DSC_0128मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी और उनके बहाने बिहार की सत्ता के नेपथ्य-नायकों, कुछ बड़े राजनेताओं एवं नौकरशाहों को बधाई! उन्हें अंतत: बिहार की बेटी श्रेयसी सिंह की सुध आई तो!! 29 अगस्त को खेल दिवस के अवसर पर मांझी ने अफ़सोस जाहिर किया कि श्रेयसी सिंह की उपलब्धि के बारे में अफसरों ने उन्हें समय पर नहीं बताया. इसके लिए खेद जाहिर करते हुए मुख्यमंत्री ने बिहार की इस बेटी को बधाई दी और उसे 11 लाख रुपये का पुरस्कार देने की घोषणा की. बांका के तत्कालीन सांसद एवं समाजवादी नेता स्वर्गीय दिग्विजय सिंह और पूर्व सांसद पुतुल कुमारी की पुत्री श्रेयसी ने हाल ही ग्लासगो में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों में शूटिंग की डबल ट्रैप स्पर्द्धा में रजत पदक जीता. इस उपलब्धि के एक महीने बाद उसे अपने राज्य के मुख्यमंत्री की बधाई मिली. राज्य के खेल मंत्री की बधाई भी कोई पखवाड़े भर बाद मिली थी और वह भी तब, जब श्रेयसी ने अपनी उपलब्धि के प्रति राज्य सरकार की उपेक्षा का सरेआम उल्लेख किया और कहा कि बिहार सरकार ने बधाई देने तक की ज़रूरत नहीं समझी. खेल मंत्री विनय बिहारी ने इस बावत अपनी और सरकार की गलती स्वीकारी थी. हालांकि बिहार सरकार के जागने से पहले राज्य के कुछ खेल संगठन एवं अन्य लोग उसका सम्मान कर चुके थे.
श्रेयसी के साथ राज्य सरकार और राजनेताओं का यह सुलूक अप्रत्याशित नहीं है. बिहार के अनेक राजनेता एवं नौकरशाह खेल की राजनीति के माहिर हैं और राष्ट्रीय खेल संघों के पदाधिकारी हैं. वे खेल की राजनीति को अपनी तर्जनी से नचाने का दावा भी करते रहते हैं. इनमें कुछ बिहार की राजनीति के बड़े नाम हैं, तो कुछ राज्य की सत्ता में बड़ी ताकत बने बैठे हैं, लेकिन किसी ने भी श्रेयसी के बारे में कभी कुछ सोचा नहीं. उसे सम्मानित करना तो दूर, उसकी उपलब्धि को नोटिस तक नहीं किया गया. इनमें वे राजनेता एवं नौकरशाह भी शामिल हैं, जो खुद को कभी दिग्विजय सिंह का खास बताते घूमते थे और आज गिद्धौर, जमुई एवं बांका की धरती का प्रतिनिधित्व पटना से लेकर दिल्ली तक कर रहे हैं. लेकिन, किसी ने भी श्रेयसी को शुभकामना देने की ज़रूरत नहीं समझी.
श्रेयसी यदि झारखंड, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्‍चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल या तमिलनाडु की होती, तो इस उपलब्धि के लिए उसे सिर-आंखों पर बैठा लिया जाता. सरकार उसे पूरा सम्मान देती, भविष्य की तैयारी के लिए सारी सुविधाएं उपलब्ध कराई जातीं. उसे केवल मुख्यमंत्री नहीं, समूची सरकार बधाई देती. उन दिनों बिहार विधान मंडल का अधिवेशन चल रहा था, सत्ता और विपक्ष कई मसलों पर मूंछ की लड़ाई लड़ रहे थे. मूंछ की लड़ाई में फंसे राजनेताओं को श्रेयसी की उपलब्धि दिखी ही नहीं. क्या अन्य राज्यों में ऐसा ही होता? विभाजित बिहार के खेल इतिहास का यह पहला मौक़ा है, जब सूबे की किसी संतान ने इसे ऐसी पहचान दी, लेकिन क्या सत्ताधारी, क्या उनके सहयोगी दल, क्या विपक्ष और क्या निर्दल, सभी एक जैसे निकले. नीतीश कुमार पिछले आठ सालों से (जबसे बिहार में उनकी सत्ता है) बिहारी अस्मिता जगा रहे हैं, बिहारीपन की भावना विकसित कर रहे हैं और बिहार गौरव को साकार करने के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहते. उनके इस बिहारवाद को राज्य के सार्वजनिक जीवन में सकारात्मकता की शुरुआत के तौर पर लिया गया. मौजूदा मुख्य सचिव अंजनी कुमार सिंह, खेल, युवा कार्य एवं कला-संस्कृति विभाग के सचिव चंचल कुमार, सूचना जनसंपर्क विभाग के प्रधान सचिव प्रत्यय अमृत जैसे कई अधिकारी बिहार की नौकरशाही का नेतृत्व कर रहे हैं. ये और ऐसे कई लोग नीतीश कुमार के बिहारवाद के स्क्रिप्ट राइटर रहे. क्या इनमें से किसी को श्रेयसी की उपलब्धि नहीं दिखी? यह और भी विस्मयकारी है कि नीतीश कुमार के सत्ताधारी जनता दल (यू) के, संपूर्ण व्यवहारिक अर्थों में, सबसे बड़े नेता रहते ऐसा हुआ. क्या उन्हें भी अपना बिहारवाद याद नहीं रहा?
बिहार की अस्मिता जगाने या बिहारवाद का गौरव बोध विकसित करने के नाम पर सूबे में और बाहर ऊंचे-ऊंचे हवाई महल खड़े किए जा रहे हैं. बिहार से बाहर रहने वाले बिहारियों-ग़ैर बिहारियों को यह खूब आकर्षित करता है, लेकिन हकीकत बताने के लिए खेल दिवस समारोह में खेल मंत्री विनय बिहारी द्वारा दिए गए भाषण का उल्लेख ज़रूरी है. उन्होंने कहा कि राज्य में खेलों की स्थिति दयनीय है. ज़िलों में स्थित स्टेडियम तालाब बन गए हैं और मेडलिस्ट जीविका के लिए रिक्शा चला रहे हैं. गांवों में खेल की हालत सुधारने के लिए केंद्र सरकार की योजना पायका राज्य में विगत चार सालों से स्थगित है, क्योंकि उसके खर्च का हिसाब भेजने में अधिकारी आनाकानी कर रहे हैं. खिलाड़ियों को सरकार ने नौकरी देने का निर्णय किया है, लेकिन अधिकारियों की मनमानी के चलते दिक्कत हो रही है. इस मसले पर बात करने के लिए मंत्री राज्य के प्रधान सचिव से समय मांग रहे हैं, लेकिन प्रधान सचिव के पास समय नहीं है. यह विनय बिहारी के भाषण का अंश है, इसमें कितना सही है, कितनी राजनीति है, यह तो वही बता सकते हैं.
स़िर्फ खेल नहीं, बल्कि हर उस क्षेत्र में यही हाल है, जिससे वोट की राजनीति को ताकत नहीं मिलती. बिहार में दशकों से हिंदी एवं अहिंदी भाषी हिंदी साहित्यकारों को सम्मानित करने का कार्यक्रम चल रहा है. राजेंद्र प्रसाद शिखर सम्मान और राजेंद्र माथुर पत्रकारिता सम्मान की बड़ी प्रतिष्ठा रही है, लेकिन अब इन सम्मानों का क्या हाल है, बताना बड़ा कठिन है. सरकार ने कमेटियां बना दी हैं, पर पिछले कई वर्षों से इसकी प्रक्रिया चल रही है. राजभाषा विभाग या बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के प्रतिष्ठित पुरस्कारों की बात कौन करे! सांस्कृतिक धरोहरों या विरासतों के संरक्षण की बात करना तो और भी बेमानी है. विश्‍व प्रसिद्ध लेखक जॉर्ज ऑरवेल के मोतिहारी स्थित जन्मस्थल को विकसित करने का काम आरंभ करने की घोषणा की गई है. जब अभिनव जयदेव, विद्यापति, भिखारी ठाकुर आदि की जन्मस्थली का संरक्षण-संवर्द्धन हमारी सत्ता नहीं कर सकती, तो शिवपूजन सहाय, रामधारी सिंह दिनकर, नागार्जुन, अनूप लाल मंडल एवं गोपाल सिंह नेपाली के गांवों को विकसित करने के बारे में सोचना बेमानी है. कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी का गांव ही नहीं, घर और समाधि स्थल को भी अख़बारों के प्रयास के बावजूद नहीं बचाया गया. एनडीए सरकार ने उसे बागमती में डूब जाने दिया. वस्तुत: बिहार में राज्य की खेल नीति-संस्कृति नीति का अर्थ होता है, सत्ता पर काबिज राजनीति की खेल नीति-संस्कृति नीति. और, इसकी परिभाषा के दायरे में बहुत कुछ नहीं आता है, श्रेयसी सिंह भी शायद नहीं आती है.

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