एक कहावत है, अंत भला तो सब भला. लेकिन देश की प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्था दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के कुलपति के लिए मानो यह कहावत झूठी साबित होने जा रही है. अपने पांच वर्षीय कार्यकाल के अंतिम वर्ष में डीयू के कुलपति दीपक पेंटल अपनी नियुक्ति से जुड़े विवाद में फंस गए हैं. कुलपति पर उक्त आरोप कहीं बाहर से नहीं, बल्कि विश्वविद्यालय की ही एकेडमिक काउंसिल की तऱफ से लगाए जा रहे हैं और बाक़ायदा इसके काग़जी सबूत भी इकट्ठा कर लिए गए हैं. चौथी दुनिया के पास वे सभी दस्ताव़ेज मौजूद हैं, जिनके आधार पर कहा जा रहा है कि 2005 में दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नियमों की अनदेखी की और अपने चहेते दीपक पेंटल को कुलपति बनवा दिया.
इस प्रकरण का सबसे अहम तथ्य यह है कि दीपक पेंटल की नियुक्ति विजिटर के हस्ताक्षर बिना हुई है. डीयू एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है और इसके विजिटर होते हैं राष्ट्रपति. डीयू एक्ट 1922 के मुताबिक़, कुलपति की नियुक्ति विजिटर करते हैं. दीपक पेंटल की नियुक्ति से संबंधित पूरी फाइल की जांच के दौरान ऐसा कोई पत्र नहीं मिला, जिससे यह साबित हो सके कि उन्हें कुलपति नियुक्त करने के लिए विजिटर ने अपने हस्ताक्षर से कोई आदेश जारी किया हो. अलबत्ता, तत्कालीन राष्ट्रपति  के सचिव पी एम नायर ने ज़रूर अपना हस्ताक्षर किया हुआ एक पत्र 30 अगस्त 2005 को मानव संसाधन मंत्रालय को भेजकर पेंटल की कुलपति पद पर नियुक्ति की सूचना दी थी. हालांकि ग़ौर से देखने पर पता चलता है कि यह पत्र अनाधिकारिक (अन-ऑफिसियल) तौर पर लिखा गया था. मज़े की बात यह है कि इसी पत्र के आधार पर एक सितंबर को मानव संसाधन मंत्रालय के अवर सचिव एस एस महलावत पेंटल की नियुक्ति की सूचना डीयू रजिस्ट्रार को देते हैं, एक सितंबर को ही रजिस्ट्रार नियुक्ति से संबंधित अधिसूचना भी जारी करते हैं और पेंटल इसी दिन अपना पदभार भी संभाल लेते हैं. यानी यह सब कुछ चट मंगनी, पट ब्याह की तर्ज़ पर होता गया. मज़े की बात यह है कि इस नियुक्ति की सूचना दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलाधिपति और सर्वेसर्वा, जो कि उप राष्ट्रपति होते हैं, को भी आधिकारिक तौर पर नहीं दी गई. पेंटल ने पदभार ग्रहण करते व़क्त स़िर्फ एक पत्र रजिस्ट्रार के नाम से यह अनुरोध करते हुए भेजा कि इसे अधिसूचित कर दिया जाए.

पेंटल की नियुक्ति मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आईएएस अधिकारियों की मिलीभगत से हुई है. महामहिम राष्ट्रपति को इस पूरे मामले की जांच करवानी चाहिए.
डॉ. धनीराम
प्रोफेसर एवं सदस्य डीयू एकेडमिक काउंसिल

शैक्षणिक सुधार और  शिक्षा में उच्च गुणवत्ता के लिए परम आवश्यक है कि संस्थाओं में अध्यक्षों और कुलपतियों की नियुक्ति में पूर्ण पारदर्शिता बरती जाए और इसे किसी भी तरह के राजनीतिक हस्तक्षेप से अलग रखा जाए.
जगमोहन सिंह राजपूत
एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक एवं शिक्षाविद्‌

ग़ौरतलब है कि डीयू एक्ट की धारा 11-एफ के मुताबिक़, कुलपति की नियुक्ति विजिटर द्वारा की जाती है. विजिटर एक कमेटी का गठन करते हैं, जिसमें तीन सदस्य होते हैं और इन्हीं तीनों में से किसी एक को कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त किया जाता है. यह कमेटी कुलपति पद के लिए आए आवेदनों में से नामों का चयन करती है और विजिटर के पास अंतिम निर्णय के लिए भेजती है. 2005 में डीयू में कुलपति की नियुक्ति के लिए भी ऐसी ही एक कमेटी का गठन किया गया. रोमिला थापर एवं डॉ. आबिद हुसैन सदस्य बनाए गए और अध्यक्ष पद पर नियुक्त हुए पूर्व न्यायाधीश पी एन भगवती. विजिटर द्वारा कुलपति नियुक्त किए जाने का मतलब यह है कि कमेटी जिन नामों को भेजेगी, उनमें से किसी एक नाम पर विजिटर अपनी मुहर लगाएंगे. ज़ाहिर है, नियुक्ति के लिए जारी पत्र या किसी आदेश पर कहीं न कहीं विजिटर के हस्ताक्षर भी होंगे, लेकिन इस मामले में तो कुलपति की नियुक्ति एक आईएएस अधिकारी के हस्ताक्षर से ही हो गई. चौथी दुनिया ने इस मामले की तफ़्तीश के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय की एकेडमिक काउंसिल के सदस्य एवं रामजस कॉलेज के प्रोफेसर धनीराम से बातचीत की. उनका कहना था कि यह सब मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आईएएस अधिकारियों की मिलीभगत से हुआ है. प्रो. धनीराम राष्ट्रपति से इस पूरे मामले की जांच कराने की मांग भी करते हैं. वह बताते हैं कि एकेडमिक काउंसिल की बैठकमें जब उन्होंने इस मुद्दे को उठाया तो कुलपति कुछ भी बोलने को तैयार नहीं हुए.
दरअसल 2005 में जब डीयू के कुलपति की नियुक्ति की जानी थी, तभी से यह पूरा मामला संदेह के घेरे में आता चला गया. चौथी दुनिया के पास कुलपति की नियुक्ति से जुड़े सभी दस्तावेज़ मौजूद हैं. इन दस्तावेज़ों से यह सा़फ पता चलता है कि कैसे कुछ आवेदकों (कुलपति पद के लिए) को लेकर चयन समिति और उसके अध्यक्ष के मन में दुराग्रह था. इसकी एक मिसाल हैं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर दीपांकर गुप्ता. प्रोफेसर गुप्ता का नाम भी कुलपति पद की दौड़ में था,  लेकिन उनके नाम पर विचार नहीं किया गया, क्योंकि चयन समिति के अध्यक्ष पी एन भगवती का मानना था कि प्रोफेसर गुप्ता ने एक पत्रिका में छपे अपने लेख में कुछ राजनीतिक हस्तियों के खिला़फ आपत्तिजनक टिप्पणियां की थीं. अब यह समझना ज़्यादा मुश्किल नहीं होना चाहिए कि यूपीए के शासनकाल में ऐसी किस राजनीतिक हस्ती के बारे में टिप्पणी करना किसी के लिए महंगा सौदा साबित हो सकता है. जबकि दीपांकर गुप्ता का नाम खुद डीयू के तत्कालीन कुलपति दीपक नैय्यर ने ही प्रस्तावित किया था. चयन समिति के इस रवैये से इतना तो सा़फ हो जाता है कि देश की महत्वपूर्ण शैक्षणिक संस्थाओं में ऊंचे पदों पर नियुक्ति के मामलों में राजनीतिक हस्तक्षेप महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक एवं प्रख्यात शिक्षाविद्‌ जगमोहन सिंह राजपूत कहते हैं कि शैक्षणिक सुधार और शिक्षा में उच्च गुणवत्ता के लिए परम आवश्यक है कि संस्थाओं में अध्यक्षों और कुलपतियों की नियुक्ति में पूर्ण पारदर्शिता बरती जाए और इसे किसी भी तरह के राजनीतिक हस्तक्षेप से अलग रखा जाए. यहां यह बताना ज़रूरी है कि शिक्षा के क्षेत्र में 37 वर्षों का लंबा अनुभव रखने वाले जगमोहन सिंह राजपूत का नाम भी दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति पद के लिए किसी अन्य व्यक्ति ने प्रस्तावित किया था, लेकिन उनके नाम पर भी विचार नहीं हुआ था. हालांकि उनका कहना है कि उन्हें अपने नाम के बारे में कोई जानकारी नहीं थी.
मंत्रालय के पास शुरुआत में कुलपति पद के लिए कुल 33 नाम उपलब्ध थे. एक से बढ़कर एक दिग्गज़. 39 वर्षों तक के अनुभव वाले लोग इसमें शामिल थे. हैरानी की बात यह है कि इस प्रारंभिक सूची में दीपक पेंटल का नाम नहीं था, लेकिन बाद में जिन चार लोगों के नाम पर चयन समिति ने विचार किया, उनमें एक नाम पेंटल का भी था. अन्य लोगों में भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएस, बंगलुरू) के पी बलराम, अजय सूद और डीयू की ही नीरा चंडोक आदि शामिल थे. जब इन चार नामों को राष्ट्रपति के पास विचारार्थ भेजा गया तो राष्ट्रपति सचिवालय ने कहा कि चूंकि अजय सूद  इस पद के लिए खुद दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं और पी बलराम को आईआईएस, बंगलुरू का निदेशक बना दिया गया है, ऐसे में हमारे पास अब स़िर्फ दो ही विकल्प बचते हैं, इसलिए दो और नाम विचारार्थ भेजे जाएं. लेकिन चयन समिति ने बाद में दो के बजाय स़िर्फ एक ही नाम और भेजा. दीपांकर गुप्ता के नाम पर चर्चा ही नहीं की गई, क्योंकि चयन समिति के अध्यक्ष को दीपांकर का वह लेख पसंद नहीं आया था, जिसमें उन्होंने किसी भारतीय राजनेता के बारे में टिप्पणी की थी. इस बारे में चयन समिति का मानना था कि किसी भी विवादास्पद व्यक्तिको डीयू का कुलपति नहीं बनना चाहिए. ज़ाहिर है, चयन समिति की इस सोच से यह तो पता चल ही जाता है कि 2005 में दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर हुई नियुक्तिके पीछे भी कहीं न कहीं राजनीतिक हस्तक्षेप, दबाव या प्रभाव ज़रूर काम कर रहा था. बहरहाल, धुंआ वहीं उठता है, जहां आग होती है. इसलिए अगर एकेडमिक काउंसिल के सदस्य डीयू के कुलपति दीपक पेंटल की नियुक्तिपर सवाल उठा रहे हैं तो बाक़ायदा इसकी जांच कराई जानी चाहिए, ताकि सच लोगों के सामने आ सके.

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