चौथी दुनिया ने वर्ष 2013 में जामिया हमदर्द में चल रहे भ्रष्टाचार और ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियों को उजागर करते हुए तत्कालीन यूपीए सरकार का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया था, लेकिन किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया. ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियों की वजह से जामिया हमदर्द आज एक अवैध यूनिवर्सिटी बनकर रह गई है. छात्रों का भविष्य दांव पर लगा हुआ है. यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार के ऊपर शारीरिक उत्पीड़न का मुक़दमा चल रहा है. कुलपति ने यूजीसी और शिक्षा विभाग के नियम-सिद्धांतों को ठेंगा दिखाते हुए अपनी नियुक्ति खुद कर ली है. यूनिवर्सिटी की ज़मीन अवैध तरीक़े से बेचने की कोशिश की जा रही है. मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने यहां एमबीबीएस कोर्स में दाख़िले पर पाबंदी लगा दी है. यूजीसी ने हमदर्द के रिसर्च स्कॉलर्स को दी जाने वाली सभी फैलोशिप बंद कर दी हैं. आ़िखर क्या है पूरी कहानी, पढ़िए चौथी दुनिया की इस विशेष रिपोर्ट में…

jamiaविश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) में संयुक्त सचिव के पद पर नियुक्त रेनु बत्रा ने जामिया हमदर्द के कुलपति डॉ. जीएन क़ाज़ी को नौ सितंबर, 2009 को एक पत्र लिखा. इस पत्र द्वारा रेनु बत्रा ने जीएन क़ाज़ी को सूचना दी कि यूजीसी ने आपकी यूनिवर्सिटी में अल्पसंख्यक, एससी-एसटी महिलाओं को विभिन्न सरकारी नौकरियों के लिए तैयार करने के उद्देश्य से रेजिडेंशियल कोचिंग एकेडमी स्थापित करने को अपनी स्वीकृति दे दी है, जिसके लिए सरकार की ओर से कुल 13 करोड़ 95 लाख 38 हज़ार रुपये दिए जाएंगे. छह करोड़ 97 लाख 69 हज़ार रुपये की पहली किस्त जामिया हमदर्द को 15 सितंबर, 2009 को जारी भी कर दी गई, जिसका चेक नंबर था 561029. लेकिन, आज पांच साल बाद भी कोचिंग एकेडमी की वह बिल्डिंग कहीं नज़र नहीं आ रही है. क़रीब सात करोड़ रुपये की वह पहली किस्त न जाने कहां चली गई? जामिया हमदर्द में लोग दबी जु़बान से यही कहते हैं कि इस कैंपस में जीएन काज़ी का अपना एक ड्रीम प्रोजेक्ट है, प्राइवेट मेडिकल कॉलेज. यूजीसी का वह पैसा शायद उन्होंने अपने इसी प्रोजेक्ट पर ख़र्च कर दिया हो.

हॉस्टल जबरन खाली कराया

अगर आप जामिया हमदर्द में जाएंगे, तो उसका प्राइवेट मेडिकल कॉलेज और हॉस्टल आपको अपनी ओर ज़रूर आकर्षित करेंगे. यह हॉस्टल किसी फाइव स्टार होटल से कम नहीं है. जहां सामान्य श्रेणी के छात्र से प्रतिवर्ष छह लाख रुपये और मैनेजमेंट कोटे के छात्र से प्रतिवर्ष 15 लाख रुपये लिए जाते हों, वहां ऐसे आलीशान हॉस्टल पर किसी को आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए. सवाल यह है कि जामिया हमदर्द को उसके संस्थापक हकीम अब्दुल हमीद ने केवल अमीरों के लिए नहीं बनाया था, तो फिर जीएन क़ाज़ी ग़रीब छात्रों से उनका हक़ क्यों छीन रहे हैं? मेडिकल कॉलेज के लिए सबसे पहले तो उन्होंने जामिया हमदर्द की वह बिल्डिंग खाली कराई, जहां पहले मैनेजमेंट की पढ़ाई होती थी. मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) से यहां एमबीबीएस कोर्स शुरू करने की अनुमति लेने के लिए कॉलेज में ओपीडी का होना भी अनिवार्य शर्त है. इसलिए इस बिल्डिंग से सटे हुए लड़कियों के दो छात्रावास यानी रजिया सुल्तान और रुफैदा नर्सिंग गर्ल्स हॉस्टल को खाली कराकर उन्हें कॉलेज की ओपीडी और आईपीडी में परिवर्तित कर दिया गया. जामिया हमदर्द की जो लड़कियां उन छात्रावासों में रह रही थीं, वे कहां जाएं, इसका हल जीएन क़ाज़ी ने यह निकाला कि उन्होंने यूनिवर्सिटी के इब्ने सीना हॉस्टल में रहने वाले छात्रों से 15 मई, 2015 तक अपने कमरे खाली करने को कहा, ताकि उनमें लड़कियों को शिफ्ट किया जा सके. इसी को लेकर छात्रावास में रहने वाले लड़के यूनिवर्सिटी प्रशासन के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर आए.

प्राइवेट मेडिकल कॉलेज के दाख़िले पर रोक

जीएन क़ाज़ी की करतूतों के चलते उनके अपने ड्रीम प्रोजेक्ट पर ग्रहण लग चुका है. मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने जामिया हमदर्द के प्राइवेट मेडिकल कॉलेज के दाख़िले पर इस वर्ष पाबंदी लगा दी है. 2012 से शुरू होने वाले इस मेडिकल कॉलेज में प्रत्येक वर्ष देश-विदेश के 100 छात्र प्रवेश लेते हैं और इस समय कॉलेज में कुल 300 छात्र शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं. अगर इस बार भी दाख़िले की इजाज़त मिल जाती, तो यहां पर कुल 400 छात्र हो जाते. जीएन क़ाज़ी ने पहले ही वर्ष इसके प्रवेश में गड़बड़ी कर दी, जिसकी वजह से चार छात्रों का एडमिशन संदिग्ध हो गया. मामला हाईकोर्ट तक पहुंचा, लेकिन अदालत ने अपनी ओर से कोई ़फैसला न सुनाते हुए मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया को इस बात की छूट दे दी कि उसे पूरा अधिकार है कि वह जो चाहे फैसला ले. अब मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने पहले बैच के छात्रों के चौथे सेमेस्टर की परीक्षा भी रद्द कर दी है यानी लाखों रुपये खर्च करने के बाद भी उक्त छात्र अब अपने भविष्य को लेकर परेशान दिखाई दे रहे हैं.

किराए पर प्लेग्राउंड

लड़कियों के लिए कोई भी प्लेग्राउंड नहीं है. लड़कों के लिए जो प्लेग्राउंड था, उसे छह वर्ष पहले चार लाख रुपये वार्षिक किराये पर टर्फ नामक कंपनी को दे दिया गया है, जिसने वहां यूनिवर्सिटी के छात्रों के खेलने पर पाबंदी लगा दी है. यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी शाम पांच बजे बंद कर दी जाती है. यूनिवर्सिटी प्रशासन की कोताहियों के कारण यूजीसी ने उनकी फेलोशिप बंद कर दी है. आयुष ने यूनिवर्सिटी कैंपस के अंदर एक यूनानी अस्पताल बनाने के लिए पैसे दिए थे, लेकिन वह अस्पताल अब तक नहीं बना है.

अवैध यूनिवर्सिटी

सबसे पहले यह जानने की कोशिश करते हैं कि इस समय जामिया हमदर्द एक अवैध यूनिवर्सिटी कैसे है? जामिया हमदर्द को डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी का दर्जा देने के लिए जब जामिया प्रशासन ने 21 दिसंबर, 1988 को मानव संसाधन विकास मंत्रालय, उच्च शिक्षा विभाग, भारत सरकार को पत्र लिखा, तो वहां के तत्कालीन उपसचिव गुरबख्श सिंह ने जामिया प्रशासन को 20 मार्च, 1989 को जवाब देते हुए कहा कि भारत सरकार जामिया हमदर्द को डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी का दर्जा देने के लिए तैयार है, बशर्ते वह हकीम अब्दुल हमीद की अध्यक्षता में चलने वाले छह संस्थानों इंस्टीट्यूूट ऑफ मेडिसिन एंड मेडिकल रिसर्च, इंडियन इंस्टीट्यूूट ऑफ इस्लामिक स्टडीज, हमदर्द तिब्बी कॉलेज, हमदर्द कॉलेज ऑफ फार्मेसी, मजीदिया अस्पताल एवं स्कूल ऑफ नर्सिंग का जामिया हमदर्द में विलय कर दे और फिर जामिया हमदर्द को सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत रजिस्टर कराए. जामिया अपना मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन (एमओए) और शिक्षा विभाग की सलाह- मशविरे से तैयार किए गए यूनिवर्सिटी के नियम-सिद्धांत भी रजिस्ट्रार ऑफ सोसायटीज के यहां जमा कराए. जामिया हमदर्द ने सरकार की इन शर्तों को पूरा करते हुए 26 अप्रैल, 1989 को रजिस्ट्रार ऑफ सोसयटीज से प्रमाणपत्र संख्या-एस/19910/1989 हासिल किया और उसे शिक्षा विभाग में जमा कराया. इसी तरह मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार के शिक्षा विभाग ने जामिया हमदर्द से कहा कि वह यूजीसी की एक्सपर्ट कमेटी की मदद से नए सिरे से अपने एकेडमिक प्रोग्राम्स तैयार करे, ताकि यूजीसी की सिफ़ारिश पर उसे डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया जा सके. जामिया हमदर्द ने इस शर्त को भी पूरा किया. लिहाज़ा, यूजीसी एक्ट 1956 के सेक्शन 3 के तहत केंद्र सरकार ने 10 मई, 1989 को जामिया हमदर्द को डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी होने की घोषणा कर दी और इस सिलसिले में गज़ट ऑफ इंडिया में नोटिफिकेशन नंबर एफ.9-18/85-यू.3 भी प्रकाशित करा दिया. जिस पर भारत सरकार के तत्कालीन संयुक्त सचिव जेडी गुप्ता के हस्ताक्षर मौजूद हैं.

पहली बार यूनिवर्सिटी के सबसे प्रमुख पद पर नियुक्त व्यक्ति ने कैंपस की दो एकड़ ज़मीन एक प्राइवेट कंपनी को बेचने का षड्‌यंत्र रचा, लेकिन वह अपने षड्‌यंत्र में पूरी तरह सफल नहीं हो सका, क्योंकि समय रहते उसकी भनक यूनिवर्सिटी के तत्कालीन कुलाधिपति सैयद हामिद (स्वर्गीय) को लग गई. इसी घटना के कारण वहां के स्टॉफ को पहली बार पता चला कि जिस ज़मीन पर जामिया हमदर्द स्थित है, वह दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) की है, जिसके लिए जामिया प्रशासन डीडीए को हर वर्ष नियमित किराया देता है.

लिहाज़ा, यह कहना ग़लत नहीं होगा कि हमदर्द यूनिवर्सिटी जिस दिन शिक्षा विभाग द्वारा बनाई गई उपरोक्त शर्तें पूरा करना बंद कर देगी, उसी दिन से वह एक अवैध यूनिवर्सिटी हो जाएगी. ताज़ा स्थिति भी कुछ ऐसी है. यही कारण है कि 2013 से लेकर आज तक यूजीसी द्वारा जामिया हमदर्द से कई स्पष्टीकरण मांगे जा रहे हैं, लेकिन यूनिवर्सिटी प्रशासन अभी तक कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं दे सका है. इसी तरह मानव संसाधन विकास मंत्रालय, उच्च शिक्षा विभाग, भारत सरकार द्वारा भी यूजीसी से जामिया हमदर्द के बारे में कई प्रकार की जानकारियां हासिल करने की कोशिशें की जा रही हैं, लेकिन उसे कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिल पा रहा है. यही कारण है कि तंग आकर यूजीसी ने अपने अधिकार 2-र्ऐं के तहत पिछले वर्ष से जामिया हमदर्द की न केवल सभी ग्रांट बंद कर दीं, बल्कि अपने अधिकार 12-बी के तहत उसने जामिया हमदर्द के छात्रों एवं रिसर्च स्कॉलर्स को दी जाने वाली सभी फेलोशिप और सुविधाएं बंद कर दी हैं. ज़ाहिर है, इससे जामिया हमदर्द के छात्रों का भविष्य ख़तरे में पड़ चुका है.

दरअसल, यूजीसी के डायरेक्टर विक्रम सहाय ने पूरे भारत की 24 डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटीज (डीयू) को 13 दिसंबर, 2013 को एक सर्कुलर संख्या र्ऐं 9-5/2008 (डीयू) जारी करके बताया था कि यूजीसी ने इन यूनिवर्सिटीज की फंडिंग से संबंधित शर्तों का नए सिरे से निरीक्षण करने के लिए एक एक्सपर्ट कमेटी बनाई थी. उस एक्सपर्ट कमेटी ने जो अनुशंसाएं की हैं, उनकी बुनियाद पर सभी 24 डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटीज को नए निर्देश जारी किए जा रहे हैं, जिन पर अमल करना सबके लिए ज़रूरी है. यह भी कहा गया कि सभी डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटीज वित्तीय वर्ष 2015-16 शुरू होने से पहले यूजीसी एक्ट के सेक्शन 12-बी के तहत मंजूरी और एनएएसी (नेशनल एनालिसिस एंड एक्रेडिटेशन काउंसिल) की शर्तें पूरा करके उसका सर्टिफिकेट हासिल कर लें. और, जिन डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटीज ने यूजीसी के 2010 के रेगुलेशन के अनुसार अपने मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन (एमओए) में संशोधन नहीं किया है, वे फौरन ऐसा करते हुए यूजीसी एवं मानव संसाधन मंत्रालय से उसकी मंजूरी हासिल करें और सभी आवश्यक शर्तें पूरा करके संपूर्ण विवरण यूजीसी कार्यालय में एक जून, 2014 तक जमा करा दें, वरना यूजीसी की ओर से उन्हें मिलने वाली सभी ग्रांट्‌स एक अप्रैल, 2015 से रोक दी जाएंगी.

जामिया हमदर्द ने यूजीसी को अपना जवाबी पत्र संख्या- जेएच/यूजीसी/2014 22 मई 2014 को भेजा, जो उसके लिए संतोषजनक नहीं था, इसलिए यूजीसी ने दोबारा जामिया हमदर्द को 26 जून, 2014 को एक पत्र लिखा और पूरा फॉर्मेट भेजा कि कैसे उक्त विवरण भेजने हैं. इस पत्र द्वारा जामिया हमदर्द से एनएएसी सर्टिफिकेट, कोर्स वाइज फीस स्ट्रक्चर और उसका आधार, टीचिंग स्टॉफ का विवरण दाखिल करने के लिए कहा गया कि विभागवार कितने प्रोफेसर, असिस्टेंट प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर इस समय यूनिवर्सिटी में मौजूद हैं तथा कितनों की आवश्यकता है. जामिया हमदर्द ने यूजीसी को इस पत्र का कोई जवाब नहीं दिया. लिहाज़ा, यूजीसी ने 9 अक्टूबर, 2014 को तीसरा पत्र लिखकर विवरण दाखिल करने के लिए कहा, लेकिन जब इससे भी जामिया के कुलपति और रजिस्ट्रार पर कोई असर नहीं हुआ, तो नाराज़ होकर यूजीसी ने जामिया हमदर्द की सभी ग्रांट्‌स बंद कर दीं.

अवैध नियुक्ति

वर्तमान कुलपति डॉ. गुलाम नबी (जीएन) क़ाज़ी पर आरोप है कि वह अवैध रूप से कुलपति के पद पर नियुक्त हैं. क़ाज़ी को 13 अक्टूबर, 2008 को जामिया हमदर्द का कुलपति बनाया गया था. इस पद पर उन्हें अगले पांच वर्षों तक या इससे पहले जब भी उनकी उम्र 65 वर्ष की हो जाए, तब तक रहना था. क़ाज़ी साहब की जन्म तिथि चूंकि 14 अगस्त, 1946 है, लिहाज़ा 14 अगस्त, 2011 को 65 वर्ष के हो जाने के कारण वह कुलपति पद से रिटायर हो गए. जामिया हमदर्द के नियमों के अनुसार उन्हें यूनिवर्सिटी के वरिष्ठतम प्रोफेसर को कार्यकारी कुलपति की ज़िम्मेदारी सौंपते हुए वहां से चले जाना चाहिए था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. दो दिनों बाद यानी 16 अगस्त को उन्होंने रजिस्ट्रार डॉ. फिरदौस अहमद वानी के हस्ताक्षर वाला एक नोटिफिकेशन जारी कराकर 70 वर्ष की आयु तक स्वयं को जामिया हमदर्द का कुलपति नियुक्त होने की घोषणा करा दी. इसके लिए जीएन काज़ी ने अवैध तौर-तरीकों का सहारा लिया. बहाना तो उन्होंने यह बनाया कि चूंकि यूजीसी ने कुलपति की सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष से बढ़ाकर 70 वर्ष कर दी है, इसलिए क़ानून उन पर भी लागू होता है और इसी आधार पर वह अब तक जामिया हमदर्द के कुलपति बने हुए हैं. लेकिन, छह नवंबर, 2008 को कुलपति की आयु बढ़ाने से संबंधित जामिया हमदर्द समेत भारत की विभिन्न यूनिवर्सिटीज को भेजे गए अपने पत्र में यूजीसी ने यह भी कहा था कि हर यूनिवर्सिटी ऐसा करने से पहले अपनी रूल बुक या मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन (एमओए) में आवश्यक संशोधन कर ले और फिर उस संशोधित कॉपी को रजिस्ट्रार ऑफ सोसायटीज के पास जमा करा दे.

जिस समय डॉ. जीएन क़ाज़ी 65 वर्ष की आयु पूरी करने के कारण जामिया हमदर्द के कुलपति पद से सेवानिवृत्त हुए, उस समय तक जामिया हमदर्द के एमओए में ऐसा कोई संशोधन नहीं किया गया था. यूजीसी के निर्देश मिलने के बाद जामिया हमदर्द की उच्चतम डिसीजन मेकिंग बॉडी, ईसी या कार्यकारिणी की बैठक 14 मार्च, 2009 को बुलाई गई, जिसकी अध्यक्षता स्वयं जीएन क़ाज़ी ने की. ईसी ने कुलपति की आयु 65 वर्ष से बढ़ाकर 70 वर्ष करने को अपनी स्वीकृति दे दी. लेकिन, यूजीसी के निर्देशों के अनुसार एमओए में कुलपति की सेवानिवृत्ति की आयु से संबंधित संशोधन आवश्यक है, यह बात जीएन क़ाज़ी ने कार्यकारिणी के सदस्यों से छिपा ली. इसके बाद जामिया हमदर्द सोसायटी को ईसी के इस निर्णय से 28 मार्च, 2009 को सूचित किया गया. जामिया हमदर्द सोसायटी की उस मीटिंग की अध्यक्षता तत्कालीन कुलाधिपति सैयद हामिद (स्वर्गीय) ने की और जीएन क़ाज़ी सोसायटी के सदस्य की हैसियत से उसमें उपस्थित रहे. हमदर्द सोसायटी को अंधेरे में रखते हुए जीएन क़ाज़ी ने अपनी सेवानिवृत्ति की आयु तो बढ़वा ली, लेकिन एमओए में संशोधन की बात यहां पर भी उन्होंने प्रशासन से छिपा ली. जामिया हमदर्द सोसायटी ने ईसी के निर्णय को केवल सुना और नोट किया, उसे अपनी स्वीकृति नहीं दी. ज़ाहिर है, जब तक सोसायटी की स्वीकृति प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक जीएन क़ाज़ी दोबारा जामिया हमदर्द के कुलपति नहीं बन सकते, लेकिन क़ानून की परवाह न करते हुए उन्होंने रजिस्ट्रार फिरदौस वानी से अपनी पुन: नियुक्ति की घोषणा करा दी, जो अवैध है.

वक्फ़ नहीं, डीडीए की ज़मीन

अब आइए देखते हैं कि जीएन क़ाज़ी ने कुलपति रहते हुए कैसे यूनिवर्सिटी की ज़मीन पट्टे पर देने की कोशिश की और भांडा फूटने पर कैसे एक निजी कंपनी को यूनिवर्सिटी कैंपस में अपनी प्रयोगशाला बनाने और निजी कारोबार चलाने की अनुमति दी. यह मामला 2010 का है. जामिया हमदर्द के संस्थापक हकीम अब्दुल हमीद का स्वर्गवास हुए 11 वर्ष बीत चुके थे. पहली बार यूनिवर्सिटी के सबसे प्रमुख पद पर नियुक्त व्यक्ति ने कैंपस की दो एकड़ ज़मीन एक प्राइवेट कंपनी को बेचने का षड्‌यंत्र रचा, लेकिन वह अपने षड्‌यंत्र में पूरी तरह सफल नहीं हो सका, क्योंकि समय रहते उसकी भनक यूनिवर्सिटी के तत्कालीन कुलाधिपति सैयद हामिद (स्वर्गीय) को लग गई. इसी घटना के कारण वहां के स्टॉफ को पहली बार पता चला कि जिस ज़मीन पर जामिया हमदर्द स्थित है, वह दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) की है, जिसके लिए जामिया प्रशासन डीडीए को हर वर्ष नियमित किराया देता है.

आम तौर पर लोग यही जानते हैं कि जामिया हमदर्द वक्फ़ की संपत्ति है, लेकिन सच्चाई यह है कि जामिया हमदर्द वक्फ़ की संपत्ति नहीं है. दूसरा भ्रम यह है कि जामिया हमदर्द की ज़मीन संस्थापक हकीम अब्दुल हमीद (स्वर्गीय) ने स्वतंत्रता के समय 35 पैसे प्रति गज़ के हिसाब से तुग़लक़ाबाद के तत्कालीन निवासियों से ख़रीदी थी और बाद में उसी ज़मीन पर उन्होंने जामिया हमदर्द की बुनियाद डाली और फिर उसे राष्ट्र के नाम समर्पित कर दिया. यह बात भी सही नहीं है. अब सवाल यह उठता है कि आख़िर इसका सबूत क्या है कि जामिया हमदर्द और उसकी ज़मीन वक़्फ़ की संपत्ति नहीं है? इस सवाल का जवाब हमें दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस एस रविंदर भट्ट की एक सदस्यीय बेंच द्वारा 23 दिसंबर, 2011 को दिए गए निर्णय से मिल जाता है. जस्टिस भट्ट ने सिविल सूट (ओएस) नंबर 116/1972, 117/1972, 118/1972 एवं 119/1972 के तहत अपना ़फैसला सुनाते हुए कहा था कि दिल्ली वक्फ़ बोर्ड का यह दावा ग़लत और ग़ैर-क़ानूनी है कि हमदर्द दवाखाना (वक्फ़), हमदर्द नेशनल फाउंडेशन, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इस्लामिक स्टडीज और इंस्टीट्यूट ऑफ हिस्ट्री ऑफ मेडिसिन एंड मेडिकल रिसर्च (ये दोनों संस्थाएं 1989 में जामिया हमदर्द में विलय कर दी गईं) वक्फ़ की संपत्ति है. दरअसल, दिल्ली वक्फ़ बोर्ड ने 12 दिसंबर, 1970 को एक नोटिफिकेशन जारी करते हुए उपरोक्त चारों संस्थाओं के वक्फ़ संपत्ति होने की घोषणा कर दी थी और फिर एक सप्ताह बाद यानी 19 दिसंबर, 1970 को वह नोटिफिकेशन दिल्ली गज़ट में प्रकाशित भी करा दिया था. लिहाज़ा, हकीम अब्दुल हमीद ने उस समय दिल्ली वक्फ़ बोर्ड के इस निर्णय को चुनौती देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और अदालत को बताया कि उक्त संपत्ति एवं उक्त सभी संस्थान व्यवहारिक रूप देश की जनता को समर्पित हैं, लेकिन उन पर भारतीय वक्फ़ एक्ट 1954 लागू नहीं होता, क्योंकि भारतीय वक्फ़ एक्ट 1954 केवल उन्हीं संपत्तियों पर लागू हो सकता है, जो किसी मुसलमान द्वारा इस्लामी शरीअत के मुताबिक वक्फ़ की गई हों. हकीम अब्दुल हमीद ने अदालत को स्पष्ट शब्दों में बताया कि हमदर्द दवाख़ाना (वक्फ़)  की आमदनी से फ़ायदा हासिल करने वाले लोग किसी समुदाय विशेष के नहीं हैं, बल्कि यह सबके लिए है. मतलब यह कि हमदर्द द्वारा चलाए जाने वाले संस्थान, चाहे वह तिब्बिया कॉलेज हो या नर्सिंग होम, उनमें किसी धर्म, जाति या नस्ल का कोई भेदभाव नहीं है. उनसे भारत का हर ग़रीब और पात्र नागरिक लाभांवित हो सकता है.

अब दूसरे सवाल की ओर आते हैं. आम तौर पर भारत समेत पूरी दुनिया के लोग यही जानते हैं कि नई दिल्ली के तुग़लक़ाबाद क्षेत्र में जामिया हमदर्द जिस ज़मीन पर स्थित है, उसे जामिया हमदर्द के संस्थापक हकीम अब्दुल हमीद (स्वर्गीय) ने अपने पैसों से ख़रीदा था. स्वयं जामिया हमदर्द में पढ़ाने वाले अध्यापक, वहां के छात्र और अन्य कर्मचारी भी अब तक यही समझते आए थे. वर्ष 2010 में पहली बार जामिया के स्टॉफ को इस बात का इल्म हुआ कि हमदर्द यूनिवर्सिटी की ज़मीन उसकी अपनी नहीं, बल्कि दिल्ली डेवलपमेंट अथॉरिटी (डीडीए) की है, जिसे डीडीए ने राष्ट्रपति की स्वीकृति से हकीम अब्दुल हमीद को 23 सितंबर, 1970 को लंबे अंतराल के लिए पट्टे (लीज़) पर दिया था. जामिया हमदर्द का कुल क्षेत्रफल 91.60 एकड़ है. इसमें से 60.79 एकड़ ज़मीन राष्ट्रपति की स्वीकृति से डीडीए ने हकीम अब्दुल हमीद को 7,33,647.20 रुपये प्रीमियम राशि जमा करने पर इंस्टीट्यूट ऑफ हिस्ट्री ऑफ मेडिसिन एंड मेडिकल रिसर्च (वर्तमान जामिया हमदर्द) बनाने के लिए लीज़ पर दी थी. लीज़ की शर्तों के अनुसार, प्रीमियम राशि का ढाई प्रतिशत यानी 18,341.18 रुपये जामिया हमदर्द को वार्षिक किराये के रूप में दो किस्तों में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में जमा करने होते हैं. इस किराये की पहली किस्त, जो 9,170.60 रुपये बनती है, प्रत्येक वर्ष 15 जनवरी को और इतनी ही राशि की दूसरी किस्त 15 जुलाई को जमा करनी होती है.

जामिया हमदर्द की ज़मीन का दूसरा टुकड़ा 30.81 एकड़ का है, जिसे राष्ट्रपति की स्वीकृति से डीडीए ने हकीम अब्दुल हमीद को इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इस्लामिक स्टडीज (अब जामिया हमदर्द) स्थापित करने के लिए 23 सितंबर, 1970 को 3,72,801 रुपये प्रीमियम राशि जमा करने पर लीज़ पर दिया था. ज़मीन के इस टुकड़े का भी वार्षिक किराया प्रीमियम राशि का ढाई प्रतिशत है, जिसके अनुसार यह किराया 9,320.10 रुपये बनता है, जिसे जामिया हमदर्द को वर्ष में दो किस्तों में जमा करना पड़ता है. इस तरह अब यह बात साबित हो गई कि जामिया हमदर्द की ज़मीन वक्फ़ की नहीं है, बल्कि डीडीए द्वारा जामिया हमदर्द को लीज़ पर दी गई ज़मीन है. लीज़ के काग़ज़ात में जो शर्तें दर्ज हैं, उनमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यूनिवर्सिटी प्रशासन शैक्षणिक उद्देश्य के अलावा इस ज़मीन का इस्तेमाल किसी और उद्देश्य के लिए नहीं कर सकता. ऐसी स्थिति में सबसे बड़ा सवाल यही है कि जामिया हमदर्द का कोई कुलपति यूनिवर्सिटी की ज़मीन को व्यवसायिक उद्देश्य के लिए कैसे इस्तेमाल कर सकता है और वह भी राष्ट्रपति की अनुमति के बिना, जिनकी स्वीकृति से जामिया हमदर्द को डीडीए ने लीज़ पर यह ज़मीन दे रखी है?

(जिन चीज़ों का यहां उल्लेख हुआ, उनके अलावा भी बहुत-सी  जानकारियां जामिया हमदर्द के बारे में इस समय चौथी दुनिया के पास मौजूद हैं. अगले अंक में उनका भी खुलासा किया जाएगा.)

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