्रति इनका समर्पण मंत्री पद की दौड़ में इनको आगे कर रहा है. मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर नीतीश कुमार का रिकार्ड पहले भी लेटलतीफी का रहा है. लोकसभा चुनाव के बाद मंत्रिमंडल विस्तार के पीछे इनकी सोच 2020 के विधानसभा चुनाव की तैयारियों को लेकर है. जद (यू) खेमा यह मानकर चल रहा है कि लोकसभा चुनाव के ठीक पहले या बाद सूबे की राजनीतिक तस्वीर बहुत कुछ बदलने वाली है, जिसके बारे में अभी केवल कयास ही लगाए जा रहे हैं. इसलिए कौन मंत्री बनेगा और कब बनेगा, इसे लेकर पत्ते खोलने का यह सही वक्त नहीं है. बेहतर होगा कि अभी हर किसी के उम्मीद को जिंदा रखा जाए, ताकि पार्टी पूरी तरह एकजुट रह सके और आगामी राजनीतिक पटकथा बेेहतर तरीके से लिखी जा सके.

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