जिस दिन देश भर से आए लाखों लोग, बाक़ी तीरथ बार-बार, गंगासागर एक बार का जयकारा लगा रहे थे, उसी दिन कोलकाता में हिंदी के नन्हे महारथी हाथों में बैनर थामे भूगोल के प्रश्नपत्र हिंदी में देने की गुहार लगा रहे थे. आख़िर वे करें भी क्या? हिंदी के मामले में बंगाल सरकार धीरे-धीरे मुट्ठी जो खोल रही है. ठीक उस सयाने अभिभावक की तरह, जो बच्चे को एक चॉकलेट देकर दूसरा स़िर्फ दिखाकर रख लेता है कि वह फिर मनुहार करेगा. हालांकि हिंदी की जंग एक तरह से जीत ली गई है और इन नन्हें महारथियों को थोड़ा और जोर लगाने की ज़रूरत है. पहले गणित, फिर विज्ञान विषय और अब इतिहास के सवाल हिंदी में छापने का ऐलान हुआ है, पर भूगोल को छोड़ दिया गया है.

पश्चिम बंगाल में बांग्लाभाषी छात्र छात्राओं के बाद सबसे ज़्यादा संख्या हिंदी भाषियों की है. बावजूद इसके माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक परीक्षाओं में उन्हें हिंदी में प्रश्नपत्र उपलब्ध नहीं कराए जाते. पश्चिम बंगाल छात्र संघर्ष समिति के बैनर तले छात्रों के संघर्ष को पूरी कामयाबी अभी भी नहीं मिल पाई है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि सरकार किसी भाषाई पूर्वाग्रह से तो ग्रसित नहीं है?

पश्चिम बंगाल छात्र संघर्ष समिति के बैनर तले हिंदी स्कूलों के छोटे-छोटे बच्चे अपनी पढ़ाई एवं खेलने के समय में कटौती कर सड़कों पर बैनर थामे आंदोलन करते आ रहे हैं. इस आंदोलन को वर्षों तक अनसुना किया गया. कई बार इन बच्चों पर लाठियां भांजी गईं और हिंदी में प्रश्नपत्र देने से गोपनीयता भंग होगी, कहकर उनके चरित्र पर उंगली उठाई गई. पर, पीछे नहीं हटे हिंदी के नन्हें महारथी. किस्तों में ही सही, उन्हें जीत का स्वाद मिलता रहा. हिंदी में सवाल समझ कर इम्तहान देने के इंतज़ार में एक पूरी पीढ़ी वयस्क हो गई. हर साल माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक परीक्षाओं की मेरिट लिस्ट निकलती है, पर टॉप 10 में भी हिंदीभाषी छात्र नहीं के बराबर होते हैं. हिंदी के नौनिहालों का तर्क होता है कि हम पढ़ते हैं हिंदी माध्यम के स्कूलों में और प्रश्नपत्र आते हैं अंग्रेजी में. आफत शिक्षकों के लिए भी रही है, क्योंकि उन्हें सारे विषयों के सवालों का अंग्रेजी अनुवाद कर छात्रों को समझाना पड़ता है.
माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक परीक्षाओं में हिंदी में प्रश्नपत्र देने की मांग 1994 से हो रही है. दो दशक पहले कोलकाता के एक वकील ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया तो सरकार ने सिर्फ एक विषय यानी गणित में हिंदी में पर्चा देने का सिलसिला शुरू किया. उसके बाद से वह जैसे आंदोलन की राह देखती रही. छात्रों ने हस्ताक्षर अभियान चलाया. छिटपुट आंदोलन हर साल होते रहे, पर सरकार के कानों तक आवाज़ नहीं पहुंच रही थी. आख़िर में 1994 में राज्य भर से आए छात्रों, शिक्षकों, बुद्धिजीवियों एवं अभिभावकों ने पश्चिम बंगाल छात्र संघर्ष समिति का गठन किया. 1996 में पूरे राज्य के प्रतिनिधियों को लेकर एक रैली हुई और कमेटी का एक प्रतिनिधिमंडल तत्कालीन गृहमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य से मिला. हर बार समस्या पर सहानुभूति पूर्वक विचार करने का आश्वासन मिला. जब-जब विधानसभा या लोकसभा चुनाव आए, सरकार के मुखिया और उनके मंत्रियों ने इसी तरह का भरोसा दिलाया. चुनावी भाषणों में मुख्यमंत्री ने इस मांग को जायज़ माना तो चुनाव बीतने के बाद शिक्षा विभाग ने कई तरह की बाधाएं बताकर मांग नामंजूर कर दी. इस दौरान शिक्षा विभाग के लोगों ने ग़लतबयानी भी की. मिसाल के तौर पर विधानसभा की पिटीशन कमेटी के सामने पश्चिम बंगाल माध्यमिक शिक्षा परिषद एवं उच्च माध्यमिक परिषद ने दावा किया कि किसी राज्य में दो से ज़्यादा भाषाओं में प्रश्नपत्र नहीं दिए जाते. जबकि उत्तर प्रदेश और बिहार में तीन-तीन भाषाओं में प्रश्नपत्र दिए जाते हैं. असम में भी असमिया, अंग्रेजी और बांग्ला में पर्चे दिए जाते हैं. वहां के बांग्लाभाषियों ने इसके लिए आंदोलन नहीं किया था, बल्कि यह सरकार के सभी वर्गों का हित सोचने के नज़रिए के कारण हुआ. इसके अलावा महाराष्ट्र और राजस्थान जैसे दूसरे राज्यों में तीन-तीन भाषाओं में प्रश्नपत्र देने की व्यवस्था है.
माध्यमिक शिक्षा परिषद का एक बड़ा बहाना था कि हिंदी में प्रश्नपत्र देने से गोपनीयता भंग होगी. सवाल यह है कि अंग्रेजी और बांग्ला के अलावा नेपाली में प्रश्नपत्र देने से अगर गोपनीयता बरक़रार रह पाती है तो हिंदी संस्करण छपते ही यह गोपनीयता कैसे भंग हो जाएगी? सरकार 1997 की माध्यमिक परीक्षा में भूगोल और गणित के पर्चे लीक होने की उस घटना को भी जानबूझ कर भूलती रही, जिसमें मामले का पर्दाफाश करने के लिए एक आदमी परीक्षा से पहले ही माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के सचिव की मेज पर पर्चा रख गया. इसे लेकर बहुत बवाल हुआ. हिंदी के ख़िलाफ चलाए जा रहे कुतर्क की याद दिलाए जाने पर लोग बगले झांकने लगे.
संघर्ष समिति के सचिव जुबेर रब्बानी ने बताया कि परीक्षार्थी सवाल ठीक-ठीक समझ सकें, इसीलिए उनकी मातृभाषा में पर्चे दिए जाते हैं. जहां हज़ारों की संख्या में परीक्षार्थी हों, वहां प्रश्नपत्र उनकी मातृभाषा में ही होने चाहिए. विधानसभा की पिटीशन कमेटी के सामने वर्ष 2002 में राज्य की माध्यमिक परीक्षा में शामिल हुए छात्रों की संख्या भी बताई गई, जिसके मुताबिक़ बांग्ला के 4,74,788 हिंदी के 44,253 नेपाली के 6,493 और अंग्रेजी माध्यम के 383 परीक्षार्थी थे. हर साल आंकड़े का अनुपात इसी के आसपास रहता है. मतलब बांग्ला माध्यम के छात्रों के बाद सबसे ज़्यादा तादाद हिंदी माध्यम के परीक्षार्थियों की होती है.
विभिन्न हिंदी स्कूलों के 22 छात्रों, ओम प्रकाश जायसवाल और विधायक डॉ. प्रवीण कुमार साव के हस्ताक्षरों से युक्त याचिका पर सुनवाई करने वाली विधानसभा की पिटीशन समिति को स्कूल शिक्षा विभाग ने ढेर सारे तर्क दिए. बताया गया कि बंगाल में दूसरी कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाई जाती है और 10वीं तक पहुंच कर अगर छात्र अंग्रेजी में प्रश्नपत्र नहीं समझ पाता है तो यह उसकी समझदारी की सीमा को दर्शाता है. विभाग ने यह भी तर्क दिया कि छात्रों को यह आज़ादी है कि परीक्षा भवन के निरीक्षकों से प्रश्नपत्र समझ सकें, पर उसके अ़फसर यह भूल गए कि इसके लिए निरीक्षकों को भी हिंदी आनी चाहिए. विभाग ने अनुवाद में लगने वाले भारी ख़र्च का भी रोना रोया. आख़िर में समिति ने नियम 13(सी)1 का हवाला देते हुए माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक परीक्षाओं के पर्चे पांच भाषाओं यानी हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी, नेपाली और उर्दू में प्रकाशित करने का सुझाव दिया.
गत 14 जनवरी को भूगोल के पर्चे हिंदी में देने की मांग करते हुए छात्र संघर्ष समिति के बैनर तले स्कूली छात्रों ने जुलूस निकाला और राज्य के माध्यमिक शिक्षा परिषद को ज्ञापन दिया. संघर्ष समिति के संयुक्त सचिव उपेंद्र यादव ने चौथी दुनिया से बातचीत में इतिहास के पर्चे हिंदी में देने के आठ जनवरी के फैसले का स्वागत किया. साथ ही भूगोल के अलावा उच्च माध्यमिक के पर्चे हिंदी में देने की मांग को लेकर आंदोलन जारी रखने का ऐलान भी किया. इसके बाद समिति शिक्षा मंत्री पार्थ डे को भी ज्ञापन देने वाली है. समिति को सुशील कुमार मुखर्जी जैसे बांग्ला बुद्धिजीवियों और हिंदी मीडिया का भरपूर समर्थन मिलता रहा है. इसी के बूते उसे आख़िरी जंग जीतने की उम्मीद है. वैसे भी उम्मीद की जानी चाहिए कि अगर इतिहास ठीक हो गया तो अगले साल तक भूगोल भी सुधर जाएगा, क्योंकि 2011 विधानसभा चुनावों का साल है. कौन जाने सरकार ने तोह़फे के तौर पर देने के लिए इसे रख लिया हो.

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