मानव संसाधन विकास मंत्रालय सरकार के सबसे अहम मंत्रालयों में से एक होता है. मोदी सरकार में इस मंत्रालय की चर्चा और आलोचना सरकार के पहले मंत्रीमंडल की घोषणा के साथ ही शुरू हो गयी थी और उसी के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा स्मृति ज़ुबीन ईरानी को केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री बनाने का विवाद जोर पकड़ने लगा था. स्मृति के अब तक के कार्यकाल पर नज़र डालें तो मानव संसाधन के विकास के कार्यों से ज्यादा लम्बी विवादों की सूची है.

tiiiiमोदी सरकार के बीते एक साल में अगर कोई मंत्री और मंत्रालय अपने काम से ज्यादा विवादों के लिए ख़बरों में रहा, तो वह थीं मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी और उनका मानव संसाधन विकास मंत्रालय. स्मृति ईरानी पद पर नियुक्त होते ही खुद की येल यूनिवर्सिटी से डिग्री को लेकर विवाद में घिर गयीं. उसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के चार साल के कोर्स (एफवार्ईयूपी) को लेकर हुआ विवाद हो या सरकारी स्कूलों (केंद्रीय विद्यालयों) में तीसरी भाषा के रूप में जर्मन भाषा को हटाए जाने का फैसला या फिर शिक्षक दिवस पर प्रधानमंत्री का भाषण सुनने के लिए जारी किया सर्कुलर, मानव संसाधन विकास मंत्रालय और स्मृति ईरानी लगातार विपक्ष और विशेषज्ञों की आलोचनाओं का पात्र बने रहे. इसलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मंत्रीमंडल में एक साल में किये गए काम के कारण याद किए जाने वाले मंत्रियों में मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी का नाम शामिल नहीं है. ये और बात है की वह सबसे अधिक चर्चा में रहने वाली मंत्री रहीं. स्मृति ईरानी के व्यक्तित्व से लेकर उनके द्वारा लिए गए फैसले पूरे साल विवादों में घिरे रहे. कहीं उनके काम करने के तरीके की तीखी आलोचना हुई तो कहीं उनकी मानव संसाधन विकास मंत्रालय संभालने की कार्यक्षमता पर ही सवाल खड़े हुए. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी) की भी भूमिका को बदलने की रिपोर्ट सामने आई, लेकिन यह कब होगा और कैसे होगा, यह अब तक स्पष्ट नहीं हुआ है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय और मंत्री की उच्च शिक्षा पदाधिकारियों जैसे आई.आई.टी डायरेक्टर्स के बीच एक साल में नियमित रूप से सार्वजनिक कहासुनी से भी मंत्रालय और स्मृति ईरानी दोनों की ही छवि को नुकसान पहुंचा है. शिक्षण संस्थानों, खासकर उच्च शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता को लेकर भी भाजपा सरकार के इस एक साल में कई विवाद हुए. आज भी देश के सरकारी उच्च शिक्षण संस्थानों के प्रमुखों के पद खाली हैं, जो नीतिगत निर्णय लेने वालों की बाट जोह रहे हैं, लेकिन सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही है.
ऐसा नहीं है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा बीते एक वर्ष में कोई काम नहीं किया गया, लेकिन मंत्रालय का कोई भी काम अपने मंत्री के इर्द-गिर्द घूमते विवादों से बड़ा नहीं था. वर्तमान केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय की पहले साल में की गयी सबसे बड़ी घोषणा या पहल एक नई शिक्षा नीति तैयार करने की रही. 1986 के बाद वर्ष 1992 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति में संशोधन हुआ, लेकिन तब से लेकर आज तक मूल रूप से शिक्षा नीति में कोई बदलाव नहीं हुआ है. हमारा देश और दुनिया में पहले की तुलना आज काफी बदलाव आ गए हैं, इसलिए भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी आज के समय के अनुरूप बदलाव महत्वपूर्ण हैं, लेकिन ज़रूरत इस बात की है की इस बीती अवधि में विकसित हुई शैक्षिक समझ को सरकार अपनी नीति में एकीकृत करे. ये सरकार अगर ईमानदारी और सही नीयत से शिक्षा नीति को मज़बूत और अधिक कारगर बनाने का काम करे तो आने वाले अगले कुछ दशकों के लिए शिक्षा के क्षेत्र में वह दशा और दिशा तय करने का काम करेगी. मौजूदा भाजपा सरकार पर विपक्ष द्वारा कई बार शिक्षा के भगवाकरण का आरोप लगाया गया है, लेकिन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने संसद में सभी आरोपों को खारिज करते हुए यह स्पष्ट किया कि संविधान के दायरे में ही बच्चों को शिक्षा दी जाएगी. केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के ज़रिये नई शिक्षा नीति द्वारा हमारी शिक्षा का दार्शनिक आधार तय करने की बड़ी और गंभीर ज़िम्मेदारी इस सरकार पर है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नीति तैयार करने के संदर्भ में, 43 विशिष्ट मुद्दों पर सार्वजनिक प्रतिक्रिया लेने की पहल की है और 33 थीम तैयार किए हैं, जिनके बारे में मंत्रालय के अनुसार विभिन्न पक्षों के साथ चर्चा की जा रही है. सरकार शिक्षा और कौशल विकास कार्यक्रमों के लिए एक व्यापक दर्ज़ा तंत्र विकसित कर रही है, जो कि एक सकारात्मक कदम है. इसके अलावा केंद्रीय मंत्री ने कई नई योजनओं की घोषणा की है. जैसे पढ़े भारत, बढ़े भारत, जेंडर एटलस, जिसके माध्यम से उन क्षेत्रों की पहचान की जा सके, जहां कम लड़कियां पढ़ने जाती हैं. सारांश, जिसके माध्यम से अभिभावक अपने बच्चों की प्रगति के बारे में जान सकें, पूर्वोत्तर के लिए इशान उदय और इशान विकास, पूरे देश में कला उत्सव की शुरुआत करने की पहल आदि. योजनाओं की घोषणा हर सरकार करती है. देखने वाली बात यह है कि उन योजनाओं में से कितनी किस स्तर तक सफल होतीं हैं, लेकिन इस एक साल में सारी योजनाओं को नहीं मापा जा सकता. पहले साल में घोषित की गई योजनाओं की सफलता और महत्ता सरकार के 5 साल का कार्यकाल पूरा होने पर ही पता चलेगी.

ऐसा नहीं है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा बीते एक वर्ष में कोई काम नहीं किया गया, लेकिन मंत्रालय का कोई भी काम अपने मंत्री के इर्द-गिर्द घूमते विवादों से बड़ा नहीं था. वर्तमान केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय की पहले साल में की गयी सबसे बड़ी घोषणा या पहल एक नई शिक्षा नीति तैयार करने की रही.

पहले साल में शिक्षा के क्षेत्र के विकास और तरक्की की बातें तो प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्री दोनों ने बहुत ऊर्जा भरे और ताकतवर शब्दों में की, लेकिन सरकार के एक साल में किये गए कामों में छाया कहीं नज़र नहीं आई. मानव संसाधन विकास का सार शिक्षा है, जो देश के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने में संतुलन के लिए उल्लेखनीय और उपचारी भूमिका निभाती है, यह कहती है मानव संसाधन विकास मंत्रालय की वेबसाइट, लेकिन मौजूदा सरकार द्वारा पेश किये दो आम बजटों को देखकर लगता है कि सरकार बजट बनाते वक़्त इस बात को भूल गयी. भारत में शिक्षा प्राणाली की जो हालत है, खासकर प्रारंभिक और माध्यमिक शिक्षा की, उसका जिम्मेदार कई विशेषज्ञों और शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े लोग हमारे आम बजट में शिक्षा के प्रति कम एलोकेशन बताते हैं. भारत पहले से ही उन देशों में शामिल है, जो अपनी शिक्षा व्यवस्था पर ज़रूरत से बहुत कम खर्च करतें हैं. हमारे जैसे विकासशील देश के लिए ये दुखद है. इसी तरह सरकार लगातार कौशल विकास पर जोर दे रही है, लेकिन स्कूली शिक्षा और साक्षरता पर खर्च 2015-16 के बजट में 12,895.6 करोड़ रुपये कम हो गया है.
ब्रिक्स देशों की तुलना में भारत की साक्षरता दर केवल 74% है, लेकिन यह सरकार बजट के इस तरह के प्रावधानों को देखते हुए शिक्षा को लेकर गम्भीर नहीं नज़र आ रही है. वर्ष 2013-14 के आम बजट में स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग और उच्चतर शिक्षा विभाग के लिए कुल मिलाकर 71321.51 करोड़ रुपये आवंटित किये गए थे, जो 2014-15 के आम बजट में बढ़ा कर 82771.1 करोड़ किए थे. यह एक अच्छा संकेत था. 2014 के आम चुनाव के पूर्व भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में भी शिक्षा के लिए सकल घरेलू उत्पाद के 6 प्रतिशत का वादा किया था, लेकिन 2014-15 के रिवाइज्ड बजट में रकम घटा कर 70505 करोड़ रुपये कर दी गई. सरकार की योजनाओं की सफलता और असर तो 5 साल से पहले नहीं मापे जा सकते, लेकिन सरकार की नीयत ज़रूर बजट में शिक्षा के प्रति किये गए प्रावधान से झलकती है. पहले से घटाए हुए शिक्षा बजट में मोदी सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2015-16 के बजट में और कटौती कर दी. वर्ष 2015-16 के आम बजट में स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग और उच्चतर शिक्षा विभाग के लिए खर्च मात्र 69074.76 रुपये रखा गया है. बजट में सर्व शिक्षा अभियान में 20.74 प्रतिशत की कमी और और मध्याह्न भोजन योजना में 30.11 प्रतिशत की कमी की गयी है. हालांकि राज्यों के लिए योजना धन के आवंटन में वृद्धि की गयी है, लेकिन कुल योजना आवंटन इस वर्ष के लिए 19 प्रतिशत से नीचे आ गया है. हमारे स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने का कार्य आसान नहीं है, एक साल में बड़े स्तर पर सुधार की उम्मीद की भी नहीं जा सकती, लेकिन पहले से ऋणी राज्यों के लिए कुछ अतिरिक्त धनराशि आवंटित कर देना भी समस्या का हल नहीं है. वित्त मंत्री ने इसी बजट में हर बच्चे से 5 किलोमीटर की परिधि में एक स्कूल का वादा किया है, लेकिन शिक्षा क्षेत्र के लिए आवंटन में गिरावट कुछ और संकेत देते हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी भारत के नवनिर्माण की बात करतें हैं और शिक्षा की अहमियत बताते हैं, लेकिनउनके द्वारा कही गयी बातों पर और पहले साल में घोषित की गयी योजनाओं पर बजट के आंकड़े देख यकीन करना मुश्किल हो जाता है. शिक्षा का अधिकार अधिनियम पहले ही संसाधन की कमी के कारण ठीक से लागू नहीं हो पाया है और अब संसाधन में और कटौती की जा रही है. विशेषज्ञ बताते हैं शिक्षा उपकर ही अब शिक्षा के लिए फंड्स का मुख्य स्रोत बन गया है.
एनुअल स्टेटस ऑ़फ एजुकेशन रिपोर्ट 2014 के अनुसार प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ रहे लगभग 31 प्रतिशत बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं और यह संख्या लगातार बढ़ रही है, क्योंकि माता-पिता ख़राब सरकारी स्कूल प्रणाली से अपने बच्चों को बचाना चाहते हैं. शिक्षा का अधिकार (आरटीई) फोरम के अम्बरीश राय के अनुसार, हमे 80,000 माध्यमिक स्तर के स्कूलों के सीनियर सेकेंडरी स्तर तक उन्नयन करने की आवश्यकता है, लेकिन बजट में किया गया आवंटन पर्याप्त रूप से प्राथमिक स्तर की शिक्षा को भी कवर नहीं करेगा. भारतीय जनता पार्टी के पिछले एक वर्ष के 2 बजटों में शिक्षा क्षेत्र में स्थिर बजटीय आवंटन और किसी भी बड़ी रीएलोकेशन के न होने की वजह से शिक्षा क्षेत्र में संसाधनों की कमी आई है. सरकार ने घोषणा की है कि कई नये उच्च शिक्षा संस्थान सीधे केंद्र सरकार की देखरेख में रहेंगे, लेकिन अभी तक पुराने संस्थानों को जिन्हें गुणवत्ता में सुधार करने के लिए महत्वपूर्ण समर्थन की आवश्यकता है, कैसे बेहतर फंड किया जाये, इसके बारे में कोई नई सोच सामने नहीं आई है. एक साल तो बीत गया, लेकिन आगे आने वाले 4 सालों में यदि सरकार के मानव विकास संसाधन मंत्रालय का प्रदर्शन ऐसा ही रहा, तो 5 साल में भारत की जनता का संसाधन के रूप में विकास कैसे होगा, ये फिलहाल तो समझ नहीं आ रहा. शिक्षा क्षेत्र की दो व्यापक सुधार प्राथमिकताओं-शिक्षा शास्त्र और संसाधन पर एक साल में किया गया काम संतोषजनक नहीं रहा है.

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