बीते शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक और सामाजिक परिषद में दिए एक वर्चुअल भाषण में कहा था कि ‘भारत ने कोविड-19 के ख़िलाफ़ लड़ाई को एक जनआंदोलन बना दिया है’.

मोदी के इस बयान को भारतीय मीडिया में ख़ूब कवरेज मिली, लेकिन हैरत की बात ये है कि किसी ने भी प्रधानमंत्री के दावों को चुनौती नहीं दी. ये अलग बात है कि भारत में संक्रमण के मामले उसी दिन दस लाख का आंकड़ा पार कर गए थे. हर दिन संक्रमण के नए मामले अब रिकार्ड बना रहे हैं.

भारतीय मीडिया ने ‘कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ाई के जनआंदोलन बन जाने’ का सबूत नहीं मांगा. इसके ठीक विपरीत, सोशल मीडिया पर हज़ारों आम आदमी अपनी रुला देने वाली आपबीती लिख रहे हैं. मरीज़ अस्पतालों के चक्कर काट रहे हैं और कहीं-कहीं पर वाहनों में ही उनके दम तोड़ने की ख़बर मिल रही है.

24 मार्च को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉकडाउन की घोषणा की थी तो उन्होंने अतिआत्मविश्वास दिखाते हुए दावा किया था कि 21 दिन में कोरोना को नियंत्रण में कर लिया जाएगा. लेकिन कई महीने बीतने के बाद भी, कोरोना महामारी देश में तबाही मचा रही है.

प्रधानमंत्री मोदी के कोरोना को नियंत्रित करने के पूरे ना हो सके वादों पर मीडिया ने उनसे तीखे सवाल नहीं पूछे. ज़ाहिर तौर पर स्वास्थ्य सेवाएं पहले से कुछ बेहतर स्थिति में हैं, अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या बढ़ी है, आईसीयू यूनिट भी बढ़े हैं. अब पहले से ज़्यादा टेस्ट किट हैं और फ़ील्ड अस्पताल भी हैं.

लेकिन इस दौरान आम लोगों की परेशानियां भी बढ़ी हैं और कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ाई के जनआंदोलन बनने का कोई सबूत नहीं दिखता. ये बस फ्रंटलाइन डॉक्टरों, मेडिकल स्टाफ़ और प्रशासन की लड़ाई बनकर रह गया है.

वरिष्ठ पत्रकार पंकज वोहरा भारतीय मीडिया की स्थिति पर अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए कहते हैं, “जागरुकता ही लोकतंत्र की क़ीमत है लेकिन मीडिया ने अपनी इस आलोचनात्मक प्रशंसा की भूमिका को पूरी तरह नहीं निभाया है.”

लंदन में रह रहे एक शीर्ष भारतीय पत्रकार ने अपनी पहचान ज़ाहिर न करने की शर्त पर बताया कि बीते कुछ सालों का ट्रेंड स्पष्ट है, मीडिया सरकार के इशारों पर चल रही है.

वो कहते हैं, “भारत में कोरोना महामारी को लेकर जिस तरह मीडिया ने कवरेज की है, वो मीडिया की पारंपरिक भूमिका के ख़िलाफ़ रही है. मीडिया हमेशा से सत्ता में बैठे लोगों को ज़िम्मेदार ठहराती रही है. आदर्श परिस्थितियों की तुलना वास्तविकता से की जाती रही है. मीडिया की आदर्श भूमिका और वास्तविकता की तुलना भी होनी चाहिए. भारत में ये फ़ासला इतना बड़ा कभी भी नहीं था.”

संस्थानों का तिरस्कार?

शिकागो यूनिवर्सिटी में क़ानून और राजनीतिक विज्ञान पढ़ाने वाले प्रोफ़ेसर टॉम गिंसबर्ग ने भारत में प्रधानमंत्री मोदी के उत्थान को क़रीब से देखा है. भारत आते-जाते रहने वाले प्रोफ़ेसर टॉम बताते हैं कि क्यों भारत में मीडिया अपने उद्देश्य से भटका हुआ नज़र आ रहा है.

बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए वो कहते हैं, “भारत में मीडिया नियंत्रित है क्योंकि मालिक उनके (प्रधानमंत्री के) दोस्त हैं, साथ ही पत्रकारों को डराया-धमकाया भी गया है.”

आधिकारिक तौर पर सत्ताधारी बीजेपी किसी भी चैनल की मालिक नहीं है. हालांकि कई बड़े समाचार चैनल स्पष्ट तौर पर प्रधानमंत्री मोदी के तरफ़दार दिखाई देते हैं. वो हिंदुत्ववादी विचारधारा का समर्थन करते हैं या फिर किसी न किसी तरह उनके मालिक सत्ताधारी पार्टी से जुड़े हैं. कई क्षेत्रीय पार्टियों के सदस्य या समर्थक भी किसी न किसी तरह मीडिया के मालिकाना हक़ से जुड़े हुए हैं. ये चैनल इन पार्टियों के पक्ष में एक तरह का माहौल तैयार करते हैं.

सरकार पर पत्रकारों को डराने-धमकाने और उनकी पत्रकारिता को प्रभावित करने के भी कई आरोप हैं. वैश्विक मीडिया फ्रीडम की सूची में भारत का प्रदर्शन लगातार ख़राब हो रहा है और प्रशासन की ओर से पत्रकारों के ख़िलाफ़ केस दर्ज करने के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं.

प्रोफ़ेसर टॉम कहते हैं कि लोकलुभावन नेता संस्थाओं का तिरस्कार करते ही हैं.

वो कहते हैं, “ब्राज़ील, भारत और अमरीका में लोकलुभावनवाद को बढ़ावा देने वाले नेता हैं और उन्हें संस्थान पसंद नहीं है. उन्हें ऐसी कोई चीज़ पसंद नहीं है जो लोगों से उनके रिश्तों को प्रभावित कर सके. दिलचस्प बात ये है कि इन तीनों देशों के नेताओं का कोरोना वायरस के प्रति रिस्पांस बेहद ख़राब रहा है. हम देख सकते हैं कि इन तीनों ही देशों में कोरोना संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं.”

अमरीका की जॉन्स हॉप्किन्स युनिवर्सिटी के डैशबोर्ड के अनुसार जिन तीन देशों में कोरोना संक्रमण के मामले सबसे अधिक हैं उनमें सबसे पहला अमरीका, दूसरा ब्राज़ील और तीसरा भारत है.

जॉन्स हॉपकिन्स युनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर स्टीव हेंके कहते हैं कि दुनियाभर में जनवादी नेता वैश्विक संकट का इस्तेमाल सत्ता हथियाने में करते हैं. वो कहते हैं, “संकट समाप्त हो जाता है लेकिन सत्ता उनके हाथ में बनी रहती है.”

कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ लड़ाई को मोदी के ‘जनआंदोलन’ बना देने को भी वो इसी तरह देखते हैं.

प्रोफ़ेसर हेंके कहते हैं, “कोरोना महामारी के वक़्त ऐसा लगता है कि मीडिया को मोदी ने अपने नियंत्रण में ले लिया है. वो जो चाहते हैं मीडिया में वही दिखाया जा रहा है. सरकार के कोरोना संकट से निपटने के प्रयासों से जुड़ी सकारात्मक और प्रेरणादायक कहानियां ही प्रकाशित हो रही हैं.”

प्रोफ़ेसर टॉम गिंसबर्ग कथित सत्ता हथियाने को देखने का एक दूसरा नज़रिया पेश करते हैं. डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग या स्लो मोशन में सत्ता हथियाना इसे कहते हैं.

वो कहते हैं “डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग के लक्षण ये हैं- नेताओं द्वारा लोकतांत्रिक संस्थानों का धीरे-धीरे क्षरण करना, और ताक़त हासिल करने के लिए चुनावों का इस्तेमाल करना, संसद और मीडिया में दिखना बंद करना, विरोध की आवाज़ों को राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर या झूठे मुक़दमों के ज़रिए दबाना, काल्पनिक तथ्य पेश करना, पिट्ठू मीडिया के ज़रिए विचारधारा तय करना.”

डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग धीरे-धीरे ऐसी घटनाओं के ज़रिए होती है जो वैध दिखती हैं. इसका मतलब ये है कि मीडिया संस्थान लोकतंत्र के इस क्षरण को देख नहीं पाते हैं या समझ नहीं पाते हैं.

भारत के संदर्भ में देखा जाए तो प्रोफ़ेसर टॉम गिंसबर्ग कहते हैं, “भारत में चुनिंदा कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार किया जा रहा है और चुनिंदा लोगों को छोड़ा जा रहा है. मुझे विश्वविद्यालयों की भी चिंता हैं जो लोकतंत्र के लिए बेहद ज़रूरी संस्थान हैं. आप भारत में विश्वविद्यालयों के राजनीतिकरण के संकेत देख रहे हैं.”

प्रोफ़ेसर टॉम लोकतंत्र के विश्लेषण का ही काम करते हैं और वो भारतीय लोकतंत्र को लेकर चिंतित हैं. उनकी नज़र में स्कूल की किताबों में इतिहास को बदलना, ऐतिहासिक स्थलों में बदलाव भी लोकतंत्र के कमज़ोर होने के ही सबूत हैं.

अघोषित आपातकाल?

प्रोफ़ेसर टॉम कहते हैं कि राजनीति अब इतनी बदल गई है कि सत्ता हथियाने के लिए तख़्तापलट करने या आपाताकाल घोषित करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती.

अगर इंदिरा गांधी आज प्रधानमंत्री होतीं तो उन्हें आपातकाल घोषित करके लोकतंत्र को निलंबित करने की ज़रूरत नहीं पड़ती जैसे उन्होंने 1975-77 के बीच किया था.

वो कहते हैं, “हमारे दौर में सत्ता को हथियाने के लिए तख़्तापलट या वामपंथी विद्रोह की ज़रूरत नहीं है. आज आप मीडिया को नियंत्रित करके एक-एक करके सभी संस्थानों पर क़ब्ज़ा कर सकते हैं.”

आपातकाल के पैंतालीस साल पूरे होने पर हाल ही में राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव ने एक लेख लिखा था. वो प्रोफ़ेसर टॉम के तर्क से सहमत दिखते हैं.

वो कहते हैं, “आपातकाल के लिए एक औपचारिक क़ानूनी घोषणा की गई थी. लेकिन लोकतंत्र हथियाने के लिए ऐसा नहीं करना पड़ता. कम से कम काग़ज़ों पर ही सही लेकिन आपातकाल का अंत होना था. अब नई व्यवस्था जिसमें हम रह रहे हैं, वो शुरू तो हो गई है लेकिन किसी को नहीं पता कि उसका अंत होगा या नहीं. लोकतंत्र के प्रति ख़तरा कहीं दूर भविष्य में नहीं है, बल्कि हम ऐसे दौर में रह रहे हैं जब लोकतंत्र को मिटाया जा रहा है.”

प्रोफ़ेसर टॉम कहते हैं कि डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग या धीरे-धीरे क़ानूनी तरीक़ों से सत्ता को हथियाते जाने की दिक्कत ये है कि विपक्ष को कभी पता ही नहीं चल पाता है कि अब पानी सिर से ऊपर चला गया है और अब हमें सड़कों पर उतरना है और प्रदर्शन करना है. अगर वो कुछ जल्दी जनता के बीच जाते हैं और प्रदर्शन करते हैं तो लोगों को लगता है कि वो सत्ता के भूखे हैं और अगर वो देर करते हैं तो फिर सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन करने का समय भी निकल जाता है.

बंटा हुआ विपक्ष

पत्रकार पंकज वोहरा तर्क देते हैं कि यदि आज जो हालात हैं वो ऐसे नहीं होने चाहिए थे तो इसके लिए सिर्फ़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही अकेले ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.

वो कहते हैं, “कांग्रेस के पतन ने बीजेपी को संस्थानों को नज़रअंदाज़ करने की ताक़त दी है. कई मामलों में तो संस्थानों को कमज़ोर करने की ज़रूरत भी नहीं पड़ी क्योंकि पर्याप्त मात्रा में लोग सरकार जो कर रही है उससे सहमत थे. हां, ऐसी परिस्थितियों में, आपातकाल जैसे क़दम उठाने की कोई ज़रूरत नहीं पड़ती है.”

“विपक्ष बंटा हुआ है जो बहुसंख्यकवादी समुदाय के पुनरुत्थान का सामना करने से डर रहा है. सत्ताधारी दल एजेंडा सेट कर रहा है और विपक्ष उसका विकल्प नहीं दे पा रहा है. ऐसे में लोग बिना किसी सार्वजनिक दबाव के ही सत्ता पक्ष की ओर झुकते जाते हैं. कुछ सीमित मामलों में विरोध करने वाले लोगों को इसका खमियाज़ा उठाना पड़ा है. ये एक अनूठी और दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति है जहां लोग सत्ता पक्ष को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकते हैं और देश जिन परिस्थितियों में है उसके विरोध को भी विमुक्त नहीं कर पा रहे हैं.”

पंकज वोहरा कांग्रेस से ज़्यादा निराश हैं. वो कहते हैं, जवाब कांग्रेस को ही देना चाहिए क्योंकि उसके नेताओं ने सिर्फ़ जनता ही नहीं अपने कार्यकर्ताओं का भी भरोसा तोड़ा है. इससे मोदी का काम बहुत आसान हो गया है.

बीते साल दिसंबर में जब नागरिकता संशोधन क़ानून पर संसद में बहस हो रही थी तब मोदी संसद के दोनों सदनों में अनुपस्थित रहे. उनकी ग़ैर-मौजूदगी पर सबकी नज़र गई.

प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में सीबीआई और ईडी जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियों की छापेमारी की कार्रवाइयां बढ़ी हैं. अधिकतर छापे सरकार के आलोचकों या विरोधियों के ठिकानों पर पड़े हैं. कई बार ये छापे राजनीतिक संकट के बीच में हुए हैं. जैसे की राजस्थान में चल रहे सियासी संकट के दौरान केंद्रीय एंजेंसियों ने छापेमारी की है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने अपने पांच साल के पहले कार्यकाल में एक बार भी औपचारिक प्रेसवार्ता नहीं की है. दूसरे कार्यकाल में भी अभी तक उन्होंने कोई प्रेसवार्ता नहीं की है. मीडिया को कुछ साक्षात्कार दिए गए हैं, लेकिन इन साक्षात्कारों की मुश्किल सवाल न पूछे जाने के कारण आलोचना ही हुई है.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी की मोदी को चुनौती न दे पाने को लेकर आलोचना होती रही है. लेकिन वो विपक्ष के उन गिने-चुने नेताओं में शामिल हैं जिन्होंने मोदी से असहज करने वाले सवाल पूछे हैं. वो अलग-अलग मुद्दों पर लगातार ट्वीट कर रहे हैं. कोरोना महामारी को लेकर सरकार के रिस्पॉन्स पर भी वो सवाल उठाते रहे हैं. लद्दाख में चीन की घुसपैठ पर भी उन्होंने जमकर सवाल पूछे हैं लेकिन आमतौर पर राहुल गांधी की आलोचना या सवालों को राष्ट्रविरोधी या हिंदू विरोधी कहकर खारिज कर दिया जाता रहा है.

मोदी पर हमलों को लेकर भी राहुल गांधी की आलोचना भी होती रही है. 2019 चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने मोदी को चोर बताते हुए नारा दिया था चौकीदार ही चोर है. कांग्रेस के कई नेता और वरिष्ठ पत्रकार मानते हैं कि ये नारा सही नहीं था.

पूरे विश्व में कमज़ोर हो रहे हैं लोकतंत्र?

प्रोफ़ेसर टॉम गिंसबर्ग कहते हैं, नेताओं का सत्ता को अपने नियंत्रण में करने के लिए लोकतंत्र को कमज़ोर करने का तरीक़ा कई देशों में देखा जा रहा है. इनमें से संविधानिक संशोधन करना, सरकार के दूसरे हिस्सों में दख़ल देना, नौकरशाही को अपने नियंत्रण में करना, प्रेस की आज़ादी में दखल देना और चुनावों को प्रभावित करना शामिल हैं.

प्रोफ़सर टिम गिंसबर्ग के सहयोगी प्रोफ़ेसर अज़ीज़ उल हक़ कहते हैं, “लोकलुभावनवादी नेताओं को ताक़त अपने समर्थकों से मिलती है जो हर परिस्थिति में उनका गुणगान करते रहते हैं.”

वो कहते हैं, “आज लोकलुभावनवादी नेताओं में एक बात सामान्य है, ये स्नेपशॉट डेमोक्रेसी को बढ़ावा देते हैं. यानी जब तक इनके पास संख्या बल है ये जो चाहेंगे करेंगे भले ही वो स्तंभ कमज़ोर हों जिन पर लोकतंत्र टिका है.”

ब्राज़ील, भारत और अमरीका में क्या बात आम है? आज ये तीनों ही देश कोरोना संक्रमित देशों की सूची में शीर्ष पर हैं. लेकिन इन तीनों ही देशों के नेता, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और ब्राज़ील के राष्ट्रपति जाएर बोलसोनारो चाहते हैं कि हम ये बात मानें कि उन्होंने बहुत अच्छा काम किया है और वैश्विक महामारी को रोकने में उनका काम शानदार रहा है.

लोकतंत्र को दोबारा मज़बूत करना मुश्किल होगा?

प्रोफ़ेसर टॉम गिंसबर्ग और शिकागो यूनिवर्सिटी में उनके सहकर्मी प्रोफ़ेसर अज़ीज़ हक़ ने एक किताब लिखी है जिसका नाम है हाउ टू सेव ए कांस्टीट्यूशनल डेमोक्रेसी या संविधानिक लोकतंत्र को कैसे बचाया जाए. इस किताब में उन्होंने सिर्फ़ लोकतंत्र के धीरे-धीरे कमज़ोर होने का ही ज़िक्र नहीं किया है बल्कि इससे निबटने के समाधान भी सुझाए हैं.

ये दोनों ही शिक्षाविद मानते हैं कि हमेशा ही एक चुनाव से रास्ता बदल देने का मौका बना रहता है.

प्रोफ़ेसर टॉम कहते हैं, “हमने ऐसे लेख लिखे हैं जिनमें हमने बताया है कि लोकतंत्र कमजोर पड़ रहा था और फिर कुछ ऐसा हुआ कि सब कुछ ठीक हो गया. लोकतंत्र को बचा लिया गया. श्रीलंका में, महिंदा राजपक्ष की पहली सरकार के दौरान, जब वो पूरी व्यवस्था को अपने हाथ में लेने की कोशिश कर रहे थे, चुनाव हुआ और हैरतअंगेज़ तरीक़े से वो हार गए. हां, वो फिर से सत्ता में हैं लेकिन डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग को रोक दिया गया.

ऐसा नहीं है कि सब कुछ बर्बाद हो गया है या सबकुछ बहुत अच्छा है. दोनों प्रोफ़ेसर कहते हैं कि लोकतंत्र में लोग हमेशा ही किसी न किसी बात को लेकर नाराज़ रहते हैं क्योंकि उन्हें अभिव्यक्ति की आज़ादी होती है.

प्रोफ़ेसर टॉम कहते हैं, “अगर आप वामपंथी चीन में जाएं तो लोग मिलेंगे जो कहेंगे कि वो ख़ुश हैं, लेकिन हम नहीं जानते कि वो सोच क्या रहे हैं. मैं तो यही कहूंगा कि आज भी भारत और चीन के बीच तुलना की जा रही है. चीन तो समूचे धर्म का ही नाश करने पर तुला है. चीन वीगर मुसलमानों के उत्पीड़न को लेकर लगाए जाने वाले आरोपों को हमेशा से ही ख़ारिज करता रहा है.”

किसी लोकतंत्र के ज़िंदा रहने के लिए प्रयोग करते रहना ज़रूरी है.

प्रोफ़ेसर टॉम कहते हैं, “अभी हम लोकतंत्र में 18वीं सदी की तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं. आप हर चार-पांच साल में वोट करते हैं और सरकार चुनते हैं. ये आज के इक्कीसवीं सदी के समाज के लिए फिट नहीं बैठता. ये ज़रूरी है लेकिन पर्याप्त नहीं है. लोग अब सरकार में शामिल होना चाहते हैं. वो चाहते हैं कि उन्हें सुना जाए. हम सीख रहे हैं. कई देशों में जनता को शामिल करने के प्रयोग किए जा रहे हैं और जनता की भूमिका को सिर्फ़ एक बार वोट देने से आगे बढ़ाया जा रहा है.”

प्रोफ़ेसर अज़ीज़ हक़ अमरीका का उदाहरण देते हुए कहते हैं, “मैं अमरीका की बात करना चाहूंगा. मेरा मानना है कि इस समय अमरीका के लोकतंत्र को अपने मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से अस्तित्व का ख़तरा है . यदि नवंबर में फिर से ट्रंप को चुन लिया जाता है तो इससे पता चलेगा कि अमरीका के लोगों में अब लोकतंत्र के प्रति कोई सम्मान नहीं है. उन्हें इसकी परवाह ही नहीं है.”

भारत में आम चुनाव चार साल बाद होंगे. लेकिन उससे पहले कई राज्यों में विधानसभा के लिए चुनाव होंगे. हालांकि विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर ही लड़े जाते हैं लेकिन उनके नतीजे भी बताते हैं कि लोगों को लोकतंत्र की कितना चिंता है.

courtesy : BBC Hindi (

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