M_Id_399750_Narendra_Modiभारतीय जनता पार्टी की मानें, तो इस आम चुनाव में नरेंद्र मोदी की लहर चल रही है. लहर चल रही है या नहीं, इस पर देश के लोगों की क्या राय है, दूसरे राजनीतिक दल इस पर क्या सोचते हैं या खुद भाजपा के एक धड़े का इस लहर को लेकर क्या मत है, इसके पक्ष और विपक्ष में अख़बारों में, टेलीविज़न चैनलों पर, सोशल मीडिया में खूब चर्चाएं हो रही हैं, लेकिन वह बात या मुद्दा जिसके सहारे नरेंद्र मोदी ने भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद की कामयाब दावेदारी पेश की थी, अब हाशिये पर जाता हुआ प्रतीत हो रहा है और वह मुद्दा है गुजरात मॉडल ऑफ़ डेवलपमेंट का. नरेंद्र मोदी के चुनावी भाषणों से ऐसा लगता है, जैसे वह गुजरात मॉडल को देश के दूसरे राज्यों में भी आज़माना चाहते हैं. लेकिन, यह डेवलपमेंट मॉडल है क्या? क्या गुजरात का प्रदर्शन विकास के हर सूचकांक पर इतना अच्छा है कि जिसका मुक़ाबला देश का कोई राज्य नहीं कर सकता? इसलिए पूरे देश को इस मॉडल का अनुकरण करना चाहिए या कहानी का कोई दूसरा पहलू भी है?
दरअसल, गुजरात के अद्भुत विकास की कहानी उस समय शुरू हुई, जब 2005 में सोनिया गांधी के नेतृत्व वाले राजीव गांधी फाउंडेशन के तत्वावधान में कराए गए एक अध्ययन- इकोनॉमिक फ्रीडम फॉर स्टेटस ऑफ इंडिया में गुजरात को भारत के अन्य राज्यों के मुकाबले में आर्थिक आज़ादी सूचकांक (इकोनॉमिक फ्रीडम इंडेक्स) पर पहला स्थान दिया गया था. एक ऐसी संस्था, जिससे कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष जुड़ी हुई थीं, द्वारा भाजपा शासित प्रदेश को किसी भी सूचकांक पर पहला स्थान दे देना कांग्रेस के लिए ऐसा ही था, जैसे कोई बल्लेबाज़ जानबूझ कर हिट विकेट आउट हो जाए. सिंगुर के टाटा नैनो प्रकरण ने नरेंद्र मोदी के विकास के दावे को मज़बूती प्रदान की और इस मौ़के का उन्होंने अपने विकास पुरुष की इमेज मेकिंग में भरपूर फ़ायदा उठाया. लेकिन, यह भी जानना ज़रूरी है कि विकास के मानकों, जैसे विदेशी निवेश, कृषि विकास दर, मूलभूत ढांचों के विकास, औसत प्रति व्यक्ति आय, शिशु मृत्यु दर, मातृ मृत्यु दर, कुपोषण, महिला सशक्तिकरण, शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं आदि क्षेत्रों में गुजरात का प्रदर्शन कैसा रहा है और देश के दूसरे राज्य गुजरात की तुलना में कहां खड़े हैं?
ग़रीबी
दरअसल, जब कभी भी गुजरात विकास की पोल खोलते आंकड़ों की बात होती है, तो उसे फर्जी ठहरा दिया जाता है, लेकिन उन आंकड़ों का क्या, जो खुद गुजरात सरकार ने जारी किए हैं? गुजरात रूरल डेवलपमेंट कमिश्‍नर ऑफिस के आंकड़े के मुताबिक, साल 2000 में जहां गुजरात में 23.29 लाख बीपीएल परिवार थे, वहीं 2012 में यह संख्या बढ़कर 30.49 लाख हो गई. बीपीएल कौन है, इस पर भी कई मतभेद हैं. गुजरात सरकार के खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के मुताबिक, राज्य में जिसकी भी आय ग्रामीण क्षेत्र में प्रतिदिन 11 रुपये और शहरी क्षेत्र में 17 रुपये है, वह ग़रीब नहीं है यानी वह बीपीएल श्रेणी में नहीं आता है. अगर इसी क्राइटेरिया को आधार मानें, तो गुजरात में ग़रीबी की एक भयावह तस्वीर निकल कर सामने आती है. यानी क़रीब हर तीसरा गुजराती परिवार आधिकारिक तौर पर बीपीएल श्रेणी में आता है.
स्वच्छ पेयजल
2011 की जनगणना के मुताबिक, गुजरात के तीस फ़ीसद घरों को स्वच्छ पानी तक नहीं मिल पाता है यानी एक बार फिर हर तीसरे घर को पीने के लिए साफ़ पानी नहीं मिल पा रहा है. यह सही है कि गुजरात में कृषि विकास दर काफी अच्छी रही है, क़रीब दस फ़ीसद, लेेकिन इसका विपरीत असर भू-जल स्तर में आ रही कमी के रूप में देखने को मिल रहा है. 2014 में आई यूएन की एक रिपोर्ट की मानें, तो गुजरात देश का ऐसा राज्य है, जहां पानी की भारी किल्लत है. भू-जल स्तर काफी नीचे चला गया है. इसकी वजह बताई गई है कृषि के लिए पानी का अंधाधुंध इस्तेमाल. नतीजतन, बहुसंख्यक आबादी को पीने का साफ़ पानी भी मुहैया नहीं हो पा रहा है.
कुपोषण
सीएजी की एक रिपोर्ट आई, जिसके मुताबिक, गुजरात का हर तीसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है. इस आंकड़े को लेकर भी काफी विवाद हुआ. गुजरात सरकार ने इसे मानने से इंकार कर दिया. बहरहाल, खुद गुजरात सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग की मंत्री वासुबेन त्रिवेदी ने विधानसभा में अपने लिखित जवाब में माना है कि राज्य के 14 ज़िलों के 6.13 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. हालांकि, राज्य सरकार या नरेंद्र मोदी के समर्थक इस आंकड़े को भी गलत मानने के लिए स्वतंत्र हैं.
सरकारी स्कूल
जरा नरेंद्र मोदी के उस बयान को भी याद कीजिए, जिसमें उन्होंने कहा था कि देश में देवालय से पहले शौचालय बनना चाहिए. जाहिर है, यह एक ऐसा बयान था, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन यह बयान उनके राज्य के सरकारी प्राइमरी स्कूलों की सच्चाई को भी सामने लाता है. गुजरात के प्राइमरी स्कूलों में भले ही लड़कियों की संख्या बढ़ी हो, लेकिन कितने शर्म की बात है कि तीस फ़ीसद स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय की व्यवस्था तक नहीं है. जो शौचालय हैं भी, वे इस्तेमाल करने लायक नहीं हैं या फिर बंद पड़े हैं. आंकड़े बताते हैं कि 6 फ़ीसद स्कूलों में शौचालय हैं ही नहीं. अब गुजराती अस्मिता की बात करने वाले नरेंद्र मोदी क्या यह बताएंगे कि स्कूलों में शौचालय का न होना आख़िर किस गुजराती अस्मिता का ढोल पीटता है? 
आत्महत्या के मामले
पिछले कुछ समय से गुजरात में किसानों की आत्महत्या को और उसकी संख्या को लेकर काफी बावेला मचा हुआ है. विपक्ष की तरफ़ से जो आंकड़े पेश किए जा रहे हैं, उनकी सत्यता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं. इसलिए इस मसले पर स़िर्फऔर स़िर्फ प्रमाणित आंकड़ों पर ही बात की जानी चाहिए. गुजरात में अकेले 2012-13 में 60 किसानों ने आत्महत्या कर ली. इनमें से 25 ने कर्ज और फसल बेकार होने की वजह से मौत को गले लगाया. वैसे, पिछले दस सालों में गुजरात में 489 किसानों ने आत्महत्या की. ये आंकड़े किसी ग़ैर सरकारी संगठन के रिसर्च से सामने नहीं आए हैं और न किसी नेता द्वारा बताए गए हैं, बल्कि ये आंकड़े सूचना का अधिकार क़ानून के इस्तेमाल से निकले हैं. गुजरात के सौराष्ट्र में 2012-13 में बड़ी संख्या में किसानों ने आत्महत्या की. राज्य के गृह विभाग ने यह जानकारी विधानसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में दी कि जूनागढ़ में 10, अमरेली में 4, राजकोट ग्रामीण क्षेत्र में 5, राजकोट शहरी क्षेत्र में 2 और जामनगर में 2 किसानों ने आत्महत्या की. सवाल यह है कि जो नरेंद्र मोदी देश भर में घूमकर गुजरात के किसानों की सफलता की कहानी सुनाते नहीं थकते, आख़िर खुद उन्हीं के राज्य में किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? क्या मोदी जी इसका जवाब देना पसंद करेंगे?
निवेश  
मोदी यह दावा करते हैं कि गुजरात में विदेशी निवेश बढ़ रहा है, लेकिन आरबीआई के आंकड़े इन दावों को निराधार साबित कर देते हैं. आरबीआई के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2000 से 2011 के बीच गुजरात में महज 7.2 बिलियन डॉलर का ही विदेशी निवेश आया, जबकि इसके मुकाबले महाराष्ट्र में 45.8 और दिल्ली में 26 बिलियन डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ. यहां तक कि इस मामले में कर्नाटक और तमिलनाडु का नंबर भी गुजरात से आगे है.
किसान और जमीन
गुजरात में उद्योगों के लिए जमीन अधिग्रहण की नीति राजनीति और कॉरपोरेट के गठजोड़ को भी दिखाती है. आम तौर पर माना जाता है कि गुजरात में उद्योग लगाने का काम बड़ी आसानी से हो जाता है, लेकिन यह अधूरा सच है. यह ख़बर मीडिया में कभी नहीं आती कि गुजरात में किसान अपनी जमीन बचाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं. सरकार के स्पेशल इंवेस्टमेंट रीजन के विरोध में दर्जनों गांव के लोग सड़क पर उतर चुके हैं.
मारुति-सुजुकी प्लांट
मारुति-सुजुकी के प्लांट को लेकर किसान आंदोलन कर चुके हैं. मारुति-सुजुकी को गुजरात सरकार ने हंसलपुर और उगरोजपुरा में जमीन दी थी, लेकिन किसान अपनी जमीन  वापस करने की मांग कर रहे हैं. राज्य सरकार ने अगस्त, 2013 में मंडल-बेचराजी स्पेशल इंवेस्टमेंट रीजन का एरिया 500 वर्ग किलोमीटर से घटाकर 100 वर्ग किलोमीटर कर दिया था. ग्रामीणों के विरोध के चलते 36 गांवों को इससे बाहर कर दिया गया है, लेकिन अभी भी प्रस्तावित इंवेस्टमेंट रीजन में 8 गांव आ रहे हैं. इन गांवों के किसान भी जमीन वापस मांग रहे हैं. ये किसान अपनी जमीन पर खेती करना चाहते हैं और किसी भी क़ीमत पर अपनी जमीन उद्योग के लिए नहीं देना चाहते, लेकिन सरकार इनकी बात सुनने को तैयार नहीं है. आंदोलन कर रहे किसान एसआईआर का हिस्सा नहीं बनना चाहते. सवाल है कि ऐसी स्थिति में नरेंद्र मोदी कैसे किसी किसान विरोधी जमीन अधिग्रहण नीति का विरोध करेंगे. जाहिर है, चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, मनमोहन सिंह हों या नरेंद्र मोदी, जब तक उनकी आर्थिक नीति एक रहेगी, उनकी नीयत भी एक रहेगी, उनका मकसद भी एक रहेगा.
22 गांवों के किसानों का आंदोलन
अहमदाबाद, भावनगर और कच्छ ज़िलों के 22 गांवों के हज़ारों किसान धोलेरा स्पेशल इंवेस्टमेंट रीजन का विरोध कर रहे हैं, जहां गुजरात सरकार वर्ल्ड क्लास सिटी बनाना चाहती है. इन 22 गांवों के किसान अपनी उपजाऊ जमीन नहीं देना चाहते. इन किसानों का कहना है कि वे एग्रो बेस्ड इंडस्ट्री के विरोध में नहीं हैं, लेकिन वे अपनी जमीन वर्ल्ड क्लास सिटी के लिए किसी भी क़ीमत पर नहीं देना चाहते. जमीन अधिकार आंदोलन गुजरात इन किसानों को समर्थन दे रहा है, जिसने मंडल-बेचाराजी स्पेशल इंवेस्टमेंट रीजन से कई गांवों को मुक्त कराया था. देश के बाकी हिस्सों में जिस तरीके से सरकारें जबरदस्ती जमीन अधिग्रहण करती हैं, अगर वैसे ही गुजरात सरकार भी करती है, तो सवाल यह उठता है कि क्या सचमुच इस देश को गुजरात के विकास मॉडल की ज़रूरत है?
मिठीविर्डी न्यूक्लियर प्रोजेक्ट 
भावनगर ज़िले के मिठीविर्डी में न्यूक्लियर पावर प्रोजेक्ट का विरोध कर रहे किसानों की आवाज़ न तो देश का तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया सुन रहा है और न गुजरात सरकार. भावनगर ज़िला ग्राम बचाओ समिति के तत्वावधान में चल रहे इस आंदोलन में 50 से ज़्यादा गांवों के किसान अपनी जमीन बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन बमुश्किल यह ख़बर देश के सामने आ पाती है.
दरअसल, इस देश में पिछले 25 सालों में जितनी समस्याएं सामने आई हैं, उन सबके लिए कहीं न कहीं हमारी वर्तमान आर्थिक नीति ज़िम्मेदार है. उदारवादी आर्थिक नीति ने जहां दस फ़ीसद लोगों का भला किया, वहीं सत्तर से अस्सी फ़ीसद लोगों के हिस्से में कुछ नहीं आया. आज भी देश की सत्तर फ़ीसद आबादी 20 रुपये रोज की कमाई पर जिंदा है. देश में जो नीतियां कांग्रेस लागू करती रही, वहीं नीतियां कमोबेश गुजरात में नरेंद्र मोदी लागू करते रहे. गुजरात हमेशा से अपेक्षाकृत संपन्न राज्य रहा है. व्यापारियों के लिए यह पसंदीदा जगह रही है, आज भी है. जाहिर है, कोई सरकार जब आर्थिक विकास की बात करती है, तो उस विकास में सब शामिल होते हैं यानी ग़रीब, पिछड़े, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक सब. लेकिन, अगर हम गुजरात की ओर देखते हैं, तो मामला उलटा नज़र आता है. केंद्र में कांग्रेस की नीतियों की वजह से इस देश के आम लोगों का जो हाल है, वही हाल गुजरात में मोदी की आर्थिक नीतियों की वजह से वहां के लोगों का है.
 
 

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