mp-lokayukta-police-ganesh-मध्य प्रदेश देश का एक ऐसा राज्य है, जहां से लगातार लोकायुक्त की टीम द्वारा सरकारी कर्मचारियों के यहां छापे मारने की ख़बरें आती रहती हैं और चपरासी से लेकर वरिष्ठ अधिकारियों तक के पास करोड़ों-अरबों की संपत्ति होने का खुलासा करती हैं. लगातार छापेमारी की ख़बरों से तो ऐसा लगता है कि देश में केवल मध्य प्रदेश में ही लोकायुक्त नामक संस्था है, जो अपने काम को ईमानदारी से अंजाम दे रही है. लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह मध्य प्रदेश में सुशासन होने का दंभ भरते रहते हैं, लेकिन उनके यहां के कर्मचारियों के पास आय से अधिक संपत्ति होने से जाहिर होता है कि प्रदेश में सब कुछ ठीक नहीं है. पिछले दस सालों में प्रदेश में किसी भी बड़े नेता या मंत्री के यहां लोकायुक्त के छापे नहीं पड़े. क्या मध्य प्रदेश के नेता साधु-संत हैं, जो भ्रष्टाचार से कोसों दूर रहते हैं? कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो केवल छोटे कर्मचारी पकड़ में आ रहे या पकड़वाए जा रहे हैं, जिससे देश में मध्य प्रदेश की साफ़-सुथरी छवि पेश की जा सके. इससे साफ़ है कि प्रदेश की बड़ी मछलियां लोकायुक्त की पकड़ से कोसों दूर हैं.
लोकायुक्त ने मध्य प्रदेश सरकार के 11 मंत्रियों और कई नौकरशाहों के ख़िलाफ़ जांच की अनुमति के लिए लंबे समय से अर्जी दे रखी है, लेकिन सरकार ने अब तक लोकायुक्त को जांच की अनुमति नहीं दी है. सरकार अपने मंत्रियों के ख़िलाफ़ जांच करने की अनुमति इसलिए नहीं दे रही है, क्योंकि उसे यकीन है कि यदि ऐसा होगा, तो उसके काले कारनामे जनता के सामने आ सकते हैं. लोकायुक्त आरोपी मंत्रियों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर नहीं कर पा रहा है, क्योंकि उसे संबंधित विभागों से आवश्यक दस्तावेज नहीं मिल पा रहे हैं. लोकायुक्त के हाथ बंधे हुए हैं, क्योंकि मंत्रियों पर कार्रवाई करने की स्वीकृति सरकार देती है. स्वीकृति देना और न देना सरकार का मामला है, लोकायुक्त केवल सरकार से अनुमति मांग सकता है. मध्य प्रदेश के लोकायुक्त पी पी नावलेकर लोकायुक्त को और ताकतवर बनाने की बात करते हैं. उनका कहना है कि विधायक, मंत्री और अफसरों के ख़िलाफ़ सीधे अभियोेजन का अधिकार मिलना चाहिए. इसके साथ ही वारंट तामील करने और रिकॉर्ड जब्त करने का अधिकार भी लोकायुक्त को होना चाहिए.

लोकायुक्त ने मध्य प्रदेश सरकार के 11 मंत्रियों और कई नौकरशाहों के ख़िलाफ़ जांच की अनुमति के लिए लंबे समय से अर्जी दे रखी है, लेकिन सरकार ने अब तक लोकायुक्त को जांच की अनुमति नहीं दी है.

मध्य प्रदेश में लोकायुक्त और उप-लोकायुक्त क़ानून 1982 में लाया गया था और राज्य सतर्कता आयोग की जगह राज्य में लोकायुक्त की स्थापना की गई थी. लोकायुक्त एक स्थायी एवं स्वायत्त संस्था है, जिस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है. लोकायुक्त अपनी रिपोर्ट राज्यपाल के सामने रखता है, जिसे सरकार के समक्ष विधानसभा के पटल पर रखा जाता है. मध्य प्रदेश देश के ऐसे राज्यों में शामिल है, जहां लोकायुक्त के पास अपनी अलग पुलिस है. यहां मध्य प्रदेश स्पेशल पुलिस स्टेब्लिशमेंट (एसपीई) एक्ट-1947 के अंतर्गत लोकायुक्त पुलिस का गठन किया गया है. लोकायुक्त पुलिस का मुखिया महानिदेशक अथवा अतिरिक्त महानिदेशक स्तर का अधिकारी होता है, जो सीधे लोकायुक्त के आदेश पर काम करता है. उसके सहयोग के लिए एक आईजी, दो डीआईजी, 26 डीएसपी, 41 इंस्पेक्टर और 162 अन्य पुलिस अधिकारी होते हैं. लोकायुक्त में एक तकनीकी सेल भी है, जो मुख्य रूप से तकनीकी मामलों की जांच करता है. इसका प्रमुख चीफ इंजीनियर होता है, जिसके नीचे तीन विभागों जल संसाधन, लोक निर्माण एवं ग्रामीण यांत्रिकी सेवा के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर, 6 असिस्टेंट इंजीनियर और 4 टेक्निकल असिस्टेंट होते हैं. इस क़ानून के अंतर्गत लोकायुक्त पुलिस के अधिकारियों को वही अधिकार दिए गए हैं, जो किसी थाने के एसएचओ को होते हैं. कर्नाटक और मध्य प्रदेश के लोकायुक्त सबसे मजबूत हैं. लोकायुक्त के समक्ष होने वाली कार्रवाई को न्यायिक प्रक्रिया का दर्जा दिया जाता है. लोकायुक्त और उप-लोकायुक्त की कार्रवाई कंटेम्पट ऑफ कोर्ट एक्ट-1971 के दायरे में आती है. लोकायुक्त पांच साल से ज़्यादा पुराने मामलों में शिकायत की जांच नहीं कर सकता. साथ ही वह उन मामलों में भी जांच नहीं कर सकता, जो पब्लिक सर्वेंट इंक्वायरी एक्ट-1950 और जांच आयोग अधिनियम-1952 के दायरे में आते हैं.
व्यापमं घोटाला सामने आने के बाद शिवराज चौहान की सरकार सकते में है. व्यापमं की आग धीरे-धीरे मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग भी पहुंचने लगी है. यदि शिवराज अपने शासन को रामराज जैसा सिद्ध करना चाहते हैं, तो उन्हें अपने मंत्रियों एवं नौकरशाहों की जांच की अनुमति देने में आपत्ति क्यों है? एक कहावत है, सर्राफे का ग़रीब शहर के दूसरे लोगों से भी अमीर होता है. यदि प्रशासन के छोटे से छोटे नुमाइंदे चपरासी, पटवारी और लिपिक करोड़पति हैं, तो प्रदेश के आलाधिकारियों का क्या हाल होगा, इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है. भ्रष्टाचार से कारगर ढंग से निपटने के लिए यह ज़रूरी है कि निगरानी और जांच तंत्र मजबूत हो, जिससे राज्यों में लोकायुक्तों की भूमिका ज़मीनी धरातल पर ज़्यादा मजबूती से पेश आ सके. हालांकि, वर्तमान में जिन राज्यों में जितने भी क़ानूनी अधिकारों के साथ लोकायुक्त काम कर रहे हैं, उनके नतीजे अभी पर्याप्त संतोषजनक नहीं हैं. राज्य सरकार से इजाजत की बंदिश के चलते आला नेताओं और नौकरशाहों के विरुद्ध आय से अधिक संपत्ति की जांच अभी लोकायुक्त नहीं कर सकते. यही वजह है कि मध्य प्रदेश में भी मंत्रियों के ख़िलाफ़ साक्ष्यों के साथ शिकायतें मिलने के बावजूद लोकायुक्त के हाथ बंधे हुए हैं.
फिलहाल देश के 17 राज्यों में लोकायुक्त हैं, जिनमें कुछ की ही प्रभावी भूमिका सामने आ रही है. कर्नाटक को छोड़ दिया जाए, तो ज़्यादातर राज्यों में लोकायुक्त के अधिकार और संसाधन बेहद सीमित हैं. लाचारी की इस स्थिति में उनकी भूमिका महज सिफारिशी होकर रह जाती है. एक सख्त लोकायुक्त से ख़तरा केवल उन राजनेताओं एवं नौकरशाहों को है, जो भ्रष्ट हैं और क़ानून को खिलौना समझते हुए अपने पद का दुरुपयोग करते हैं. कर्नाटक में लोकायुक्त को सबसे ज़्यादा अधिकार प्राप्त हैं. यही वजह है कि वहां अच्छे नतीजे देखने को मिले हैं. वहां के लोकायुक्त रहने के दौरान न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े ने बेल्लारी के अवैध खनन के बारे में विस्तृत रिपोर्ट दी. नतीजतन, मुख्यमंत्री वी एस येदियुरप्पा समेत कई अधिकारियों पर गाज गिरी और उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी. कर्नाटक के इस अनुभव से दूसरे राज्यों को सबक लेने की ज़रूरत है. अधिकतर राज्यों में लोकायुक्त के पास जांच का अपना कोई तंत्र नहीं है. इसके लिए उसे राज्य सरकार की अनुमति लेनी पड़ती है. विडंबना यह भी कि जो आरोपी हैं, उनकी जांच उन्हीं के विभाग के वरिष्ठ अधिकारी करते हैं. ऐसे में निष्पक्ष जांच की उम्मीद कम रहती है. यदि वर्तमान लोकायुक्तों को ही स्वतंत्र जांच का तंत्र, शिकायत मिलने पर बड़े से बड़े आरोपी के विरुद्ध सीधे जांच करने का अधिकार और कुछ अन्य संसाधन दे दिए जाएं, तो कर्नाटक और मध्य प्रदेश लोकायुक्त के क़ानून इतने सख्त हैं कि कद्दावर आरोपी भी उनके चंगुल से बच नहीं सकता.
मध्य प्रदेश में लगातार लोकायुक्त के छापों में कर्मचारियों के पास अथाह संपत्ति का खुलासा होना शिवराज सरकार के लिए अच्छा संकेत नहीं है. शिवराज डंफर कांड में तो बचकर निकल गए थे, लेकिन व्यापमं घोटाले में उनकी साख दांव पर लगी हुई है. यदि शिवराज को खुद को और अपनी सरकार को पाक-साफ़ साबित करना है, तो उन्हें मंत्रियों एवं नौकरशाहों के ख़िलाफ़ जांच की अनुमति लोकायुक्त को देनी चाहिए.

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