arunachalजब पूरा देश गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा का उत्सुकता के साथ इंतज़ार कर रहा था और इस घोषणा में हो रही विलम्ब के लिए चुनाव आयोग चौतरफा आलोचनाओं में घिरा हुआ था, ऐसे ही समय में हिमालय की गोद में बसे देश के सुदूर पूर्वी राज्य अरुणाचल प्रदेश के कुछ जागरूक नौजवान दिल्ली में चुनाव आयोग के दरवाज़े पर दस्तक दे रहे थे. उनकी मांग थी कि उनके विधानसभा क्षेत्र 12वीं पक्के केस्सांग (सुरक्षित) का उपचुनाव जल्द से जल्द करवाया जाए. पहली नज़र में यह मांग कोई बहुत महत्वपूर्ण मांग नज़र नहीं आती, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली की सियासत में पूर्वोत्तर के राज्यों की बढ़ी हुई अहमियत को देखते हुए इन नौजवानों की मांग पर एक नज़र डालना दिलचस्पी से खाली नहीं होगा.

क्या है पूरा मामला?

12वीं पक्के केस्सांग विधान सभा सीट गुवाहाटी हाई कोर्ट के फैसले के कारण खाली हुई थी. वर्ष 2014 के विधानसभा चुनाव में इस सीट से भाजपा उम्मीदवार अतुम वेल्ली ने कथित तौर पर अपना नामांकन वापस ले लिया था. नतीजतन कांग्रेस प्रत्याशी और पूर्व उपमुख्यमंत्री केमांग डोलो निर्विरोध निर्वाचित घोषित हो गए थे. हालांकि उनके इस दावे पर यहां लोगों को शक है, लेकिन वेल्ली का कहना था कि नामांकन वापसी का आवेदन उनके फर्जी हस्ताक्षर के साथ किसी और ने दिया था. बहरहाल, उन्होंने केमांग डोलो के चुनाव को गुवाहाटी हाई कोर्ट में चुनौती दी, जिसपर सुनावाई के बाद अदालत ने 8 ़फरवरी के अपने फैसले में केमांग डोलो का चुनाव रद्द कर दिया. इस फैसले के खिलाफ केमांग डोलो ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने 23 मई के फैसले में गुवाहाटी हाई कोर्ट के फैसले को बरक़रार रखा.

उधर हाई कोर्ट के फैसले के बाद ही चुनाव आयोग ने डोलो की विधानसभा सदस्यता तत्काल रद्द कर दी थी. ज़ाहिर है सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यहां उपचुनाव का ही एक रास्ता बाक़ी था. चुनाव आयोग ने इस सम्बन्ध में जो अधिसूचना जारी की थी, उसके मुताबिक 12 जुलाई को नामांकन दाखिल करने की आखिरी तारीख थी और 5 अगस्त तक पूरी चुनावी प्रक्रिया समाप्त होनी थी. लेकिन, 12 जुलाई को चुनाव आयोग ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए यहां का उपचुनाव स्थगित कर दिया.

चुनाव स्थगित करने का कारण

चुनाव आयोग ने अरुणाचल प्रदेश के मुख्य चुनाव अधिकारी और मुख्य सचिव की अनुशंसा पर 12वीं पक्के केस्सांग का उपचुनाव स्थगित किया था. अरुणाचल प्रदेश के मुख्य चुनाव अधिकारी ने अपने 6 और 10 जुलाई के पत्र में कहा था कि भारी बारिश और भूस्खलन के कारण कई स्थानों पर सड़क संचार बाधित हुई है और क्षेत्र के 26 मतदान केन्द्रों में से केवल 9 केन्द्रों तक ही सड़क के जरिए पहुंचा जा सकता है. उसी तरह मुख्य सचिव ने भी अपनी रिपोर्ट में चुनाव आयोग को बताया था कि ख़राब मौसम के चलते निर्धारित कार्यक्रम के मुताबिक चुनाव करा पाना असंभव है, क्योंकि ख़राब मौसम के कारण पोलिंग पार्टियों को मतदान केन्द्रों तक आने-जाने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा. बहरहाल इन दो अधिकारीयों की रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए 12 जुलाई को, जब नामांकन दाखिल किये जाने की प्रक्रिया जारी थी, चुनाव आयोग ने पक्के केस्सांग का उपचुनाव स्थगित किये जाने की अधिसूचना जारी कर दी.

क़ानूनी स्थिति

अब एक नज़र उपचुनाव से संबधित कानूनी पहलू पर भी डाल लेते हैं. लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951, की धारा 151(ए) के मुताबिक किसी भी रिक्त विधानसभा या लोकसभा की सीट को छह महीने के भीतर भरा जाना अनिवार्य है. इसमें दो अपवाद भी शामिल हैं, जिसके तहत चुनाव स्थगित या रद्द किया जा सकता है. पहला, रिक्त सीट की अवधि पूर्ण होने में एक साल से कम का समय शेष हो और दूसरा केंद्र सरकार की अनुशंसा पर चुनाव आयोग को लगे कि किसी रिक्त सीट पर निर्धारित समय के अन्दर उपचुनाव करवाना असंभव है. ज़ाहिर है 12वीं पक्के केस्सांग के सम्बन्ध में चुनाव आयोग ने इसी कानून का सहारा लेते हुए वहां चुनाव स्थगित कर दिया. जबकि वहां के लोगों का कहना था जुलाई महीने में बारिश तो हो रही थी, लेकिन ऐसा भी नहीं था पक्के केस्सांग विधानसभा का कोई गांव पानी में डूबा हुआ हो. इस विधानसभा से सम्बंधित एक नागरिक समूह ने यह दावा किया कि पूर्वी कामंग जिला जिसमें यह क्षेत्र आता है, वहां बस्तियां आम तौर पर ऊंचे स्थान पर होती हैं और बारिश का पानी फौरन ही उतर जाता है. लिहाज़ा चुनाव आयोग का ख़राब मौसम का बहाना केवल बहाना ही था और चुनाव आयोग ने सरकार के प्रभाव में आ कर यहां चुनाव स्थगित किया. कांग्रेस ने भी फौरन अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की और राज्य के कार्यवाहक मुख्य सचिव सत्य गोपाल और मुख्य चुनाव अधिकारी पर चुनाव आयोग को भ्रमित करने का आरोप लगाया. स्थानीय समाचार पत्रों में इसकी रिपोर्टिंग तो हुई लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे पर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया.

पीपुल्स फोरम की कोशिशें

बहरहाल पक्के केस्सांग में उपचुनाव स्थगित हो जाने के बाद स्थानीय लोगों को लगने लगा कि सत्ताधारी दल अपने फायदे के लिए मौसम का बहाना बना कर चुनाव को तब तक टालना चाहता है जब तक परिस्थितियां उसके अनुरूप न हो जाएं. ऐसे में कुछ नौजवानों ने पीपुल्स फोरम ऑ़फ 12 पक्के-केस्सांग कांस्टीच्यूएंसी के नाम से एक संस्था गठित कर जल्द से जल्द चुनाव करवाने के लिए संघर्ष शुरू किया. इस फोरम का दावा है कि इनका किसी भी राजनैतिक दल से कोई लेना देना नहीं है. वे कवल क्षेत्र का हित ध्यान में रखते हुए इस संघर्ष को आगे बढ़ा रहे हैं. उनका यह भी कहना है कि निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं होने के कारण क्षेत्र का विकास ठप हो गया है. बहरहाल, सबसे पहले फोरम ने राज्यपाल को ज्ञापन देकर मामले में हस्तक्षेप करने की गुज़ारिश की. बाद में चुनाव आयोग को इस बाबत कई ईमेल भेजे लेकिन किसी का जवाब नहीं आया. थक-हार कर फोरम के प्रतिनिधियों ने दिल्ली आकर चुनाव आयुक्त से मिलने का फैसला किया. वे चुनाव आयुक्त से तो न मिल सके लेकिन चुनाव आयोग के सचिव एसबी जोशी ने उन्हें यकीन दिलाया कि उनके क्षेत्र के लिए जल्द ही उपचुनाव की अधिसूचना जारी की जायेगी.

जैसा कि उपर ज़िक्र किया जा चुका है गुवाहटी हाई कोर्ट ने 8 फरवरी को पक्के केस्सांग विधानसभा का चुनाव रद्द कर दिया था. 8 फरवरी के बाद से अब तक तकरीबन 9 महीने का समय बीत चुका है और इतने समय तक यह विधानसभा अपने निर्वाचित प्रतिनिधि से वंचित रहा है. यदि बारिश चुनाव स्थगित करने का कारण थी और स्थानीय लोगों के शक निराधार थे तो अब बारिश का मौसम गुज़रे हुए भी कम से कम दो महीने बीत चुके हैं. इस दौरान कई राज्यों में उपचुनावों की अधिसूचनाएं भी जारी हुईं, लेकिन उसमें पक्के केस्सांग का नाम कहीं नहीं आया. ऐसे में यहां के लोगों के शक को कैसे निराधार माना जाए कि चुनाव आयोग सरकार के इशारे पर जान बूझ कर चुनाव करवाने में देरी कर रही है?

चुनाव में देरी के परिणाम

यह तो सर्वविदित तथ्य है कि भारत में चुनाव इतने महंगे हो गए हैं कि एक-एक सीट के लिए पानी की तरह पैसा बहाया जाता है. पिछले दिनों पूर्वोत्तर के राज्यों की सियासी अहमियत बढ़ने के बाद यहां हो रहे चुनावों में उम्मीदवार न केवल अपने कार्यकर्ताओं के ऊपर खर्च कर रहे हैं, बल्कि आम वोटरों को भी पैसे का प्रलोभन देकर वोट हासिल करने की जुगत में हैं. पीपुल्स फोरम का कहना है कि उनके क्षेत्र में भले ही उपचुनाव की घोषणा नहीं हुई है, लेकिन संभावित उम्मीदवारों, खास तौर पर भाजपा के उम्मीदवार, की तरफ से पैसे का खेल पिछले तीन चार महीनों से जारी है. नतीजा यह हो रहा है कि नौजवानों को लुभाने के लिए पार्टियां दी जा रही हैं. शराब की बोतलें खोली जा रही हैं. क्षेत्र का निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं होने के कारण क्षेत्र का जो नुकसान हो रहा है वो अलग है. यदि इन आरोपों को सही मान लिया जाए कि विलंब के कारण से सत्ताधारी दल या विपक्ष के संभावित उम्मीदवारों द्वारा पैसे के बल पर मतदाताओं को प्रभावित करने का प्रयास हो रहा है तो फिर ये धांधली रहित चुनाव कैसे हुआ? यदि इस आरोप को सच मान लिया जाए कि चुनाव आयोग सत्ताधारी सुविधाओं के अनुसार काम कर रहा है तो उससे साफ-सुथरे चुनाव की उम्मीद कैसे की जा सकती है? हालांकि आयोग की प्राथमिकता होनी चाहिए कि उसकी विश्वसनीयता पर किसी तरह का बट्टा न लगे और किसी को भी यह शक करने की गुंजाइश न रहे कि वो एक सियासी दल की तरह व्यवहार कर रहा है.

सामरिक दृष्टि से अरुणाचल प्रदेश भारत का एक बहुत ही महत्वपूर्ण राज्य है. चीन के साथ सीमा विवाद की वजह से यह राज्य हमेशा सुर्ख़ियों में रहता है. इस राज्य की एक विशेषता यह भी है कि यहां का हर पढ़ा लिखा व्यक्ति अच्छी हिंदी बोल लेता है. यह खासियत इस क्षेत्र के अन्य राज्यों में नहीं मिलती. चकमा शरणार्थियों के पुनर्वास और नागरिकता का मसला भी यहां युवा वर्ग को बेचैन करता है. देश के दो बड़े राजनैतिक दलों की वर्चस्व की लड़ाई में यहां एक मुख्यमंत्री को अपनी जान गंवानी पड़ी है. अब ऐसे में देश के बड़े राजनैतिक दलों को चाहिए कि वे यहां के राजनैतिक मामलों में अधिक दखलअंदाजी न करें और यहां की राजनीति को स्थानीय स्तर तक सीमित रहने दें. अब रहा चुनाव आयोग का सवाल तो उसे 12वीं पक्के केस्सांग जैसी स्थिति से परहेज़ करना चाहिए. क्योंकि चुनाव आयोग भारतीय लोकतंत्र की एक विश्वसनीय संस्था है. उसे हर हालत में अपनी साख बचाए बचाए रखना न केवल इस संस्था के लिए आवश्यक है बल्कि भारतीय लोकतंत्र के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है.

अरुणाचल की सियासी उथल-पुथल

जब भाजपा की कांग्रेस मुक्त भारत परियोजना पूर्वोत्तर पहुंची, वहां सियासी उथल-पुथल का खेल शुरू हो गया. इस उथल-पुथल में जो राज्य सबसे अधिक प्रभावित हुआ वह है अरुणाचल प्रदेश. पिछले कुछ वर्षों से अरुणाचल प्रदेश दो दलों के सियासी वर्चस्व का अखाड़ा बना हुआ है. वर्ष 2014 के विधानसभा चुनाव में कुल 60 सीटों में से 44 सीटें जीत कर कांग्रेस सत्ता में आई, जबकि भाजपा को 11, पीपुल्स पार्टी ऑ़फ अरुणाचल को 5 और अन्य को 2 सीटें मिली थी. कांग्रेस के नाबम तुकी मुख्यमंत्री बने, लेकिन वर्ष 2016 आते-आते पार्टी का अंतर्कलह सतह पर आ गया. उसके 20 विधयाकों ने मुख्यमंत्री के खिलाफ बगावत कर दिया और भाजपा के 11 विधायकों के साथ मिलकर विधानसभा अध्यक्ष के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया. बदले में विधानसभा अध्यक्ष ने उन 20 कांग्रेस विधायकों के खिलाफ दल-बदल विरोधी कानून के तहत कार्रवाई शुरू कर दी. दूसरी तरफ राज्यपाल ने बिना मुख्यमंत्री की सलाह के विधानसभा सत्र को एक महीने तक बढ़ा दिया और विधानसभा अध्यक्ष के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित करवाने का आदेश दिया.

उधर मुख्यमंत्री और विधानसभा अध्यक्ष ने सत्र समाप्ति की घोषणा कर दी, लेकिन बागी विधायकों ने दूसरी जगह सदन की कार्रवाई कर विधानसभा अध्यक्ष को बर्खास्त कर दिया. इस तमाम सियासी ड्रामे के बाद कालिखो पुल भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बने. गौरतलब है कि ये वही पुल हैं जिन्होंने बाद में आत्महत्या कर ली थी और अपने सुसाइड नोट में देश के सर्वोच्च पदों पर विराजमान लोगों पर गंभीर आरोप लगाये थे. उस सुसाइड नोट को चौथी दुनिया ने पहली बार बिना किसी संपादन के छापा था. बहरहाल, मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने नाबम तुकी की सरकार को बहाल करते हुए उन्हें विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने को कहा. बाद में नाबम तुकी की जगह कांग्रेस के बागी विधायकों में शामिल रहे पेमा खांडू कांग्रेस के मुख्यमंत्री बने. राज्य की सियासत ने एक और करवट ली और कांग्रेस के 44 विधायकों में से 43 ने मुख्यमंत्री के साथ कांग्रेस छोड़ पीपुल्स पार्टी ऑ़फ अरुणाचल का दामन थाम लिया. यह ड्रामा यहीं समाप्त नहीं हुआ. मुख्यमंत्री पेमा खांडू की अगुवाई में पीपुल्स पार्टी ऑ़फ अरुणाचल के 33 विधायकों ने एक बार फिर पाला बदला और भाजपा के खेमे में चले गए और राज्य में भाजपा सरकार बनवा दी. फिलहाल अरुणाचल की सियासत में यह अफवाह एक बार फिर गर्दिश कर रही है कि जल्द है सत्ताधारी दल के कुछ विधायक कांग्रेस में शामिल हो सकते हैं.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here