INDIA ELECTIONSसर्जिकल स्ट्राइक और नोटंबदी की घोषणा के बाद हाल में 7 राज्यों की 14 सीटों पर उपचुनाव हुए. इस उपचुनाव में भाजपा ने मध्यप्रदेश, असम और अरुणाचल प्रदेश में जीत का परचम लहराया, वहीं तमिलनाडु की तीनों विधानसभा सीटें एआईएडीएमके ने अपनी झोली में डाल लीं.

त्रिपुरा में दोनों सीटों पर सीपीएम ने लाल झंडा लहराया, तो पश्‍चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस तीनों विधानसभा सीटें अपने पास रखने में कामयाब रही. इस उपचुनाव में क्षेत्रीय क्षत्रपों ने हर जगह अपना किला विरोधियों से बचाए रखा. हालांकि अधिकतर सीटों पर सहानुभूति वोट ने उम्मीदवारों की जीत का फैसला किया.

नोटबंदी के बाद पहला चुनाव होने के कारण सभी राजनीतिक दल इसे मुद्दा बनाने में लगे थे, वहीं भाजपा के लिए यह लिटमस टेस्ट था कि वह जीत हासिल कर नोटबंदी पर विपक्षियों के कोलाहल पर विराम लगा सके.

उपचुनाव सत्ताधारी दल के लिए अपनी नीतियों पर जनता की स्वीकार्यता को मापने का एक पैमाना होते हैं. अगर ऐसा है तो सत्ताधारी दल यह कह सकते हैं कि सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी पर जनता ने मुहर लगा दी है. लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? अगर ऐसा होता तो तमिलनाडु, पश्‍चिम बंगाल, त्रिपुरा और पुद्दुचेरी इससे अछूते क्यों रहे?

भाजपा स्वशासित प्रदेशों मध्यप्रदेश, असम और अरुणाचल प्रदेश में तो जरूर आगे रही, लेकिन तमिलनाडु में जयललिता, पश्‍चिम बंगाल में ममता बनर्जी और त्रिपुरा में सीपीएम का जादू बरकरार रहा.

तमिलनाडु में राजनीतिक विश्‍लेषक कह सकते हैं कि जयललिता के अस्वस्थ होने के कारण एआईएडीएमके को सहानुभूति वोट मिला और वह तीनों सीट निकालने में सफल रही.

पश्‍चिम बंगाल में भी ममता दो लोकसभा सीट और एक विधानसभा सीट पर कब्जा जमाने में सफल रही. हां, भाजपा इस बात से जरूर खुश हो सकती है कि वह पश्‍चिम बंगाल में माकपा को पीछे धकेलने में कामयाब रही है.

त्रिपुरा में भी सीपीएम ने दोनों सीटों पर जीत हासिल की. लेकिन क्या इस उपचुनाव के नतीजों से जनता के सियासी मिजाज को समझने का दावा किया जा सकता है?

राजनीतिक विश्‍लेषकों का मानना है कि उपचुनाव के नतीजे साफ-साफ दिखाते हैं कि भाजपा उत्तर-पूर्व में भी अपनी ताकत बढ़ाने में सफल रही है. वहीं, एक बात तय है कि कांग्रेस को अपने बुरे दौर से निकलने में अभी वक्त लगेगा.

बाकी सीटों पर कहा जा सकता है कि सत्ताधारी पार्टियों की जीत अपेक्षित थी. एक तरह से उपचुनाव के नतीजे उम्मीदों के अनुरूप ही रहे हैं. प्रदेश में सभी सत्ताधारी दल अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे हैं.

सबसे पहले बात करते हैं भाजपा शासित मध्यप्रदेश की. शहडोल लोकसभा सीट और नेपानगर विधानसभा सीटों पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का जादू बरकरार रहा.

शहडोल सीट भाजपा सांसद दलपत सिंह परस्ते की मौत से खाली हुई थी. वहीं नेपानगर सीट भाजपा विधायक श्यामलाल दादू की सड़क हादसे में मौत के बाद से खाली थी.

यहां से उनकी बेटी मंजू दादू ने जीत हासिल की है. चुनाव के दौरान भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सांसद नंदकुमार सिंह चौहान ने अपील की थी कि यहां से मंजू बेटी को जिताना राजेंद्र दादू को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी. यानी दोनों सीटों पर भाजपा उम्मीदवारों को सहानुभूति वोट मिले.

असम में लखीमपुर लोकसभा सीट और बैठलांसो विधानसभा सीट पर भाजपा ने जीत हासिल की. लखीमपुर सीट सर्वानंद सोनोवाल के असम का मुख्यमंत्री बनने के बाद खाली हुई थी. वहीं बैठलांसो सीट डॉ. मानसिंह रोंगपी के कांगे्रस से भाजपा में शामिल होने के बाद खाली हुई थी, जिसपर उन्होंने दोबारा जीत हासिल की.

अरुणाचल प्रदेश में ह्यूलांग विधानसभा सीट पर भाजपा की दसांगलू पुल ने जीत हासिल की. दसांगलू पूर्व सीएम कलिखो पुल की पत्नी हैं. यह सीट कलिखो की मौत के बाद खाली हुई थी. यहां भी भाजपा की जीत, नोटबंदी पर जीत न होकर सहानुभूति वोट पर आधारित थी.

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पश्‍चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने तीनों सीटों पर जीत हासिल की. तमलुक लोकसभा सीट पर दिव्येंदु अधिकारी जीते, वहीं कूच बिहार में पार्था प्रतिम और मोंटेश्‍वर विधानसभा सीट पर सैकंत पांजा ने सीपीआई-एम उम्मीदवार ओसमान गनी को हराकर जीत हासिल की.

यानी ममता बनर्जी अपना गढ़ बचाकर रखने में कामयाब रहीं, लेकिन प्रदेश में भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ना उनके लिए परेशानी का सबब बन सकता है, इसलिए वे इन दिनों भाजपा पर ज्यादा हमलावर हो रही हैं.

तमिलनाडु की तीनों विधानसभा सीटों पर उम्मीद के मुताबिक जयललिता की पार्टी एआईएडीएमके ने जीत हासिल की. यहां तंजावुर, अरावकुरिची और तिरुपर्रानकुंदरम विधानसभा सीट पर उपचुनाव हुए थे.

त्रिपुरा की दोनों विधानसभा सीटों पर सीपीआई-एम ने कब्जा किया. बरजाला सीट सीपीआई-एम ने कांग्रेस से छीन ली. यह सीट कांग्रेस के विधायक जितेंद्र सरकार के इस्तीफा देने के बाद खाली हुई थी. खोवाई सीट पर बिस्वजीत दत्ता ने टीएमसी के मनोज दास को हराया.

यह सीट सीपीआई-एम नेता समीर देब की मौत के बाद से खाली थी. यहां टीएमसी ने सीपीआई-एम के खिलाफ जबरदस्त प्रचार अभियान चलाया था. फिर भी टीएमसी जनता का भरोसा नहीं जीत सकी. त्रिपुरा में भाजपा भी पैर जमाने में लगी है, हालांकि इन नतीजों से उसे झटका लगा है.

पुद्दुचेरी के नल्लीथोप्पे विधानसभा सीट पर कांग्रेस ने उपचुनाव में जीत का स्वाद चखा. इस सीट से सीएम वी नारायणसामी जीते हैं. नारायणसामी पिछला विधानसभा चुनाव नहीं लड़े थे.

उनके लिए यह सीट कांग्रेस के जॉन कुमार ने छोड़ी थी. शायद ही कोई जनता अपने निवर्तमान मुख्यमंत्री को हराने की सोचे. यानी कांग्रेस केवल इतने से संतोष कर सकती है कि उसके मुख्यमंत्री ने अपनी सीट जीतकर पार्टी के खाते में एकमात्र जीत दर्ज की है.

अपने-अपने तर्क

प्रधानमंत्री मोदी इस चुनाव परिणाम को नोटबंदी पर जनता का फैसला बताने से बचते नजर आए. उन्होंने कहा कि यह परिणाम जनता का भाजपा के विकास और सुशासन की नीति पर विश्‍वास का नतीजा है.

वहीं, भाजपा नेता वेंकैया नायडू ने कहा कि बंगाल में वोटों का बढ़ना बताता है कि नोटबंदी पर भाजपा को पूरे देश में सपोर्ट मिल रहा है.

त्रिपुरा में भी भाजपा पहली बार दूसरे नंबर पर पहुंची है. यह नॉर्थ-ईस्ट में पार्टी के बढ़ते जनाधार का संकेत है. चुनाव परिणाम के बाद भाजपा शासित राज्यों मध्य प्रदेश और असम के मुख्यमंत्रियों ने भी नोटबंदी पर जनता के मुहर की घोषणा कर दी. वहीं, ममता बनर्जी ने इसे मोदी सरकार के वित्तीय आपातकाल के खिलाफ जनता का विद्रोह बताया.

कांग्रेस के लिए अभी राह आसान नहीं

उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की लगातार चुनावी यात्रा व किसान चौपाल से कांग्रेस पार्टी को अन्य प्रदेशों में हुए उपचुनाव में जीत की उम्मीद थी. पार्टी के रणनीतिकार यह मान रहे थे कि भाजपा के कांग्रेस हटाओ कैंपेन को इस उपचुनाव के जरिए एक करारा जवाब दिया जा सकता है, लेकिन कांगे्रस ने मात्र पुद्दुचेरी में जीत का स्वाद चखा.

मध्यप्रदेश की बात करें तो यहां भाजपा अपना सीट बचाने में सफल रही, लेकिन उसे पिछली बार के मुकाबले कम वोट मिले. प्रदेश में लचर हालत में पहुंच चुकी कांग्रेस इसके बाद भी मध्यप्रदेश में जीत हासिल नहीं कर सकी.

पार्टी को त्रिपुरा में भी महज पांच फीसदी वोट से ही संतोष करना पड़ा है. लगातार चुनावी झंझावातों से गुजरने के बाद भी कांग्रेसियों को इस बात का अंदाजा नहीं है कि वे किसकी कमान में आगे बढ़ेंगे.

कांग्रेस के लिए जीत का रास्ता लगातार कठिनतम होता जा रहा है, लेकिन आलाकमान को अभी तक खेमेबंदी से बाहर निकलने का रास्ता नहीं सूझ रहा है.

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