जोशी ने केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी की अंतर्देशीय जलमार्ग परियोजना पर भी तीखा कटाक्ष किया. उन्होंने कहा, गंगा में जहाज चलाना तो दूर, बड़ी नाव भी नहीं चल पाएगी, जबकि गडकरी कह रहे हैं कि भारी उत्पादों की ढुलाई के लिए गंगा नदी में बड़े-बड़े पोत चलाएंगे. उन्हें गंगा की मौजूदा स्थिति का तो पता लगा लेना चाहिए. जोशी का आशय नदियों की हालत और उसकी भौगोलिक स्थिति को लेकर जहाजरानी मंत्रालय के सामान्य ज्ञान से था. जिन पंडित महामना मदन मोहन मालवीय को भारत रत्न देकर भाजपाई अघाते नहीं, उन्हीं महामना की उपेक्षा करने का जोशी ने आरोप लगाया. कहा कि महामना ने नदी में जल प्रवाह कायम रखने के लिए अंग्रेजों से संघर्ष किया था और हरिद्वार में गंगा नदी में सतत प्रवाह का न्यूनतम स्तर कायम रखने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य कर दिया था. इसका अंग्रेजों के शासनकाल तक पालन होता रहा, लेकिन अब इसकी घोर उपेक्षा की जा रही है.

modiकेंद्र में भाजपा की सरकार कहने से अधिक सटीक और प्रासंगिक नरेंद्र मोदी की सरकार कहना होता है, जिसके एक साल पूरा होने पर सरकार, मंत्री और नेता ले नहीं समा रहे. मथुरा में मोदी की रैली से लेकर तमाम आयोजनों-प्रायोजनों के जरिए सालभर का गुणगान जबरन परोसा जा रहा है, लेकिन इस बात पर चुप्पी सधी हुई है कि सालभर बीतते-बीतते नरेंद्र मोदी के खिर्लों विरोध के स्वर मुखर क्यों होने लगे. विरोध के स्वर डॉ. मुरली मनोहर जोशी के गंगा सफाई को लेकर हों या राम मंदिर निर्माण के मसले पर विनय कटियार के हों या किसी अन्य मुद्दे पर किसी अन्य नेताओं के, विरोध का निशाना नरेंद्र मोदी ही हैं, जिनकी अधिनायकी पर राजनीतिकों की सालभर की चुप्पी बहुत है. विनय कटियार ने यहां तक कह दिया कि चंद्रशेखर कुछ और दिन प्रधानमंत्री रह गए होते तो राम मंदिर बन चुका होता. बहरहाल, केंद्र सरकार के एक वर्ष पूरा होने पर मथुरा के नगला चन्द्रभान में आयोजित रैली में मोदी ने अपनी सरकार का सालभर का हिसाब-किताब पेश करने की कोशिश की, लेकिन यह लेखा-जोखा जनता को उतना प्रभावित नहीं कर पाया. मोदी ने अपने कार्यों का जो हिसाब दिया, उस पर जनता ने उन्हें पूरा नम्बर नहीं दिया. विपक्षी पार्टियां तो उन्हें जीरो नम्बर दे ही रही हैं. यह भी अहम है कि विपक्ष के मूल्यांकन से आम जनता असहमत ही है. मोदी के एक साल के कार्यकाल की समीक्षा करते वक्त विपक्षी पार्टियां यह ईमानदारी से नहीं सोच पा रही हैं कि जब वे सत्ता में थीं तो उन्होंने सालभर में क्या किया था और एक साल में विकास के कितने कीर्तिमान स्थापित किए थे. उंगली उठाने की तेज हुए सियासी प्रतिस्पर्धा का दिलचस्प पहलू यह है कि विपक्ष अपनी सरकार के एक वर्ष वाले पहलू पर भूल से भी बात नहीं कर रहा.

खैर, भाजपा संसदीय दल में उठने वाली विरोध की आवाजें, भविष्य के संकेत देने लगी हैं. सांसदों का यह असंतोष सांसद निधि के प्रति उपेक्षा से भी जाहिर हो रहा है. यह तथ्य प्रकाश में आ चुका है कि खास तौर पर भारतीय जनता पार्टी के सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्रों में अपनी ही सांसद-निधि का इस्तेमाल करने में कोई रुचि नहीं दिखा रहे. यह अरुचि बड़े मामले से लेकर अत्यंत छोटे मामले तक प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप को लेकर है. कई सांसदों का कहना है कि भ्रष्टाचार पर नजर रखने के लिए प्रधानमंत्री की अतिरिक्त संलग्नता एक नकारात्मक माहौल भी पैदा कर रही है. सांसदों में संदेश यह जा रहा है कि जब सारे सांसदों को संदेहास्पद मानकर उन पर निगरानी रखी जा रही है, तो वे काम में दिलचस्पी क्यों लें. फिर ईमानदारी का पूरा पदक वही लोग लें, जो सत्ता केंद्र के नजदीक हैं. राजनीति के विशेषज्ञों का मानना है कि किसी भी राजनीतिक दल के लिए यह दशा चिंताजनक होती है, क्योंकि एक ईमानदार और बाकी सब बेईमान, वाली आत्मकेंद्रित विचारधारा संगठन को मुख्य धारा से वंचित कर देती है. कुछ यही दशा भारतीय जनता पार्टी की हो रही है.

लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, लालजी टंडन जैसे कई अन्य वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं की सोची-समझी उपेक्षा नरेंद्र मोदी के लिए शीघ्र ही भारी पड़ने वाली है. यह मोदी को समझ में नहीं आ रहा है और उनके सिपहसालार उन्हें यह समझने भी नहीं दे रहे हैं. गंगा की सफाई और नमामि गंगे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के केंद्रीय एजेंडे के रूप में प्रचारित है. इस पर प्रहार का मतलब ही है नरेंद्र मोदी पर प्रहार. राजनीतिक अनुभव के धनी बुद्धिजीवी मुरली मनोहर जोशी ने गंगा की सफाई के मसले पर जमीनी स्थिति को देखते हुए जब यह कहा कि गंगा अगले 50 साल में भी र्सों नहीं हो सकेगी, ने भाजपा की अंदरूनी सियासत में भूचाल मचा दिया है. ऊपर-ऊपर जो शांति दिख रही है, वह तूफान के आने के पहले वाला सन्नाटा है. स्वच्छ गंगा परियोजना पर जोशी ने अपनी धारदार आपत्ति दर्ज की. जोशी ने एक तरह से भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार के महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम नमामि गंगे पर अलग रुख अख्तियार करने की सार्वजनिक अभिव्यक्ति दी और स्पष्ट कहा कि गंगा नदी की सफाई के लिए जिस तरह से परियोजना चलाई जा रही है, उससे अगले 50 साल में भी नदी र्सों नहीं हो सकेगी. उन्होंने कहा, जब तक नदी में निर्बाध जल प्रवाह नहीं होता, गंगा की सफाई दूर का सपना होगा. जिस तरह नदी को छोटे हिस्सों में बांटकर, छोटे जलाशयों में बदलकर इसकी सफाई की जा रही है, नदी अगले 50 साल में भी साफ़ नहीं हो सकती. उन्होंने कहा कि गंगा हमारी जीवनरेखा है और गंगा पर मंडराया कोई खतरा हमारी संस्कृति और परंपरा के लिए खतरनाक होगा.

जोशी ने केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी की अंतर्देशीय जलमार्ग परियोजना पर भी तीखा कटाक्ष किया. उन्होंने कहा, गंगा में जहाज चलाना तो दूर, बड़ी नाव भी नहीं चल पाएगी, जबकि गडकरी कह रहे हैं कि भारी उत्पादों की ढुलाई के लिए गंगा नदी में बड़े-बड़े पोत चलाएंगे. उन्हें गंगा की मौजूदा स्थिति का तो पता लगा लेना चाहिए. जोशी का आशय नदियों की हालत और उसकी भौगोलिक स्थिति को लेकर जहाजरानी मंत्रालय के सामान्य ज्ञान से था. जिन पंडित महामना मदन मोहन मालवीय को भारत रत्न देकर भाजपाई अघाते नहीं, उन्हीं महामना की उपेक्षा करने का जोशी ने आरोप लगाया. कहा कि महामना ने नदी में जल प्रवाह कायम रखने के लिए अंग्रेजों से संघर्ष किया था और हरिद्वार में गंगा नदी में सतत प्रवाह का न्यूनतम स्तर कायम रखने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य कर दिया था. इसका अंग्रेजों के शासनकाल तक पालन होता रहा, लेकिन अब इसकी घोर उपेक्षा की जा रही है. सियासत में रोचक मोड़ तब आ गया, जब द्वारिका और ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती भी मुरली मनोहर जोशी के समर्थन में आगे आ गए. शंकराचार्य ने कहा कि गंगा सफाई को लेकर मुरली मनोहर जोशी ने जो साहसिक कदम उठाए, वह बिल्कुल सही और सराहनीय है. सरस्वती ने कहा कि गंगा नदी को उत्तराखंड से लेकर बनारस तक कई जगह बांध दिया गया है, जिससे गंगा में अब जल ही नहीं रह गया तो ऐसी स्थिति में जहाज कहां से चलेंगे. उन्होंने कहा कि नदी की शुद्धि उसके वेग से होती है, जब उसके जल में वेग ही नहीं होगा तो उसके जल की शुद्धि कहां से होगी. भाजपा के कई मौजूदा प्रभावशाली नेता डॉ. मुरली मनोहर जोशी के बयान का राजनीतिक गुणा-गणित समझने में लगे हैं. मोदी के खिर्लों चूं नहीं निकालने का जो र्खौें सालभर बरपा था, वह लीक होने लगा है, अब उसकी हवा निकलना शुरू हो गई है. अभी तो मोदी-परिधि के नेता भाजपा नेता व सांसद विनय कटियार के नीतिगत हमले के ही राजनीतिक निहितार्थ समझने में लगे थे कि जोशी मसला सामने आ गया. इसके पहले पूर्वोत्तर के भाजपा नेता के सीधे प्रहार और उत्तर प्रदेश के भाजपा सांसद के पत्र से वे बौखलाहट से भरे पड़े थे.

राम मंदिर को लेकर विनय कटियार का बयान तब आया, जब केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने अयोध्या जाकर पार्टी की विवशता जाहिर कर दी. राजनाथ सिंह ने स्पष्ट कह दिया था कि राम मंदिर का मसला तभी उठेगा, जब राज्यसभा में भी बहुमत होगा. यानी पांच साल के अगले पांच साल का सियासी एजेंडा फिट करने की राजनाथ ने कोशिश की. विनय कटियार ने इसे धो डाला. कटियार ने कहा कि भाजपा सरकार राम मंदिर बनाने का कानून लोकसभा में लाए, जहां उसे बहुमत प्राप्त है. इससे जनता के पास यह स्थिति र्सों होगी कि भाजपा सरकार की मंशा में कोई खोट या सियासत नहीं है. कटियार बोले कि लोकसभा में तो हमारा बहुमत है ही. हम लोकसभा में पारित करें. कानून बनाएं. राज्यसभा में नहीं है, तो देखेंगे और फिर संयुक्त सत्र बुलाकर हम कानून बना ही सकते हैं.

विनय कटियार का कहना था कि राम मंदिर निर्माण की पहल करने में केंद्र सरकार के सामने कोई संवैधानिक अड़चन नहीं है. इस मामले में मौजूदा केंद्र सरकार का रास्ता पूर्व की संप्रग सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में दाखिल शपथ पत्र ही खोल दे रहा है. शपथ पत्र में संप्रग सरकार ने कहा था कि यदि साबित हो जाए कि बाबरी मस्जिद का निर्माण किसी ढांचे को तोड़कर हुआ था, तो वह हिंदुओं की मांग का समर्थन करते हुए मंदिर निर्माण में सहयोग करेगी. कटियार ने कहा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले से स्पष्ट हो चुका है कि वहां पहले मंदिर था और आर्कियॉलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (एएसआई) की रिपोर्ट से भी यह तथ्य प्रमाणित हो चुका है. इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के आधार पर लोकसभा में कानून पास करने का ये अच्छा वक्त है. केंद्र सरकार के सामने मंदिर निर्माण की दिशा में सहयोग को लेकर कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए. कटियार ने कहा कि मंदिर निर्माण की उपेक्षा ठीक नहीं है और इससे जन भावनाएं आहत हो रही हैं. कटियार यह भी कह चुके हैं कि मंदिर निर्माण में देरी से रामभक्तों का गुस्सा ज्वालामुखी की तरह फट सकता है.

विनय कटियार ने सुझाव दिया कि मंदिर निर्माण का कानून बनाने के लिए भूमि अधिग्रहण बिल की तरह केंद्र सरकार लोकसभा में प्रस्ताव पेश करके इसे पारित कराने का प्रयास करे. कटियार ने कहा कि राम मंदिर निर्माण के लिए सरकार का प्रयास सबका साथ, सबका विकास के ही अनुरूप होगा. उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री के रूप में चंद्रशेखर व अटल विहारी वाजपेयी ने इस विवाद में बातचीत के जरिये समाधान की दिशा में ठोस पहल की थी, लेकिन समय कम होने के कारण दोनों नेताओं की इस दिशा आगे कुछ नहीं हो सका. यह महज एक संयोग नहीं माना जाना चाहिए कि विनय कटियार के बयान पर भी स्वरूपानंद सरस्वती ने अपनी प्रतिक्रिया दी थी और कहा था कि राममंदिर निर्माण को संसद में बहुमत की नहीं, बल्कि इच्छाशक्ति की आवश्यकता है. भाजपा राज्यसभा में बहुमत न होने की बात उठाकर इस मामले में देश की जनता को भ्रमित कर रही है. उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार 1990 में ही राममंदिर समेत आसपास की 65 बीघा जमीन का अधिग्रहण कर चुकी है. कोर्ट में सरकार के इस फैसले को न तो किसी ने अब तक कोई चुनौती दी है और न ही कोर्ट ने ही इस पर कोई सवाल उठाया है. ऐसे में सरकार को अपनी जमीन पर मंदिर निर्माण के लिए किसी इजाजत की कोई जरूरत ही नहीं है. सदन में बहुमत की बात बेवजह की जा रही है. शंकराचार्य ने कहा कि कारसेवकों का 1990 में ढांचा गिराना बड़ी गलती थी, क्योंकि विवादित ढांचा मस्जिद नहीं थी. ऐसा करके कारसेवकों ने मुस्लिम समुदाय को यह कहने का मौका दिया कि वहां मस्जिद थी. विनय कटियार ने यह कह कर भी भाजपा नेताओं को बौखलाया है कि चंद्रशेखर यदि एक महीना और प्रधानमंत्री रह गए होते तो राममंदिर बन जाता. कटियार ने कहा कि चंद्रशेखर जी चार महीने भारत के प्रधानमंत्री रहे और यह समस्या समाधान के नजदीक पहुंच गई थी. अगर वह एक महीने और प्रधानमंत्री रहते तो राममंदिर बन गया होता. उन्होंने कहा, जहां तक मोदी सरकार का सवाल है, एक साल बीत गया है पर अभी तक कोई कदम नहीं उठा है, नहीं उठाया गया है.


सुलग रहा विद्रोह
अभी कुछ ही अर्सा पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उनके प्रिय अमित शाह के खिर्लों असम के भाजपा नेता प्रद्युत बोरा का विद्रोह सुर्खियों में रहा था. बोरा ने इन दोनों पर पार्टी के लोकतांत्रिक ढर्रे को तबाह करने का खुला आरोप लगाया और इर्स्तीेंा दे दिया. यह मोदी अधिनायकवाद के खिर्लों पहला विद्रोह था. बोरा ने कहा था कि भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व की प्राथमिकताओं में असम के लोगों के सरोकार सबसे निचले पायदान पर हैं. बोरा ने लिखा कि पार्टी ने असम से बांग्लादेशियों को बाहर करने का वादा किया था, लेकिन आज क्या हुआ? तब बोरा ने भी यह सोचा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उल्टा बांग्लादेश की सद्भावना यात्रा पर चले जाएंगे और अपने सवा सौ गांव देकर और 50 गांव लेकर ऐतिहासिक समझौता कर आएंगे. बोरा ने तब विदेश सचिव को अपमानजनक तरीके से हटाए जाने पर विरोध जताया था और मोदी के इस रवैयै पर गहरा खेद जताया था कि कोई कैबिनेट मंत्री अपना ओएसडी तक तैनात नहीं कर सकता. क्या इस देश में कोई कैबिनेट सिस्टम अस्तित्व में रह गया है? यह शर्मनाक स्थिति है कि कोई कैबिनेट मंत्री, पार्टी का राष्ट्रीय पदाधिकारी और सांसद मोदी से इन मसलों पर सवाल पूछने की हिम्मत नहीं कर सकता.
अभी हाल ही पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता अरुण शौरी ने प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों पर तीखे सवाल उठाए थे और मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा किया था. उसके बाद पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के जालौन से भाजपा सांसद भानु प्रताप वर्मा के विद्रोह पत्र ने बवाल मचा दिया. हालांकि बाद में वर्मा ने कहा कि उस पत्र पर उनके हस्ताक्षर नहीं हैं, लेकिन तब तक मुद्दा तो तीर की तरह निकल ही चुका था. सांसद के उस पत्र में भाजपा को चार गुजरातियों के हाथों का खिलौना बताया गया और कहा गया कि पार्टी में अपनापन का भाव समाप्त करके कॉरपोरेट संस्कृति अपनाई जा रही है. मोदी के आतंक का संकेत देते हुए कहा कि कांग्रेस में केवल एक मनमोहन हैं, पर भाजपा नेतृत्व ने तो हम सबको मौन-मोहन बना रखा है. क्या पार्टी और देश को केवल चार गुजराती (मोदी, शाह, अंबानी और अदाणी) चलाएंगे? कश्मीर मामले पर भी मोदी की कड़ी आलोचना की गई है. सांसद वर्मा ने आधिकारिक तौर पर इस पत्र को स्वीकार नहीं किया, लेकिन पार्टी में जो हालात हैं, पत्र उन्हीं स्थितियों का खुलासा कर रहा है. पार्टी के कई नेताओं का दर्द यही है, लेकिन वे चुप हैं. प्रदेश की राजनीति में अग्रिम पंक्ति में रहे लालजी टंडन, विनय कटियार, सूर्य प्रताप शाही, ओमप्रकाश सिंह और हृदय नारायण दीक्षित जैसे नेताओं को हाशिए पर धकेल दिया गया है. पार्टी के फायर ब्रांड युवा चेहरे के तौर पर चमके वरुण गांधी को भी परिदृश्य से गायब कर दिया गया है.
उत्तर प्रदेश पर बाहर से टपकाए गए नेता कोई असर नहीं बना पा रहे. पार्टी महासचिव और प्रदेश के प्रभारी बनाए गए ओम माथुर भी भाजपा की दुर्गति के ही गवाह बन रहे हैं. लोकसभा चुनाव में जीत का सेहरा अकेले अमित शाह के सिर बांधने से वे कार्यकर्ता भी ज्वालामुखी बने बैठे हैं, जिन्होंने जमीनी स्तर पर पूरे उत्साह से काम किया, लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला. अब वे फटने के लिए तैयार बैठे हैं.
लब्बोलुबाव यह है कि भाजपा का आत्मसमीक्षा का भाव तिरोहित हो गया है और इसी वजह से दिल्ली के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के सारे उपचुनाव में भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा. बिहार भी चुनौती की तरह सामने खड़ा है। बिहार चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश का ही चुनाव होना है. भाजपा के लिए यह संक्रमण काल है. पार्टी के अंदर बढ़ रही वैमनष्यता, अलगाव, निराशा और भाजपा सांसदों का रवैया पार्टी के लिए बेहद चिंताजनक परिस्थितियां पैदा कर रहा है.

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