hashimpuraदेश में आम आदमी को न्याय मिलने की सारी संभावनाएं उस वक्त खत्म हो जाती हैं, जब सारा तंत्र किसी मामले की लीपापोती में जुट जाता है. यही हुआ है, मेरठ के हाशिमपुरा मोहल्ले में प्रोवेंशियल आर्म्स कॉन्सटेबलरी (पीएसी) की बर्बरता का शिकार हुए लोगों के साथ. 22 मई, 1987 को हाशिमपुरा के 42 मुसलमानों को पीएसी के जवान ट्रक में भरकर ले गए और उन्हें मुरादनगर के क़रीब गंग-नहर के किनारे लाइन में खड़ा करके गोली मार दी. उनमें से अधिकांश लोगों की मौक़े पर ही मौत हो गई. कुछ लोग किसी तरह बच निकले, जिन्होंने बाद में पीएसी की बर्बरता लोगों के सामने बयां की.

उस वक्त भी इस मामले को दबाने की पुरजोर कोशिश हुई थी और कोई अ़खबार इसकी खबर छापने के लिए तैयार नहीं था. उस वक्त चौथी दुनिया ने सबसे पहले इस घटना को देश के लोगों के सामने रखा था. लेकिन, आज हाशिमपुरा कांड के 28 वर्षों बाद भी पीड़ितों को न्याय नहीं मिल सका है. मार्च, 2015 में दिल्ली की तीस हज़ारी अदालत ने इस मामले की सुनवाई करते हुए सुबूतों के अभाव में पीएसी के 16 जवानों को बरी कर दिया था. इसके बाद हाशिमपुरा के लोगों ने हाईकोर्ट का रुख किया था. लेकिन, हाल में खबर आई कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने इस मामले से जुड़े दस्तावेज़ नष्ट कर दिए हैं. अंग्रेजी अ़खबार द हिंदू में छपी खबर के अनुसार, उत्तर प्रदेश की मेरठ पुलिस ने हाशिमपुरा मामले से जुड़े वे सभी दस्तावेज़ नष्ट कर दिए हैं, जिनसे पीएसी के जवानों द्वारा हाशिमपुरा के लोगों को मौत के घाट उतारने की बात साबित हो सकती.

17 फरवरी को दिल्ली हाईकोर्ट में होने वाली सुनवाई को देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार के अपर महाधिवक्ता जफरयाब जिलानी एवं सीबी-सीआईडी ने एसएसपी मेरठ से 1987 के हाशिमपुरा कांड के समय तैनात पुलिस अधिकारियों-कर्मचारियों की सूची के साथ-साथ इस मामले के अन्य सुबूत मुहैया कराने को कहा था, लेकिन एसएसपी मेरठ ने जो जवाब उन्हें भेजा, वह बेहद हैरान करने वाला है. एसएसपी मेरठ द्वारा बीती 30 जनवरी को उत्तर प्रदेश सीबी-सीआईडी को लिखे पत्र से यह मालूम होता है कि इस मामले से जुड़े दस्तावेज़ों को ग़ैर ज़रूरी मानकर एक अप्रैल, 2006 को ही छंटनी करके नष्ट किया जा चुका है.

एसएसपी मेरठ ने अपने पत्र में लिखा है कि पीएसी के जवानों की दंगे के दिन हाशिमपुरा में तैनाती से संबंधित दस्तावेज़ों को प्रस्तुत कर पाना असंभव है. सबसे ज़्यादा आश्चर्य की बात यह है कि उक्त दस्तावेज़ों को उस समय ग़ैर ज़रूरी मानकर छांट दिया गया, जब दिल्ली की तीस हज़ारी अदालत में मामले की सुनवाई चल रही थी. पत्र में यह नहीं बताया गया है कि किन वजहों से उक्त दस्ताव़ेजों की छंटनी की गई.

इस मामले को लेकर पीड़ित परिवारों की निगाहें अब दिल्ली हाईकोर्ट पर टिक गई हैं. हाशिमपुरा कांड के सुबूत नष्ट किए जाने के लिए पीड़ित परिवार सीधे तौर पर राज्य सरकार को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं. उनका मानना है कि तीस वर्ष पहले 1987 में हुए इस कांड में जब-जब न्याय की उम्मीद जगती है, तब-तब झूठ बोलकर किसी न किसी तरह अड़चन पैदा की जाती है. सुबूत नष्ट किए जाने की जानकारी मिलने के बाद पीड़ित परिवारों ने हाशिमपुरा में बैठक की. इस कांड के मुख्य चश्मदीद गवाह जुल्फिकार नसीर का कहना है कि सुबूत नष्ट हो जाने के मामले में सा़फ तौर पर झूठ बोलकर कातिलों को बचाने के प्रयास किए जा रहे हैं.

जब इस मामले की सुनवाई दिल्ली की तीस हज़ारी अदालत में हो रही थी, उस वक्त भी कुछ सुबूत नष्ट किए जाने की बात कही गई थी, लेकिन अदालत की फटकार के बाद वे सुबूत पेश किए गए. हमें उम्मीद है कि इस बार भी अदालत सरकार और पुलिस महकमे से जवाब-तलब करेगी. हम अपने वकीलों से मिलकर इस संबंध में अगला क़दम उठाएंगे.

इतना कुछ होने के बाद भी हाशिमपुरा के लोगों ने हार नहीं मानी है. उन्हें यकीन है कि इंसा़फ ज़रूर मिलेगा. और, जब तक उन्हें इंसा़फ नहीं मिलेगा, तब तक वे लड़ते रहेंगे, भले ही उन्हें सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़े. हाशिमपुरा कांड के पीड़ितों की वकील रेबेका जॉन का कहना है कि जिस एजेंसी पर पीड़ित पक्ष भरोसा कर रहा था, उसी ने सारे दस्ताव़ेज नष्ट कर दिए. यह कोई छोटा मामला नहीं है, यह एक बड़ा नरसंहार है, इसलिए इससे जुड़े दस्तावेज़ नष्ट किए जाने के लिए किसी की ज़िम्मेदारी तो तय करनी पड़ेगी, क्योंकि इस कृत्य से पीड़ितों को न्याय मिलने की आस धूमिल हो गई है.

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