ताश के पत्तों की तरह बनते-बिगड़ते समीकरणों के बीच पहले दौर के मतदान ने खींच दी है आख़िरी नतीजे की रूपरेखा.
पहला आम चुनाव देश में अब तक का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण आयोजन था. वह 1952 में हुआ था. तब से आम चुनाव के 14 दौर पूरे हो चुके हैं, लेकिन लोकतंत्र का सही लाभ समाज के अंतिम आदमी तक आज भी नहीं पहुंचा है. उपलब्धि के नाम पर 1977 के बाद से मतपेटियों के जरिए सात सरकारें बदलीं जरूर, लेकिन बहुसंख्य होते हुए भी ग्रामीण मतदाता हर चुनाव के बाद हाशिए पर ही रहा. नतीज़े के रूप में पंद्रहवीं लोकसभा के लिए चल रहे मतदान के पहले चरण में बड़े पैमाने पर हुई नक्सली हिंसा सामने है. छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और बिहार या यूं कहें कि देश भर में आदिवासियों-दलितों का पेट भर पाने में चुन कर बनने वाली सरकारें अब तक नाकाम ही रही हैं. चुनाव आयोग बुरा न माने, लेकिन सच्चाई यही है कि भूखे पेट वाला नागरिक पप्पू ही है. वह वाकई वोट नहीं डालता. और इंटरनेशनल फूड पॉलिसी इंस्टीट्यूट के आंकड़े बताते हैं कि 2008 में 88 देशों के वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 66वें स्थान पर था. इतना ही नहीं, देश के 17 बड़े राज्यों में से चार में भूख का स्तर गंभीर (सीरियस) किस्म का था, जबकि 12 में चेतावनी वाला (अलार्मिंग) और एक राज्य में बेहद गंभीर स्थिति थी. संयोग देखिए कि पहले दौर में 16 अप्रैल को पंद्रहवीं लोकसभा की जिन 124 सीटों के लिए वोट पड़े, वे भी 17 राज्यों में ही थीं.
पहले चरण में 15 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों में लगभग 60 प्रतिशत वोट पड़े. जिन 124 सीटों पर वोट पड़े हैं, उनमें से अधिकतर पर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के अलावा तीसरे और चौथे मोर्चे का कब्ज़ा था. पिछले चुनाव में इन 124 में से 30 सीटें जहां कांग्रेस के पास थीं, वहीं तीसरे मोर्चे के पास 35, चौथे मोर्चे के पास 15 तो भाजपा-एनडीए के पास 36 सीटें थीं. आठ सीटें अन्य के पास थीं. चुनाव आयोग के आंकड़े कहते हैं कि इस बार आंध्र प्रदेश में 65 प्रतिशत वोट पड़े, जबकि बिहार में 46, अंडमान निकोबार व अरुणाचल प्रदेश में 62-62, महाराष्ट्र में 54, उड़ीसा में 53, उत्तर प्रदेश में 48, छत्तीसगढ़ में 51, झारखंड में 50, नगालैंड में 84 और जम्मू-कश्मीर में 48 प्रतिशत वोट पड़े. उड़ीसा और आंध्र प्रदेश में लोकसभा के साथ-साथ विधानसभाओं के लिए भी मतदान हुए. उड़ीसा में लोकसभा की 21 व विधानसभा की कुल 147 में से 70 सीटों और आंध्रप्रदेश में लोकसभा की 22 व विधानसभा की 154 सीटों के लिए वोट पड़े.
वैसे पिछले चुनाव की तुलना में बिहार और उड़ीसा में 12 से 13 प्रतिशत वोट कम पड़े. इसके लिए मौसम और परिसीमन से अधिक मतदाताओं के मिजाज़ का विश्लेषण करना चाहिए. 2004 की तरह इस बार भी किसी राष्ट्रीय दल के लिए न तो कोई मुद्दा है और न ही कोई लहर देखने को मिल रही. फिर भी इस बार का आम चुनाव पिछली बार से कई मायनों में अलग है. इस बार मुद्दा न तो सरकार की सफलता या विफलता है, न ही कारगिल या  बोफोर्स. न आतंकवाद या नक्सलवाद है न महंगाई या रामसेतु. इसीलिए किसी एक राष्ट्रीय मुद्दे या नेता के नाम पर वोट के बजाय राज्य स्तरीय विषयों, क्षेत्रीय समस्याओं और स्थानीय नेताओं के नाम व उनकी अच्छी-बुरी छवि को देखकर ही वोट पड़ रहे हैं.
सबसे हैरतनाक संकेत पूर्वी उत्तरप्रदेश के  हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में जो ब्राह्मण मतदाता मायावती के  साथ चले गए थे, वे पलट गए हैं. मुस्लिम वोट बंटने और ब्राह्मणों के  फिर से भगवा ब्रिगेड से जुड़ जाने से भाजपा को नया जीवन मिल सकता है. ग़ौरतलब है कि पिछले लोकसभा चुनाव में पूर्वी
उत्तरप्रदेश में भाजपा को सिर्फ दो सीटें मिली थीं. वे थीं-गोरखपुर और महाराजगंज. इस बार पहले दौर में राज्य में जिन 16 सीटों के चुनाव हुए हैं,उनमें गोरखपुर व महाराजगंज के  अलावा आजमगढ़, लालगंज (सु.) देवरिया, वाराणसी, बांसगांव (सु.). चंदौली, मछलीशहर और बलिया भी हैं. गोरखपुर में भाजपा के योगी आदित्यनाथ तिकोने मुकाबले में फंस गए हैं. उन्हें सपा प्रत्याशी और भोजपुरी गायक मनोज तिवारी ने नहीं, बल्कि बाहुबली नेता हरिशंकर तिवारी के पुत्र और बसपा प्रत्याशी विनय शंकर तिवारी ने असली टक्कर दी है. दोनों के पक्ष में ब्राह्मण और ठाकुर वोटों का ध्रुवीकरण हो गया.
चुनावी विश्लेषकों ने मुसलमानों की पार्टी-उलेमा काउंसिल- को अब तक बहुत हल्के  में ले रखा है. हक़ीकत यह है कि वह इतिहास रचने जा रही है. उसने भारत के  लोकतांत्रिक इतिहास में नया क़ारनामा कर दिखाया है. उसने मुस्लिमों-दलितों का नया गठबंधन बना लिया है. लालगंज (सु.) इसका गवाह बनेगा. यहां उलेमा कौंसिल[लालू को यहां भाजपा के  राजीव प्रताप रूडी के  अलावा बसपा के  स्थानीय व मजबूत प्रत्याशी सलीम परवेज से कड़ा संघर्ष करना पड़ा है. चुनावी धांधली की शिकायत करते लालू खुद भी मानते हैं कि इस बार टक्कर जोरदार रही है. उनके लिए राहत की बात यही है कि वह जिस दूसरी सीट-पाटलिपुत्र-से चुनाव लड़ रहे हैं, वहां उन्हें लगभग वाकओवर मिला हुआ है.]की अपील पर लगभग 90 फीसदी मुस्लिम वोट पड़े हैं. उलेमा काउंसिल इस तरह माई (मुस्लिम-यादव) की राजनीति कर अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकती रही पार्टियों को सबक सिखाने जा रही है. वैसे आश्चर्यजनक रूप से पूर्वी उत्तरप्रदेश में कांग्रेस का पुनरुद्धार होता भी साफ नज़र आया. अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय देर-सबेर उसे निश्चय ही भरपूर लाभ देगा. फिलहाल, मुस्लिम वोट बांटने के  कारण वह धर्मनिरपेक्ष ताकतों के  गणित को गड़बड़ कर रही है.
उत्तरप्रदेश में परिसीमन भी चुनाव परिणामों को प्रभावित करेगा. कैसे, इसे प्रतापगढ़ की सीट से समझा जा सकता है. प्रतापगढ़ में आने वाले विधानसभा क्षेत्रों में दो हैं-कुंडा और बिहार. कुंडा से राजा भैया जीतते हैं तो बिहार से उनका एक नज़दीकी. राजा भैया इस क्षेत्र में सपा की ताक़त हैं. लेकिन परिसीमन के  बाद ये दोनों विधानसभा क्षेत्र प्रतापगढ़ से बाहर हो गए हैं. इससे जातिगत समेत सारे समीकरण ध्वस्त हो गए हैं. ऐसे में अपना दल के  समर्थन से बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ रहे अतीक़ अहमद अचानक अच्छी स्थिति में आ गए हैं. परिसीमन का ऐसा खेल प्रदेश में कई संसदीय क्षेत्रों में हुआ है.
रही बात बिहार की, तो धर्मनिरपेक्ष खेमे में पड़ी फूट ने जनता दल (यू)-भाजपा का पलड़ा भारी कर दिया है. ऊपर से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का अतिपिछड़ा और अतिदलित कार्ड भी कम गुल नहीं खिला रहा है. सवर्ण वोट बिहार में सत्तारूढ़…..
पूरी ख़बर के लिए पढ़िए चौथी दुनिया…..

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