गौरी लंकेश की हत्या ने देश में पत्रकारों की सुरक्षा और प्रेस की आज़ादी की बहस को एक बार फिर से जिंदा कर दिया है. ये हत्या अपनी तरह की कोई अनोखी वारदात नहीं है. देश में इससे पहले भी दर्जनों पत्रकार इस पेशे को अपनाने की कीमत अपनी जान देकर अदा कर चुके हैं. उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में वर्ष 2015 में पत्रकार जोगेन्द्र सिंह को सरेआम जिंदा जला दिया गया. उसकी हत्या का आरोप उत्तर प्रदेश सरकार के एक तत्कालीन मंत्री पर लगा था. उसी तरह पिछले साल उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में कुछ ही दिनों के अन्तराल पर तीन पत्रकारों की हत्या कर दी गई थी, जिसमें बिहार के सीवान में दैनिक हिन्दुस्तान के ब्यूरो चीफ राजदेव रंजन, झारखंड के चतरा में एक स्थानीय न्यूज चैनल के पत्रकार अखिलेश प्रताप सिंह और उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर के एक स्थानीय पत्रकार करुण मिश्रा के नाम शामिल थे.

राजदेव रंजन की हत्या का आरोप सीवान के पूर्व सांसद मो. शहाबुद्दीन पर लगा, जबकि शेष दो पत्रकारों की हत्या में भी स्थानीय माफिया और राजनेताओं के गठजोड़ की बात सामने आई थी. ज़ाहिर है यह सूची यहीं खत्म नहीं होती. इन घटनाओं से पहले और बाद में भी पत्रकारों की हत्या का सिलसिला जारी रहा. गौरी लंकेश की हत्या के कुछ दिनों बाद ही बिहार के अरवल जिले में एक पत्रकार पंकज मिश्र पर जानलेवा हमला हुआ. इन हत्याओं, पत्रकारों पर होने वाले हमलों और उनको मिलने वाली धमकियों से यह ज़ाहिर होता है कि देश में पत्रकार न केवल असुरक्षित हैं, बल्कि अभिव्यक्ति की आज़ादी को भी चोट पहुंचाने की लगातार कोशिशें हो रही हैं. इसके लिए कोई एक सरकार या कोई एक विचारधारा ज़िम्मेदार नहीं है, बल्कि हर रंग और विचारधारा के लोग अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटने की साजिश में शामिल हैं.

भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलने की कोशिश हर स्तर पर हो रही है. जहां एक तरफ मुख्यधारा का मीडिया ख़बरों को लोगों तक पहुंचाने के बजाय उसे दबाने की कोशिश कर रहा है. जो काम देश की मुख्यधारा के मीडिया को करना चाहिए, वो काम सोशल मीडिया कर रहा है. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ऐसी ख़बरों को लोगों तक पहुंचा रहे हैं, जिन्हें ताक़तवर और सत्ताधीश दबाना चाहते हैं. लेकिन सोशल मीडिया ने फेक न्यूज़ के बाज़ार को भी गर्म कर रखा है. इनकी देखादेखी मुख्यधारा के समाचार माध्यम भी फेक न्यूज़ के कारोबार में संलिप्त हो गए हैं. चौथी दुनिया ने अपने पिछले अंकों में फेक न्यूज़ के बाज़ार पर कई रिपोर्टें प्रकाशित की हैं. बहरहाल, सोशल मीडिया पर भी अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलने के लिए कई तरह के ट्रोलर्स छूटे सांड की तरह घूम रहे हैं. दरअसल ट्रोलिंग भी रोज़गार बन गया है. यहां न केवल अपशब्द कहे जाते हैं, बल्कि गालियां और जान से मारने की धमकी भी दी जाती है. गौरी लंकेश की हत्या के बाद भी कई तरह के ट्रोलर्स सक्रिय हुए. एक ने तो उन्हें कुतिया तक कह दिया और जो उनके लिए हमदर्दी के बयान दे रहे थे, उन्हें पिल्लों का ख़िताब मिला.

बहरहाल थोड़ा पीछे मुड़ कर देखें तो सरकारी स्तर पर पर भी प्रेस की आवाज़ को दबाने की ख़बरें मिल जाती हैं. जुलाई 2015 में छत्तीसगढ़ में चार पत्रकारों संतोष यादव, समारू नाग, प्रभात सिंह और दीपक जायसवाल को गिरफ्तार किया गया. ख़बरों के मुताबिक उन्हें गिरफ्तार कर पुलिस ने यातनाएं भी दी थीं. उस समय प्रेस काउंसिल ऑ़फ इंडिया के तत्कालीन चेयरमैन जस्टिस चंद्रमौली कुमार प्रसाद को हस्तक्षेप करते हुए प्रभात सिंह की गिरफ्तारी पर राज्य सरकार से रिपोर्ट मांगनी पड़ी थी. दरअसल छत्तीसगढ़ में पत्रकार दोहरी मार के शिकार हैं, जहां सरकार और पुलिस के खिलाफ रिपोर्टिंग करने पर उन्हें पुलिस और प्रशासन द्वारा फर्जी मामलों में फंसा कर गिरफ्तार कर लिया जाता है. वहीं पत्रकारों को स्थानीय गुंडों और नेताओं का भी शिकार होना पड़ता है.

बहरहाल, गौरी लंकेश की हत्या चाहे जिन कारणों से हुई हो, लेकिन एक बात तो तय है कि इस हत्या ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत में प्रेस की आज़ादी और पत्रकारों की दयनीय स्थिति की पोल खोल कर रख दी है. पिछले कुछ वर्षों से भारत में हो रहे पत्रकारों पर जानलेवा हमलों का सिलसिला वर्ष 2017 में भी जारी रहा. इन घटनाओं ने भारत को पत्रकारों की सुरक्षा की दृष्टि से दुनिया के सबसे खतरनाक देशों की श्रेणी में खड़ा कर दिया है. इस की पुष्टि आईपीआई और रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स की समय-समय पर प्रकाशित रिपोर्टों और भारत में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा जारी रिपोर्टों से भी हो जाती है. एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2014-15 के दौरान भारत में पत्रकारों पर कुल 142 हमले हुए जिनकी शिकायत दर्ज कराई गई. इस वर्ष जुलाई में मानसून सत्र के दौरान राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर ने एनसीआरबी के आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया था कि पत्रकारों पर हुए 142 हमलों के मामले में 73 लोगों को गिरफ्तार किया गया है. एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक इन 142 मामलों में 2014 और 28 मामले 2015 में दर्ज किए गए.

इस मामले में उत्तर प्रदेश (64 वारदातों के साथ) पहले स्थान पर रहा, जबकि मध्य प्रदेश (26) और बिहार(22) दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे हैं. पत्रकारों पर हुए 79 प्रतिशत हमले केवल इन तीन राज्यों में हुए. कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 1992 और 2016 के बीच भारत में कुल 70 पत्रकार मारे गए हैं. उनमें से 40 की हत्या के उद्देश्यों का पता चल चुका है, शेष मामले अभी अदालतों में चल रहे हैं. रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स (आरडब्लूबी) द्वारा जारी वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 180 देशों की सूची में 136 वें स्थान पर है. पिछले वर्ष की तुलना में भारत की रैंकिंग में 3 अंक की गिरावट दर्ज की गई है. रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत पत्रकारों के लिए दुनिया के सबसे खतरनाक देशों की सूची में तीसरे स्थान पर था.

पहले पत्रकारों की हत्याओं के मामले में यह कहा जाता था कि छोटे शहरों के पत्रकार अपराधियों के आसान शिकार होते हैं. छोटे शहरों के पत्रकार अधिक असुरक्षित होते हैं. उनकी रिपोर्टिंग अधिकतर स्थानीय भ्रष्टाचार, ग्राम पंचायत के फैसलों, जन सुनवाई में अधिकारी की अनुपस्थिति, ग्राम सभा की गतिविधियों, सड़कों की बदहाली, बिजली की समस्या, स्थानीय अधिकारियों, विधायकों के कारनामों और स्थानीय आपराधिक मामलों आदि पर केंद्रित रहती है. लेकिन यदि बंगलुरू जैसे शहर में एक प्रतिष्ठित पत्रकार की यूं हत्या हो जाए तो उसे क्या कहा जाए? यह स्थिति अधिक चिंताजनक इसलिए हो जाती है कि उनकी हत्या को सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने उचित ठहराना शुरू कर दिया. यह न सिर्फ कानून व्यवस्था पर एक सवालिया निशान है, बल्कि इससे यह सवाल भी पैदा होता है कि एक समाज के तौर पर हम किस दिशा में जा रहे हैं?

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