दरअसल, यह एक रहस्य ही है कि समान विचारधारा वाले देश होने के बावजूद भारत और अमेरिका ने यह रिश्ता मज़बूत करने के लिए इतने दिनों तक इंतज़ार क्यों किया? इसकी एक वजह शीत युद्ध के दौरान अमेरिका के प्रति कम्युनिज्म का दुर्भाव हो सकता है. यह वह समय था, जब भारत तुरंत आज़ाद हुआ था. भारत में उस समय सोवियत संघ और नेहरू के अमेरिका विरोध (जो अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के प्रति था) की वजह से वामपंथ की तरफ़ झुकाव अधिक था. विदेश मंत्रालय का अमेरिका विरोध वर्तमान तक जारी रहा.

modi-nd-baraqकहानी कुछ इस तरह से है कि जब जॉर्ज डब्ल्यू बुश को यह पता चला कि भारत में एक अरब लोग रहते हैं, तो उन्होंने फैसला किया कि अमेरिका को भारत के साथ सामरिक संबंध स्थापित कर लेना चाहिए. मनमोहन सिंह से उनकी मुलाक़ात के बाद दोनों नेताओं में तुरंत दोस्ती हो गई. एक सच्चे ईसाई के नाते बुश ने इस मुलाक़ात के दौरान बाइबिल के कई हवाले दिए. और, जब मनमोहन सिंह ने न्यू टेस्टामेंट की अपनी बेहतर समझ का उदाहरण देते हुए उसके हवाले से बात की, तो बुश प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके. बुश बहुत खुश हुए और इस तरह एक भारतीय प्रधानमंत्री और एक अमेरिकी राष्ट्रपति के बीच व्यक्तिगत दोस्ती की बुनियाद पड़ी.
पिछले दिनों जो भी दिखा, वह एक भारतीय प्रधानमंत्री और एक अमेरिकी राष्ट्रपति की दूसरी जोड़ी के निकट संबंधों की एक विस्तृत पुनरावृत्ति थी. पहली मुलाक़ात में भारत की तरफ़ से यह संदेश गया था कि वह गुट निरपेक्ष आंदोलन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता समाप्त करने के लिए तैयार है और एक राष्ट्र के तौर पर परिपक्व हो गया है. बुश ने दो क़दम आगे बढ़कर परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के बहिष्कार से भारत को मुक्त करके उसे वापस परमाणु राष्ट्रों के सम्मानजनक समूह में शामिल करा दिया. लेकिन, अमेरिका-भारत संबंधों में वास्तविक परिवर्तन के लिए यह केवल एक प्रलोभन था. मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ (आवश्यकता पड़ने पर) सामरिक-रणनीतिक साझेदारी पर भारत की सहमति जता दी थी. यह एक गोपनीय सहमति थी, लेकिन कम से कम मनमोहन सिंह ने इसका महत्व समझ लिया था. इसलिए उन्होंने अपनी यूपीए सरकार दांव पर लगा दी और विश्‍वास मत जीत लिया. यह ऐसी घटना थी, जिसने कम्युनिस्ट वामपंथ का सफाया कर दिया. ज़ाहिर है, यह जानकर बुश को बुरा नहीं लगा होगा.
अब हाल के घटनाक्रम की तरफ़ लौटते हैं, जिसमें हमने इस दोस्ती पर मुहर लगते देखा. परमाणु रिएक्टर बहुत ख़तरनाक होते हैं, जो समय-समय पर फट पड़ते हैं. शायद 10 वर्षों में एक ऐसी घटना घट जाती है, जिसमें भारी नुक़सान होता है, थ्री-माईल आइलैंड, चेर्नोबेल एवं फुकुशीमा की घटनाएं इसकी मिसालें हैं. दरअसल, रिएक्टरों के निजी आपूर्तिकर्ता किसी तरह का आर्थिक दायित्व उठाने के लिए तैयार नहीं हैं. इसलिए रिएक्टरों में विस्फोट या दुर्घटना की स्थिति में बीमा फंड उपलब्ध कराने की ज़िम्मेदारी भारत सरकार पर होगी. मिलिट्री डील और एफडीआई आकर्षित करने के लिए इस तरह का क़दम उठाना ज़रूरी था. तेल की क़ीमतों में गिरावट की वजह से असैनिक परमाणु ऊर्जा पहले से अधिक अलाभकर हो गई है. न्यूक्लियर पॉवर से पैदा होने वाली बिजली सबसे महंगी बिजली बन गई है. हम केवल यह आशा ही कर सकते हैं कि कहीं यह प्रयोग वास्तव में न हो जाए. परमाणु संयंत्रों को एक ग़लती के सुबूत के तौर सुरक्षित करके औद्योगिक संग्रहालय में रख देना चाहिए.
यहां तक कि जब बुश-मनमोहन के बीच परमाणु समझौता हुआ था, उस समय भी इसके पीछे कुछ और था. वास्तविक समझौता या सहमति दरअसल सामरिक भागीदारी थी. चीन यह जानता था, इसलिए चाय पे चर्चा और गले मिलने के तुरंत बाद उसने इस पर अपनी प्रतिक्रिया दे दी. भारत को यह जटिल खेल जारी रखना चाहिए, न केवल इसलिए कि उसे चीन से युद्ध करना है, बल्कि इसलिए भी कि कोई देश संभावित ख़तरे से निपटने के उपाय किए बिना बचा नहीं रह सकता. 1962 में हमें ऐसी ही लापरवाही की बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी थी और अब हम वह ग़लती दोहरा नहीं सकते. एक तरह से देखा जाए, तो परमाणु रिएक्टरों के लिए जो बीमा पूल बनाने की बात की गई है, उसे भी सबसे ख़राब स्थिति से निपटने के लिए बनाया गया है. अगर रिएक्टर आपूर्तिकर्ता दुर्घटना के दायित्व के संदर्भ में जिद्दी बच्चों की तरह व्यवहार करना चाहते हैं, तो यही सही. भोपाल त्रासदी जैसी दूसरी घटना होने और विदेशी कंपनी के भाग जाने पर (शायद उस समय की कंपनी केंद्र और राज्य सरकार की मिलीभगत से भागी थी), भारत अक्खड़ और कंजूस नहीं हो सकता. भारत विदेशी निवेश और इस दोस्ती का फ़ायदा उठा सकता है.
दरअसल, यह एक रहस्य ही है कि समान विचारधारा वाले देश होने के बावजूद भारत और अमेरिका ने यह रिश्ता मज़बूत करने के लिए इतने दिनों तक इंतज़ार क्यों किया? इसकी एक वजह शीत युद्ध के दौरान अमेरिका के प्रति कम्युनिज्म का दुर्भाव हो सकता है. यह वह समय था, जब भारत तुरंत आज़ाद हुआ था. भारत में उस समय सोवियत संघ और नेहरू के अमेरिका विरोध (जो अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के प्रति था) की वजह से वामपंथ की तरफ़ झुकाव अधिक था. विदेश मंत्रालय का अमेरिका विरोध वर्तमान तक जारी रहा. जैसा कि देवयानी खोब्रागड़े के मामले में देखा गया. इस मामले को ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ा दिया गया (क्या विदेश सचिव को इसी वजह से अचानक हटा दिया गया?). अमेरिका अपने अप्रवासी समुदाय को अपने विदेशी संबंधों के लिए इस्तेमाल करता है. इसलिए एक पोलिश-अमेरिकन पोलैंड का राजदूत बन जाता है और एक भारतीय-अमेरिकी दिल्ली का राजदूत बन जाता है. भारत को अपनी प्रवासी आबादी को अपने राजनयिक संबंधों के लिए रचनात्मक रूप से इस्तेमाल करना चाहिए. मौजूदा प्रधानमंत्री अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में केवल अपनी प्रवासी आबादी की वजह से खुद को संभाले रखने में कामयाब हो सके. उन्हें इन प्रवासियों को गले लगाना जारी रखना चाहिए.

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