गांधी जी बड़े उद्योगों के विकास में नहीं, बल्कि लघु एवं हस्तशिल्प के विकास में विश्वास रखते थे. उनका मानना था कि छोटे उद्योगों के विकास से ही गांव में समृद्धि आ सकती है, लेकिन यह दुख की बात है कि देश की आज़ादी के बाद गांधी के इस सपने को साकार करने की कोशिश नहीं की गई. नतीजा यह है कि आज़ादी के बाद बिहार में स्थापित कई बड़े उद्योग बंद हो गए, लेकिन मिथिला पेंटिंग एवं यहां के कई हैंडीक्राफ्ट्‌स आज दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं.
ये बातें बाल श्रमिक आयोग के अध्यक्ष रामदेव प्रसाद ने 22 दिसंबर को गांधी मैदान में स्वयंसेवी संस्था अम्बपाली की ओर से आयोजित नाबार्ड हाट के उद्‌‌घाटन करते हुए कहीं. इसके उद्घाटन के लिए राज्य के राज्यपाल देवानंद कुंवर को आना था, लेकिन किसी कारण वश वे नहीं पहुंच सके. इस मौके पर दिल्ली से आए चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय ने कहा कि अजीब विडंबना है कि इस तरह के ग्रामीण परिवेश से जुड़े मेलों में तथाकथित वीआईपी कहे जाने वाले लोग क़दम रखना पसंद नहीं करते. उन्हें डर लगता है कि कहीं घास पर चलते हुए उनके जूते गंदे न हो जाएं या फिर उनकी क़ीमती कपड़ों की चमक कम न हो जाए. शायद यही कारण रहा कि महामहिम राज्यपाल जी ने मेले में आने की तक़लीफ नहीं उठाई. दरअसल वीआईपी लोग कॉरपोरेट घरानों के चकाचौंध में इतने अंधे हो गए हैं कि उन्हें समाज के वंचित और सबसे पिछली कतार में खड़े ग्रामीण महिलाओं एवं हस्तशिल्पियों के मायूस और मुरझाए चेहरे दिखाई नहीं पड़ते. उन्होंने कहा कि काश! महामहिम राज्यपाल एक बार यहां आकर देखते. सुदूर देहात से आई इन महिला हस्तशिल्पियों के मुरझाए चेहरे पर उनकी उपस्थिति से चंद पल के लिए जो खुशी उभरती, उसके सामने बड़ी-बड़ी पार्टियों की दमक भी फीकी पड़ जाती.
नाबार्ड के चीफ जनरल मैनेजर संदीप घोष ने कहा कि उनका प्रयास होगा कि हर साल इस तरह के मेले का आयोजन किया जाए. राज्य में बहुत सारे शिल्प कला ग़ायब होते जा रहे हैं, क्योंकि उन्हें उचित प्रदर्शन का मौक़ा नहीं मिला. मधुबनी पेंटिंग को तो दुनिया भर में प्रसिद्धि हासिल है, लेकिन भागलपुर की मंजूषा कला आज भी अपनी प्रसिद्धि की बाट जोह रही है. इसी तरह बिहार का मालभोग केला, तसर सिल्क, कतरनी चावल जैसे कई उत्पाद हैं, जिसकी अगर सही तरीक़े से मार्केटिंग की जाए, तो यह दुनिया के बाज़ार में छा जाएंगे. इस दौरान नाबार्ड के चीफ मैनेजर ने स्वयं सेवी संस्था नई धरती को ग्रामीण प्रोडक्ट बेचने के लिए एक वैन की चाबी सौंपी. इस अवसर पर डॉ. आशा सिंह, संदीप घोष, एके राय, एसएस चोपड़ा, अर्चना सिंह, बी पांडे आदि मौजूद थे.

ग्रामीण परिवेश से जुड़े मेलों में तथाकथित वीआईपी कहे जाने वाले लोग क़दम रखना पसंद नहीं करते. उन्हें डर लगता है कि कहीं घास पर चलते हुए उनके जूते गंदे न हो जाएं या फिर उनकी क़ीमती कपड़ों की चमक कम न हो जाए. शायद यही कारण रहा कि महामहिम राज्यपाल जी ने मेले में आने की तक़लीफ नहीं उठाई.

राजधानी में पहली बार भारत ग्राम का नज़ारा दिखा. हस्तशिल्पी स्थानीय हैंडीक्राफ्ट के साथ-साथ अपने क्षेत्र की सांस्कृतिक परंपराओं को भी साथ लाए थे. राजधानी में यह पहला मौक़ा था, जब किसी मेले में देशभर के ग्रामीण इलाक़ों से आए हस्तशिल्पियों ने अपने हाथों से बने उत्पादों के साथ मेले में शिरकत की. राजस्थान का कठपुतली नाच मेले का मुख्य आकर्षण रहा. मेले के मुख्य द्वार के सामने जयपुर से आए गोगी एवं अंकित का यह स्टॉल मेले को राजस्थान की ग्रामीण संस्कृति का स्वरूप प्रदान कर रहा था. रंग-बिरंगे कपड़ों से बने कठपुतली एवं कठपुतली शो ने दर्शकों का मन मोह लिया. गुनगुनी धूप और मृदंग का लुत्फ उठा रहे दर्शकों की फरमाईश पर गोगी के  गीत चलो-चलो रे ड्राइवर गाड़ी होले-होले, अंजन की सिटी में मारो मन डोले… सुनकर वे मंत्रमुग्ध हो गए. इस मेले में लगभग एक सौ तीस स्टॉल लगाए गए थे, जिनमें लगभग सौ स्टॉल उन ग्रामीण महिलाओं के थे, जो स्वयं सेवी सहायता समूह बनाकर विभिन्न तरह की चीज़ों का निर्माण कर आजीविका कमा रही हैं.
मेले में बिहार के अलावा मणिपुर, उत्तराखंड, सिक्किम, झारखंड, पश्चिम बंगाल, नई दिल्ली और राजस्थान से आए हस्तशिल्पियों ने शिरकत की. जमुई के एक ग्रामीण इलाक़े से आई चिंता देवी ने बताया कि वे लोग समूह के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर चप्पल, चादर और जूता आदि बनाते हैं. गुजरात की ही राधा बीड्‌स वर्क, हैंड एंब्रोएडरी, झूमर, कार हैंगिंग, तोरण द्वार, डोर हैंगिंग आदि बनाती हैं. जितेंद्र गोरखपुर के हैं एवं ग्राहकों को लुभाने के लिए अपने साथ टेराकोटा से बने टेबल लैंप, फ्लावर पॉट, लालटेन, झूमर आदि बनाते हैं. मेले के समापन के क्षणों में सभी की आंखों में गहरी उदासी दिख रही थी. इन कलाकारों ने कहा कि यह मेला दो-चार दिन और रहता तो का़फी अच्छी बिक्री हो जाती.
गुजरात से आई ताराबेन एवं मनिबेन अपने समूह की महिलाओं के साथ खूबसूरत गुजराती टॉप, पैच वर्क, पीट वर्क आदि बनाती हैं. मनिबेन को पहली बार बिहार आने का मौक़ा मिला है. मेले में हुई बिक्री से वह का़फी संतुष्ट दिखीं. मंदरजीत सिंह मणिपुर के हैं उनके स्टॉल पर पूरे मेले के दौरान भारी भीड़ नज़र आई. कौना घास से बने महीन बुनाई वाला हैंड बैग, शॉपिंग बैग, डस्टबीन, वॉल हैंगिंग ग्राहकों को आकर्षित करने में सफल रहा. इनमें से ज़्यादातर स्टॉल ग्रामीण परिवेश से आई महिला हस्तशिल्पियों की थी एवं उनमें से अधिकतर पहली बार पटना आई थीं. ग्राहकों की भीड़ एवं सामानों की अच्छी बिक्री से उत्साहित गोगली ने बताया कि अगली बार जब मौका मिला तो यहां ज़रूर आऊंगी.

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