कुलदीप नारायण ने कोई पौने दो साल पहले नगर निगम के शीर्ष नौकरशाह का यह पद संभाला था और उन दिनों वे सारे लोग जश्‍न मना रहे थे जो पिछले कई महीनों से उनके पीछे हाथ धोकर पड़े हैं. वस्तुतः कुलदीप ने जैसे ही राजधानी के बिल्डिंग माफिया की ओर नजर डाली कि उन पर हमले आरंभ हो गए और तब से हमले बढ़ते गए. हालत, यह हो गई कि पटना हाइकोर्ट ने हस्तक्षेप किया और कुलदीप के तबादले पर रोक लगा दी. आदेश दिया कि अदालत की अनुमति के बगैर उनको नगर आयुक्त के पद से हटाया नहीं जा सकता है. वस्तुतः गत वर्षों में पटना और इसके आसपास के छोटे-छोटे नगरों- गंगा के पार हाजीपुर, सोनपुर, दिघवारा आदि भी- में राज्य के बड़े-बड़े बिल्डरों ने अपना काम आरंभ किया और बहुमंजिली रिहायशी और व्यावसायिक इमारतों का संजाल तैयार हो गया.

majhiयह साफ होने में अभी वक्त लगेगा कि बिहार सरकार की नाक कटेगी या पटना नगर निगम के आयुक्त कुलदीप नारायण का सीना थोड़ा और चौड़ा होगा. इसके साथ यह भी साफ होगा कि अदालत के आदेश से बचने के लिए बाईपास की खोज की सरकार की इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने को न्यायपालिका क्या करती है? राज्य सरकार ने श्री नारायण को, सरकारी आदेशों-निर्देशों के पालन व नागरिक सुविधाओं के विकास-विस्तार में उनकी कथित लापरवाही के आरोप में, निलंबित करने का आदेश जारी किया है. चूंकि श्री नारायण को उनके पद से हटाने पर पटना हाइकोर्ट ने रोक लगा रखी थी इसीलिए न्यायालय ने इस पर अंतरिम रोक लगा दी है. इस मामले की सुनवाई पूरी हो चुकी है और अदालत ने अपना फैसला रिजर्व रख लिया है. असलियत तो यही है कि श्री नारायण अदालत के आदेश के रक्षा-कवच में इस पद पर हैं, जबकि राज्य सरकार किसी भी सूरत में इस पद पर उन्हें देखना नहीं चाहती. अदालत ने कोई एक साल पहले उनके तबादले पर रोक लगा दी थी और उन्हें निगरानी के मामलों, जो मुख्यतः अवैध भवन निर्माण से जुड़े हैं, को निपटाने की जिम्मेदारी सौंपी थी. इसीलिए अदालत, नौकरशाही और राजनीतिक दलों के साथ-साथ आम नागरिकों की भी समझ है कि श्री नारायण के तबादले में विफल सत्ता ने उनसे मुक्ति के लिए बाईपास खोज लिया. सामान्य सी बातों को आधार बनाकर बिल्डिंग माफिया के दबाव में उनको निलंबित कर दिया गया. अब हाइकोर्ट ने साफ कर दिया कि अंतिम फैसला के आने तक श्री नारायण अपने पद पर बने रहेंगे और वे केवल निगरानी के मामलों को देखेंगे. सो, अब राज्य सरकार और कुलदीप नारायण सहित सभी को इस फैसले की प्रतीक्षा है. सरकार की नाक बचेगी कि नारायण का सीना चौड़ा होगा!

कुलदीप नारायण ने कोई पौने दो साल पहले नगर निगम के शीर्ष नौकरशाह का यह पद संभाला था और उन दिनों वे सारे लोग जश्‍न मना रहे थे जो पिछले कई महीनों से उनके पीछे हाथ धोकर पड़े हैं. वस्तुतः कुलदीप नारायण ने जैसे ही राजधानी (बिहार ही कहिए) के बिल्डिंग माफिया की ओर नजर डाली कि उन पर हमले आरंभ हो गए. और तब से हमले बढ़ते गए, उनके स्वरूप बदलते गए. हालत, यह हो गई कि पटना हाइकोर्ट ने हस्तक्षेप किया और उनके के तबादले पर रोक लगा दी. आदेश दिया कि अदालत की अनुमति के बगैर उनको नगर आयुक्त के पद से हटाया नहीं जा सकता है. वस्तुतः गत वर्षों में पटना और इसके आसपास के छोटे-छोटे नगरों, गंगा के पार हाजीपुर, सोनपुर, दिघवारा आदि भी, में राज्य के बड़े-बड़े बिल्डरों ने अपना काम आरंभ किया और बहुमंजिली रिहायशी और व्यावसायिक इमारतों का संजाल तैयार हो गया. पटना नगर निगम क्षेत्र में तो कोई भी बड़ा भूखंड अब शायद ही हो. भवन निर्माण के सिलसिले में दबंग बिल्डरों ने अपने राजनीतिक और प्रशासनिक रसूख (उसमें जाति और धन की भूमिका बड़ी रही है) का जम कर इस्तेमाल किया व नियम-कायदों की जमकर धज्जिया उड़ाई. इतना ही नहीं गंगा की परित्यक्त रेतीली जमीन को भी इन दबंग बिल्डरों ने नहीं बख़्शा. दक्षिण से उत्तर की ओर भागती गंगा की रेतीली जमीन पर शहर के दबंग कब्जा कर अपार्टमेंट खड़े कर रहे हैं. इन दबंग बिल्डरों की कृपा से गंगा की पेट में छह-सात साल के दौरान बहुमंजिली इमारतों का सिलसिला तैयार हो गया है. बाद में एक याचिका के आधार पर इन मकानों व इमारतों के अवैध अतिक्रमण के होने का मामला सामने आया और इससे जुड़े निगरानी मामलों के शीघ्र निपटारे के लिए अदालत ने नगर आयुक्त को आदेश दिया. इसी प्रकरण में उनके तबादले पर रोक लगी थी. जांच के सिलसिले में अवैध निर्माण या अतिक्रमण के अब तक कोई साढ़े चार सौ मामले दायर किए गए गए. इनमें से कोई डेड़ सौ मामलों की सुनवाई हो चुकी है और कोई सौ मामलों में नगर आयुक्त का फैसला आ गया है. संयोग से इनमें से काफी संख्या में वैसी बहुमंजली रिहायशी और व्यावसायिक इमारतें हैं जिनका निर्माण सत्ता की राजनीति से प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर जुड़े दबंगों ने करवाया है. कुछ तो सत्ताधारी दल के दबंग विधायक के बताए जाते हैं, कुछ में बिल्डिंग-माफिया के संरक्षक राज्य के कुछ बड़े नेताओं का पैसा लगा है. रसूख का अंदाजा लगाने के लिए एक ही उदाहरण काफी होगा. पटना में जदयू के कुख्यात और बाहुबली विधायक ने एक मॉल बनवाया. इसके कुछ हिस्सों के निर्माण पर नगर निगम ने रोक लगाई. रोक के बावजूद पटना के फ्रेजर रोड पर यह मॉल बना, प्रशासन ने निगम के आदेश को लागू कराने की कभी कोई पहल ही नहीं की. यह दबंगई की लंबी कड़ी का एक हिस्सा भर है. विपक्ष भी ऐसे दबंग बिल्डरों से अछूता नहीं है. विपक्ष के कई नेता इस बिल्डिंग सेक्टर के खुले हितैषी हैं. पटना उच्च न्यायालय की खंडपीठ की टिप्पणी हैः हम जानते हैं कि यह बिल्डरों के दबाव में लिया गया निर्णय है. दूसरा कारण, यह भी प्रतीत होता है कि अवैध अपार्टमेंट के खिलाफ विजिलेंस केस के आदेश में सख्ती बरती जा रही है जिससे बिल्डर परेशान हैं. राज्य सरकार के आदेश के प्रेरक-तत्वों को लेकर उच्च न्यायालय शायद इससे कड़ी टिप्पणी नहीं कर सकता.

कुलदीप नारायण ने अपने जवाब में उपलब्ध रकम के उपयोग न होने की बात स्वीकार करते हुए अधिकांश काम न होने के लिए राजनीति को जिम्मेदार बताया था. लेकिन सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया. अब अदालत ने साफ कर दिया है कि कुलदीप नारायण पटना नगर निगम के नगर आयुक्त- शीर्ष कार्याधिकारी- तो रहेंगे, पर वह केवल निगरानी के मामलों को निपटाएंगे और न्यायालय उनसे उनकी जिम्मेदारी के निर्वहन का हिसाब लेगा. नगर निगम के अन्य कार्य दूसरे अधिकारी देखेंगे. अर्थात पटना नगर निगम क्षेत्र की नागिरक सुविधाओं के लिए कुलदीप नारायण जिम्मेदार नहीं रहेंगे. अब पटना एक नई स्थिति में है जहां नगर आयुक्त तो होंगे, पर नागरिक सुविधाओं के लिए वे जिम्मेदार नहीं होंगेे.

पटना उच्च न्यायालय में सरकार की किरकिरी तो हुई ही, कुलदीप नारायण प्रकरण राज्य के राजनीतिक और प्रशासनिक हलकों में भारी आलोचना का कारण बन गया है. सूबे के विपक्षी राजनीतिक दल जीतनराम मांझी सरकार पर कोर्ट की अवहेलना का आरोप लगाते हुए नगर आयुक्त के पक्ष में खड़े हो गए हैं. हालांकि ये दल सामान्य नागरिक सुविधा के फ्रंट पर नगर की बदहाली के लिए दो दिन पहले तक निगम प्रशासन के खिलाफ खड़े थे. कुछ हफ्ते पहले जब हाइकोर्ट ने पटना को देश की सबसे गंदी राजधानी बताया था तब ये दल निगम प्रशासन की निष्क्रियता के लिए उसे निशाना बना रहे थे. अब मांझी सरकार के निर्णय ने इन दलों को कुलदीप नारायण के साथ कर दिया. भाजपा के बड़े नेता सुशील कुमार मोदी ने तो विभागीय मंत्री सम्राट चौधरी पर व्यक्तिगत रंज़िश के कारण ऐसी कार्रवाई करने का आरोप लगाया है. आईएएस एसोसिएशन की राज्य शाखा ने आंदोलन की चेतावनी दी है और मामले को दिल्ली तक ले जाने की धमकी दी है. बिहार प्रशासनिक सेवा के संगठन बासा ने भी आंखें लाल कर ली हैं. पर, सबसे दिलचस्प स्थिति पटना नगर निगम की है. यहां निर्वाचित वार्ड पार्षद (वार्ड कमिश्‍नर) तो दो धड़े में हैं ही, अधिकारी-कर्मचारी भी दो खेमों में बंट गए हैं. कुलदीप के समर्थक पार्षद व अधिकारी-कर्मचारी सड़क पर आ गए हैं. नगर आयुक्त समर्थक तबका पटना में धरना प्रदर्शन कर रहा है, नारे लगा रहा है. पर, दूसरा धड़ा अभी खामोश है और उसे भी सरकार की ही तरह अदालत के निर्णय का इंतजार है. कुलदीप के पक्ष में पार्षदों की गोलबंदी का एक कारण भाजपा का उनके साथ होना और दूसरा नगर निगम को भंग करने की सरकार की पहल भी रही है. नगर निगम की अराजक स्थिति के कारण सरकार ने इसे भंग करने की चेतावनी दे दी है. अर्थात पटना के निगम पार्षद पहले से ही सरकार के विरोध में सड़क पर आ रहे थे या आने को बेताब थे और अब कुलदीप नारायण प्रकरण ने उन्हें गोलबंदी का नया आधार दे दिया.
राज्य सरकार ने कुलदीप नारायण के निलंबन आदेश में हालांकि उन बिंदुओं की चर्चा की है जिनके कारण ऐसा कठोर कदम उठाया गया है. सरकार ने कहा है कि नगर आयुक्त को एक महीना पहले (11 नवम्बर) को कारण बताओ नोटिस जारी कर पांच मामलों पर उनसे सफाई मांगी थी. इनमें मच्छर मारने के लिए फॉगिंग मशीन न खरीदने, कचरा प्रबंधन के उपाय न करने, शहर की सफाई में कोताही, अतिक्रमण हटाने और अवैध निर्माण पर रोक में विफल रहने का मामला था. कुलदीप ने अपने जवाब में उपलब्ध रकम के उपयोग न होने की बात स्वीकार करते हुए अधिकांश काम न होने के लिए राजनीति को जिम्मेदार बताया था. लेकिन सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया. अब अदालत ने साफ कर दिया है कि कुलदीप नारायण पटना नगर निगम के नगर आयुक्त-शीर्ष कार्याधिकारी-तो रहेंगे, पर वह केवल निगरानी के मामलों को निपटाएंगे और न्यायालय उनसे उनकी जिम्मेदारी के निर्वहन का हिसाब लेगा. नगर निगम के अन्य कार्य दूसरे अधिकारी देखेंगे. अर्थात पटना नगर निगम क्षेत्र की नागिरक सुविधाओं के लिए कुलदीप नारायण जिम्मेदार नहीं रहेंगे. वस्तुतः पटना एक नई परिस्थिति में है जहां नगर आयुक्त तो होंगे, पर नागरिक सुविधाओं के लिए वह जिम्मेदार नहीं होंगे. हालांकि यह साफ नहीं किया गया है कि कानूनी तौर पर जिन कार्यों के लिए नगर आयुक्त ही सीधे रूप से जिम्मेदार हैं, वे काम कैसे होंगे. पटना नगर निगम पिछले कई वर्षों से राजनेता और नौकरशाहों के लिए फुटबॉल मौदान की तरह है. नगर आयुक्त अधिकारी अपने ढंग से नगर सरकार का संचालन चाहता है और महापौर (मेयर) और उनकी सशक्त समिति अपने तरीके से. पार्षदों का समूह तीन खेमों में होता रहा है- एक मेयर खेमा, दूसरा उप महापौर खेमा और तीसरा निर्दल. पर, सभी के अपने राजनीतिक स्वार्थ हैं, इस आधार पर वे सक्रिय और निष्क्रिय होते हैं. लेकिन सुविधा के नाम पर विधायक और सांसदों की तरह वे भी एकजुट होते हैं. ये लाभ-लोभ उन्हें गोलबंद करता है. यह गोलबंदी कभी महापौर के पक्ष विपक्ष में होती है, कभी सरकार के पक्ष-विपक्ष में तो कभी कुलदीप नारायण जैसे अफसर के पक्ष-विपक्ष में. लेकिन इतना तो तय है कि भोग तो पटना के आम लोगों को ही भोगना पड़ता है. कुलदीप नारायण आज कुछ लोगों के नायक बन गए हैं, पर जब पटना के बाशिंदों को बेहतर नागरिक सुविधा देने या उनके विस्तार और विकास की बात चलेगी, तो उनके खाते में भी कुछ खास होगा, ऐसा नहीं लगता है.

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