कानून व्यवस्था में आईएएस अफसरों की घुसपैठ के खिलाफ जब आईपीएस अफसर उत्तर प्रदेश में ताल ठोक रहे थे, ठीक उसी समय उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ यूपी कंट्रोल ऑफ ऑर्गेनाइज्ड क्राइम एक्ट (यूपीकोका) लाने की तैयारी कर रहे थे. पुलिस एक्ट में सुधार लाए बगैर और वीवीआईपी ड्यूटी, कानून व्यवस्था और अपराध अनुसंधान तीनों को अलग-अलग किए बगैर अपराध पर कारगर नियंत्रण कैसे होगा, इसके जबाव में महाराष्ट्र और दिल्ली का उदाहरण सामने है, जहां पिछले लंबे अर्से से कंट्रोल ऑफ ऑर्गेनाइज्ड क्राइम एक्ट (कोका) लागू है, लेकिन अपराध थमने का नाम नहीं ले रहा.

सुनियोजित योजना और नीतियों में जरूरी सुधार के बिना उत्तर प्रदेश में लागू हो रहे ‘कोका’ के राजनीतिक प्रतिशोध का हथियार बनने की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता. विपक्षी राजनीतिक दलों ने आशंका भी जताई है कि राजनीतिक विरोधियों के दमन के लिए ‘कोका’ कानून का इस्तेमाल हो सकता है. विपक्ष ने कहा है कि ‘यूपी-कोका’ लाकर भाजपा सरकार ने विरोधियों की जुबान पर ताला डालने की साजिश की है.

बहरहाल, ‘यूपी-कोका’ लाने के पीछे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का इरादा संगठित अपराध पर कारगर अंकुश लगाना हो सकता है, लेकिन इस कानून को विधानसभा के पटल पर लाने के पहले मुख्यमंत्री को स्वयं और उनके कैबिनेट सहयोगियों को इस पर मंथन करना चाहिए था कि यूपी पुलिस का ढांचा और प्रशासनिक प्रबंधन क्या इस कानून को निष्पक्ष, सटीक और ईमानदार तरीके से लागू करने के लायक है? इस सवाल का जवाब प्रदेश की आम भुक्तभोगी जनता जानती है, जो पुलिस की अपराधियों से संलिप्तता, लचर और घूस-पक्षीय अनुसंधान प्रक्रिया से त्रस्त है.

ऐसे में ‘यूपी-कोका’ जैसे सख्त कानून का पुलिस कैसे इस्तेमाल करेगी और आम जनता और कितने त्रासद दिन देखेगी, इस बात की कल्पना की जा सकती है. कानून व्यवस्था के मसले पर ही उत्तर प्रदेश के आईपीएस अधिकारी आईएएस अधिकारियों द्वारा कानून व्यवस्था की समीक्षा करने की प्रक्रिया की मुखालफत कर रहे हैं. जिस समय मुख्यमंत्री योगी ‘कोका’ कानून लाने की तैयारी कर रहे थे, ठीक उसी समय यूपी में आईपीएस और आईएएस अधिकारियों में खुली भिड़ंत चल रही थी. एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप चल रहे थे और पत्र और प्रति-पत्र जारी हो रहे थे.

आईपीएस अधिकारी अब आईएएस अधिकारियों की अधीनता (सबॉर्डिनेशन) स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. ऐसी संवेदनशील स्थितियों में योगी सरकार ने आईएएस अफसरों के प्रति अपना रुझान स्पष्ट कर दिया है, इससे आईपीएस खेमे में असंतोष है. जिन दिनों आईएएस और आईपीएस अफसरों में तलवारें तनी हुई थीं, उसी दरमयान 14 दिसम्बर 2017 को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों के सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए साफ-साफ कहा कि शांति और कानून-व्यवस्था जिलाधिकारियों की सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है. इससे किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जा सकता.

आपको दिसम्बर मध्य में राजधानी लखनऊ में हुई शीर्ष प्रशासनिक गतिविधियों की तरफ ले चलते हैं. हालांकि दिसम्बर की गतिविधियों की भूमिका सितम्बर महीने में ही लिख दी गई थी, जब प्रदेश के मुख्य सचिव राजीव कुमार ने बाकायदा यह निर्देश जारी किया था कि जिलों-जिलों में कानून व्यवस्था और अपराध की समीक्षा सम्बन्धित जिलों के जिलाधिकारी करेंगे. मुख्य सचिव के इस निर्देश के बाद प्रदेश के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) सुलखान सिंह मैदान में उतर पड़े.

डीजीपी ने मुख्य सचिव के आदेश को पुलिस अधीक्षकों के कार्यक्षेत्र और अधिकार में सीधा हस्तक्षेप बताया और शासन को पत्र लिखकर इस आदेश को वापस लेने का आग्रह किया. दिसम्बर आते-आते शासन के शीर्ष स्तर पर चल रहा शीत-पत्र-युद्ध सार्वजनिक हो गया और गरमागरम बहस-मुबाहिसे में तब्दील हो गया. आईपीएस एसोसिएशन ने आनन-फानन बैठक बुला ली और यह मामला तूल पकड़ने लगा.

गृह विभाग के प्रमुख सचिव अरविंद कुमार की सफाई के बावजूद मामला शांत नहीं हुआ. आईपीएस एसोसिएशन ने जिलाधिकारी की अध्यक्षता में होने वाली कानून व्यवस्था की बैठक का विरोध किया और प्रशासन से ‘सामंतशाही प्रोटोकाल’ और  वीआईपी संस्कृति खत्म करने की मांग की. इस बारे में आईपीएस एसोसिएशन ने आईएएस एसोसिएशन को आधिकारिक पत्र भी लिख डाला. मैराथन बैठकों के बाद आईपीएस अफसर इस बात पर सहमति को राजी हुए कि जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक कानून व्यवस्था की समीक्षा बैठकों की संयुक्त अध्यक्षता करें. इस पर आईएएस अफसर रजामंद नहीं हैं.

आईएएस और आईपीएस अफसरों की भिड़ंत पर पानी डालने के लिए शासन ने शब्दावलियों का घालमेल कर किसी तरह बाहरी तौर पर दोनों संवर्ग के अफसरों को मनाने की औपचारिकता पूरी की, लेकिन मामला अंदर-अंदर सुलग ही रहा है. शासन के गृह विभाग और डीजीपी मुख्यालय ने मिल कर कानून व्यवस्था और क्राइम मिटिंग दोनों को अलग-अलग किया और दोनों तरफ के अधिकारियों को संतुष्ट करने का प्रयास किया. यानि, कानून व्यवस्था की बैठक की अध्यक्षता जिलाधिकारी करेंगे और क्राइम मीटिंग की अध्यक्षता पुलिस अधीक्षक करेंगे. उत्तर प्रदेश का पूरा प्रशासनिक अमला कानून व्यवस्था की अलग बैठक और अलग क्राइम मिटिंग कराने में ही लगा रहेगा. जबकि कानून व्यवस्था और अपराध दोनों को अलग-अलग किया ही नहीं जा सकता. ऐसे में ‘यूपी-कोका’ कानून का हश्र क्या होगा, इसका आकलन अभी से किया जा सकता है.

सब जानते हैं कि जिलों में डीएम और एसपी के अधिकारों को लेकर आईपीएस और आईएएस अधिकारियों में लंबे समय से तनाव चला आ रहा है. ऐसे में क्राइम मीटिंग की अध्यक्षता डीएम द्वारा कराए जाने के मुख्य सचिव के निर्देश से जिले के पुलिस अधीक्षकों में आक्रोश फैलने लगा. कई जिलों के एसपी ने इसकी शिकायत आईपीएस एसोसिएशन से की और मुख्य सचिव के आदेश पर गहरी आपत्ति जताई. सदस्यों की आपत्तियों पर ही आईपीएस एसोसिएशन ने आपात बैठक बुलाई. उल्लेखनीय है कि सात सितम्बर 2017 को मुख्य सचिव राजीव कुमार ने कानून व्यवस्था की निगरानी के लिए नई व्यवस्था बनाने को लेकर शासन और पुलिस अधिकारियों को पत्र लिखा था.

पत्र में कहा गया था कि कानून व्यवस्था को लेकर हर महीने की सात तारीख को जिलाधिकारी की अध्यक्षता में हर जिले की पुलिस लाइंस में बैठक होगी. बैठक में सम्बन्धित जिले के पुलिस अधीक्षक के साथ-साथ एडीएम प्रशासन, एडिशनल एसपी, डिप्टी एसपी, वरिष्ठ अभियोजन (प्रोजिक्यूशन) अधिकारी और सभी थाना प्रभारी मौजूद रहेंगे. फिर क्या था, इस आदेश से पूरे प्रदेश की नौकरशाही में अंदर ही अंदर आग लग गई. इसे धधकता देख कर सरकार ने डीजीपी को मामला संभालने का निर्देश दिया. दो महीने बाद सात नवम्बर 2017 को डीजीपी सुलखान सिंह ने कानून व्यवस्था की बैठक को लेकर शासन को कुछ सुझाव भेजे.

डीजीपी ने सरकार को लिखा कि जिलाधिकारी के अध्यक्षता करने से पुलिस की अनुशासन प्रणाली में बाधा पहुंचेगी, लिहाजा जिलाधिकारी की अध्यक्षता में होने वाली बैठक में पुलिस अधीक्षक के मातहत के पुलिस अधिकारियों को नहीं बुलाया जाए. लेकिन सुलखान सिंह का यह सुझाव शासन को हजम नहीं हुआ. सत्ता गलियारे के शीर्ष सूत्र बताते हैं कि आईएएस अफसरों की सुसंगठित लॉबी शासन को अपने चंगुल में कसे हुई है, यही वजह है कि सरकार पुलिस ढांचे में आने वाली अनुशासनिक अड़चन को नजरअंदाज कर रही है.

कई पूर्व और वरिष्ठ आईएएस अफसरों ने इस मसले के बौद्धिक समाधान का रास्ता भी सुझाया, लेकिन वह सरकार को नहीं सुहाया. पूर्व आईएएस सत्य नारायण शुक्ल ने इस बारे में प्रदेश के मुख्य सचिव को पत्र भी लिखा और उन्हें सलाह दी कि जिलाधिकारी की अध्यक्षता में होने वाली कानून व्यवस्था की बैठक पुलिस महकमे के बजाय जिला कलेक्टरेट के दफ्तर में आयोजित की जाए और उसमें केवल पुलिस अधीक्षक और पुलिस सर्किल अफसर ही शरीक हों. उसके बाद पुलिस अधीक्षक पुलिस अधिकारियों के साथ बैठक करें और समीक्षा के काम को आगे बढ़ाएं. श्री शुक्ल ने कहा कि कानून व्यवस्था दुरुस्त रखने के लिए दोनो सेवाओं के अधिकारियों के बीच भाईचारे और सौहार्द का बने रहना अत्यंत आवश्यक है.

क्योंकि आपसी मनमुटाव का सीधा असर कानून व्यवस्था पर ही पड़ेगा, जिसका दुष्परिणाम आखिरकार प्रदेश की जनता को भुगतना पड़ेगा. शुक्ल ने मुख्य सचिव को लिखे पत्र में कहा है कि पूर्व में फौजदारी (अपराध) वादों के निस्तारण की नियमित मासिक समीक्षा जिला मजिस्ट्रेट द्वारा अपने कार्यालय में ही की जाती थी. इसके लिए जिलाधिकारी को पुलिस लाइन जाने की आवश्यकता नहीं होती थी. असलियत में मुख्य मुद्दा प्रदेश की चरमराई कानून व्यवस्था में सुधार का है, जो जिले में अफसरों को संगठित टीम के रूप में काम करने पर ही सम्भव हो पाएगा.

आईपीएस एसोसिएशन के सचिव असीम अरुण ने आईएएस एसोसिएशन को जो चिट्‌ठी लखी वह भी रोचक है. अरुण ने लिखा है कि यूपी सरकार अगर वीआईपी कल्चर खत्म कर रही है, तो उसी अनुरूप आईएएस अफसरों को भी सामंती-परिपाटी (फ्यूडल-प्रोटोकोल) खत्म करना चाहिए. बैठक में कौन ऊंची कुर्सी पर बैठा है और कौन नीची कुर्सी पर, किसकी गाड़ी पहले निकली, किसकी बाद में और फोन पर कौन पहले आया जैसे बेमानी मुद्दों पर नौकरशाही अपनी ऊर्जा व्यर्थ खर्च कर रही है.

नौकरशाहों को समता, समावेश और आदर के भाव के साथ काम करने का माहौल बनाना चाहिए. आईएएस अफसरों को खुद को बड़ा समझने की मानसिकता से परहेज करना चाहिए. दूसरी तरफ प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक एके जैन ने कहा कि पुलिस को पुलिस का काम करना चाहिए. पुलिस के काम में दखलंदाजी कम की जानी चाहिए. जिन राज्यों में कमिश्नर सिस्टम लागू कर पुलिस को ताकतवर बनाया गया, वहां पर कारगर अपराध नियंत्रण अपने आप में उदाहरण है.

आईएएस और आईपीएस अफसरों का ‘डीएनए-भेद’

आईएएस और आईपीएस अफसरों का मतभेद इतना गहरा गया कि वह ‘डीएनए-भेद’ की तरह उभर कर सामने आ गया. आईएएस और आईपीएस अफसरों के बीच होने वाला सालाना क्रिकेट मैच भी इस मतभेद से उबर नहीं पाया और काफी तल्ख हो गया. लखनऊ में आईएएस सप्ताह के दौरान हुए क्रिकेट मैच में आईपीएस एसोसिएशन ने आईएएस एसोसिएशन को नौ विकेट से हरा दिया. इस जीत से उत्साहित आईपीएस एसोसिएशन ने ट्‌वीट पर कटाक्ष किया, ‘जीत हमारे डीएनए में है. हम अच्छे हैं, ऐतिहासिक…’ इस ट्‌वीट पर आईएएस एसोसिएशन ने सौहार्दपूर्ण जवाब भेजा, ‘बधाई. आप जीत के हकदार थे, लेकिन मैत्रीपूर्ण मैच को डीएनए टेस्ट में मत बदलिए.’

 

बिगड़े माहौल में पीसीएस अ़फसरों के भी बिगड़े बोल

इसी बिगड़े माहौल में उत्तर प्रदेश के प्रांतीय सिविल सेवा (पीसीएस) के अधिकारी भी अपनी तरक्की और तैनाती के मसले पर संघर्ष के लिए सुगबुगा रहे हैं. पीसीएस अधिकारियों को इसका गहरा मलाल है कि उनके लिए निर्धारित पदों पर भी आईएएस अधिकारी कब्जा जमा रहे हैं. व्यापक अनुभव और लंबा कार्यकाल होने के बावजूद पीसीएस अफसरों को विभागों का प्रमुख नहीं बनाया जाता, इसे लेकर भी पीसीएस अफसरों में गहरा रोष है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पीसीएस अफसरों की नाराजगी दूर करने का आश्वासन देकर एक और सिरदर्द मोल ले चुके हैं. उल्लेखनीय है कि योगी आदित्यनाथ के सत्ता ग्रहण करने के दो महीने बाद ही यूपी पीसीएस एसोसिएशन ने सरकार को अल्टीमेटम देकर कहा था कि पीसीएस कैडर के पदों पर नियुक्त आईएएस अफसरों को 15 दिन के अंदर हटाया जाए.

तत्कालीन मुख्य सचिव राहुल भटनागर द्वारा एसोसिएशन को मुलाकात का समय नहीं देने के कारण भी पीसीएस एसोसिएशन अब तक नाराज है. एसोसिएशन का कहना है कि राज्य सम्पत्ति अधिकारी और विकास प्राधिकरणों के उपाध्यक्षों के पद पर आईएएस अफसरों की तैनाती नाजायज है, क्योंकि ये पद पीसीएस संवर्ग के अफसरों के लिए निर्धारित हैं.

एसोसिएशन की नाराजगी की मुख्य वजह यह भी है कि उनकी समस्याओं के कई ज्ञापन शासन स्तर पर अर्से से लंबित हैं. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने नजाकत भांपते हुए पीसीएस अधिकारियों की लंबित समस्याओं का समाधान करने और उनकी पदोन्नति की कार्रवाई प्राथमिकता से करने का निर्देश दिया है.

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