केएन गोविंदाचार्य को इस देश में भला कौन नहीं जानता. प्रसिद्ध चिंतक-विचारक, आरएसएस के पूर्व प्रचारक और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व महासचिव गोविंदाचार्य एक स्थायी क्रांतिकारी हैं. जेपी आंदोलन हो, गंगा बचाओ आंदोलन हो, स्वदेशी आंदोलन हो या फिर अन्ना हजारे के नेतृत्व में चल रहा भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन हो, गोविंदाचार्य हर जगह नज़र आए. पिछले दिनों चौथी दुनिया के संपादक समन्वय मनीष कुमार ने उनसे एक लंबी बातचीत की. पेश है, उसके प्रमुख अंश…

page-6आरएसएस और भाजपा के साथ आपके क्या रिश्ते हैं?
मैं संघ का एक सामान्य स्वयंसेवक हूं. संघ की शाखा में जो भी एक बार जाता है, उसे ज़िंदगी भर के लिए संघ का स्वयंसेवक माना जाता है. देश के 40 लाख स्वयंसेवकों में से मैं भी एक हूं, लेकिन भाजपा का तो मैं प्राथमिक सदस्य भी नहीं हूं.

अन्ना हजारे भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे हैं. आख़िर इस आंदोलन का ध्येय क्या है और वह क्या हासिल करना चाहते हैं?
पहली बात, आंदोलन करना मेरी हॉबी या शगल हो, ऐसा नहीं है. टकराव मेरा स्वभाव भी नहीं है, लेकिन ज़रूरत के हिसाब से आवाज़ उठाना और न कहना भी समाज की ताकत लिए ज़रूरी है. अभी जो स्थिति है, उसमें भूमि अधिग्रहण की बात तो कही जाती है, पर भइया, किसानों को ज़मीन देने की भी तो बात करो. जो ज़मीन अब तक सरकारों ने ली है, उसका हिसाब-किताब भी तो जनता के सामने पेश करो. कितनी ज़मीन ज़रूरी है और किस बात के लिए ज़रूरी है, यह तो बताओ. बिना यह सब किए ज़मीन लेकर जेब में भर लेना विकास का तरीका नहीं है. इसमें तो नीयत में ही गड़बड़ी है, ऐसी गंध आती है.

यह जो बिल अध्यादेश के रूप में लाया गया, इसमें ऐसी कौन-सी चीजे हैं, जिन पर आप कोई समझौता नहीं कर सकते?
अगर आप अखिल ग्रामसभा की अनुमति के बगैर ऐसा कर रहे हैं, तो देश के लोकतंत्र की सर्वोच्च इकाई की उपेक्षा कर रहे हैं, जो बहुत घातक है. इसीलिए मैं इसका विरोध करता हूं. उसी प्रकार यदि ज़मीन की क़ीमत स़िर्फ मुआवजे के नाते देते हैं, तो यह ग़लत है. ज़मीन भारत में जीवनशैली का हिस्सा है. पीढ़ी दर पीढ़ी का हिसाब है उसमें. आप मुआवजे से इसे कैसे पूरा कर सकते हैं. दूसरा सवाल है कि आपने इसमें इंडस्ट्रियल कॉरीडोर जोड़ दिया और पहले जो ज़मीन ली है, इसके पीछे क्या लॉजिक है? सरकार मुआवजे की बात बार-बार करती है, चार गुना करने की बात करती है. एक जगह है मालचा. वहां के लोगों को सौ साल से ज़्यादा हो गए, लेकिन मुआवजा नहीं मिला. दामोदर घाटी के निर्वासितों को पचास साल से मुआवजा नहीं मिला. इसके लिए एक फुलप्रूफ प्लान बताना होगा कि पहले ही पूरा भुगतान करेंगे या ज़मीन लेकर मुआवजा लटका दिया जाएगा. मान लीजिए आंध्र प्रदेश में नई राजधानी बन रही है, इसके लिए ज़रूरत से छह गुना ज़्यादा ज़मीन ली जा रही है. ये सब बाद में लैंड यूज में कन्वर्ट हो जाएगी और अंत में भू-माफियाओं के पास पहुंच जाएगी. सरकार भूमिधरों को ज़मीन से वंचित करे और भूमिहीनों के आवास की व्यवस्था भी न करे, तो फिर सरकार किस बात की?सरकार का गठन हुआ ही इसके लिए है कि वह उनका बचाव करे, जो खुद का बचाव नहीं कर सकते.

भारत में उपजे मजहब और भारत से बाहर उपजे मजहबों की तासीर में क्या कोई फ़र्क है, यह देखने की ज़रूरत है. जैसे ही संस्कृति और भी संस्कृति. मैं ही ठीक, मेरा ही रास्ता ठीक, मेरा ही भगवान, यह ही संस्कृति है. तुम भी ठीक, मैं भी ठीक, मेरा भगवान अपना-तुम्हारा भगवान अपना. अपने के प्रति अभिमान और दूसरे के प्रति सम्मान यह भी संस्कृति का हिस्सा है. कहां क्या कमी है, क्या आधार है, यह संवाद का विषय है. लेकिन, समय जब चुनाव का, जद्दोजहद का, कीचड़ फेंकने का रहता है, तब इन मुद्दों पर सही मानस से चर्चा  या संवाद नहीं हो सकता. इसलिए कोशिश करनी चाहिए कि चुनावी माहौल में ऐसे मुद्दे न उठें, तो बेहतर है.

सरकार कह रही है कि गांवों में स्कूल बनाने के लिए ज़मीन की ज़रूरत है…
अभी जो स्कूल हैं, पहले उनकी व्यवस्था तो ठीक कर लें. पहले से जो स्वास्थ्य केंद्र हैं, उनकी क्या हालत है? बड़ी सड़क बना देंगे, तो उससे लड़के स्कूल पहुंच जाएंगे? बीमारी कुछ और इलाज कुछ बता रहे हैं. किसी को हुआ है मलेरिया और उसे दवा टीबी की दे रहे हैं.

सरकार कह रही कि मेक इन इंडिया कार्यक्रम के तहत उसे इंडस्ट्री लगानी है. दुनिया के कई देशों से कंपनियां आएंगी. उसके लिए इंडस्ट्रियल कॉरीडोर बनाने की ज़रूरत पड़ेगी…
उसके लिए क्या-क्या चाहिए, यह तय करे सरकार. क्या-क्या आया, यह भी तय करना होगा. एफडीआई जो अभी तक देश में आया है, उसका हिसाब होना चाहिए. जो देश में निवेश करेंगे, वे किस बात के लिए करेंगे? जो निवेश करेंगे, उसका फ़ायदा भी तो भारत को मिले. हमें थमा दें हाथ में चवन्नी और खुद खा जाएं पूरा रुपया. इस भिखमंगी वृत्ति के साथ देश नहीं चलाया जाता. मेक इन इंडिया के साथ-साथ मेक फॉर इंडिया और बाई इंडिया भी होना पड़ेगा.

लेकिन सरकार इसे बहुत सीरियसली ले रही है और कह रही है कि लोग इंडस्ट्री शब्द को ही एब्यूज (गाली देना) कर रहे हैं…
ऐसा इसलिए, क्योंकि ऐसी स्थिति बन गई. रोज़गार बढ़ने थे, वह तो मानक बना नहीं और जीडीपी को मानक बना दिया आपने. कितने बेरोज़गार हैं, इसका आपने कभी हिसाब लिया. उसके लिए आप स्किल इनहैंसमेंट कर रहे हैं. आज भी सबसे ज़्यादा बचत, रोज़गार और विदेशी मुद्रा का अर्जन देशी अर्थव्यवस्था के ज़रिये है. बड़ी कॉरपोरेट कंपनियां तो कहती हैं कि हम इसके लिए हैं ही नहीं, हम स़िर्फ आपका जीडीपी ग्रोथ रेट बढ़ाएंगे. जहां 65 प्रतिशत जनसंख्या कृषि आधारित व्यवसायों पर आश्रित है और आप उसे जीडीपी का स़िर्फ 19 प्रतिशत हिस्सा मान रहे हैं, तो उसकी बदहाली आप दूर कैसे करेंगे? कई आकलन कह रहे हैं कि 2050 में भी 50 प्रतिशत आबादी गांवों में रहेगी.

मगर सरकार कह रही है कि वह गांवों में भी घर बनाएगी, छोटे-छोटे शहर बसाएगी और सौ स्मार्ट सिटी बनेंगे.
एक स्मार्ट सिटी बसाने के लिए 70 हज़ार करोड़ रुपये का शुद्ध निवेश चाहिए और वह सात सौ गांव लील जाएगा. और, आप सौ स्मार्ट सिटी बनाने की बात कर रहे हैं! इस समय ज़रूरत है स्मार्ट विलेजेज की. उससे ज़्यादा ज़रूरत है कि कुपोषण कैसे ख़त्म हो. देश के 47 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं.

क्या सरकार में कोई ऐसा आदमी नहीं है, जो यह सब उसे समझा सके? या फिर समझा जाना चाहिए कि सरकार आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक के नियम लागू कर रही है?
मैं अभी नीयत पर सवाल नहीं उठा रहा हूं, लेकिन नीतियों और प्राथमिकताओं पर सवाल ज़रूर उठा रहा हूं. प्राथमिकता यहां पर डॉलर लाने की नहीं है, बल्कि प्राथमिकता है हर बच्चे को आधा लीटर दूध, आधा किलो सब्जी, आधा किलो फल कैसे मिले. स़िर्फ इंडस्ट्री से बात नहीं बनती. खेती और उससे जुड़े छोटे-छोटे उद्योगों से रा़ेजगार आएगा और तभी खुशहाली आएगी.

आपने कहा कि आप नीतियों पर सवाल उठा रहे हैं, नीयत पर नहीं. आपका यह कहना है कि जो नीतियां बन रही हैं, वे बचकानी हैं और विश्‍व बैंक एवं आईएमएफ की नीतियां लागू की जा रही हैं?
अगर मर्ज की समझ न हो, तो इलाज मर्ज को बढ़ाता है या नए मर्ज पैदा कर देता है. इसलिए पहले मर्ज को समझिए, फिर उसके इलाज को समझिए. सबसे पहले ज़मीन और कृषि पर ध्यान हो. कृषि योग्य भूमि पहले साढ़े 12 करोड़ हेक्टेयर थी. दस साल में एक करोड़ 80 लाख हेक्टेयर कम हो गई. गोचर ज़मीन साफ़ हो गई है. कृषि और पशुपालन का मेल है. इन पर आपका ध्यान नहीं है. जो रहा-सहा है, उसे भी आप हड़पने की कोशिश कर रहे हैं. आप सीमेंट, बालू खाएंगे या रोटी? आपने एसईजेड के लिए जो ज़मीन दी और जो ज़मीन पहले अधिग्रहीत की जा चुकी है, उनका क्या हुआ, यह तो पता कर लीजिए. लैंड यूटिलाइजेशन पॉलिसी लाइए. उसका लेखा-जोखा आपके मंत्रालय में पड़ा है, उसे पढ़ लीजिए.

क्या आप चाहते हैं कि पहले से अधिग्रहीत भूमि पर कोई श्‍वेतपत्र लाया जाए?
देश में इतना वेस्ट लैंड मौजूद है, जिसका इस्तेमाल करके काम किया जा सकता है. इसके लिए अच्छे, हरे-भरे खेत हड़पने की कोई ज़रूरत नहीं है. शहर के आसपास सब्जी के खेत होते थे, उन सबको आपने कंक्रीट का जंगल बना दिया.

आपके कुछ पुराने स्वदेशी जागरण मंच के साथी सरकार के सुर में सुर मिला रहे हैं. आप अपने स्टैंड पर बने हुए हैं, ऐसा क्यों?
सत्ता के व्यामोह के भी शिकार हो जाते हैं लोग. एक एक्टर ने पूछा गया कि दौलत और शोहरत पाकर आप नहीं बदले, दूसरे लोग तो बदल जाते हैं. उसने कहा, मैं नहीं मानता कि कोई बदल जाता है, लोग दौलत-शोहरत पाकर ऑरिजिनल हो जाते हैं. इसलिए गिला-शिकवा रखने की कोई बात नहीं है. हां, संवाद और सुधार होने की गुंजाइश रहती है. किसी से गिला-शिकवा लड़ाई- झगड़ा नहीं है.

अन्ना हजारे के साथ कुछ संगठनों ने मिलकर आंदोलन किया, उसमें किसान नहीं थे, उसे जनसमर्थन नहीं मिला, और आपने एक कार्यक्रम बिजनौर भी किया, उसमें भी शायद ज़्यादा लोग नहीं आए. क्या वजह है? अगर आपके मुद्दे में लॉजिक है, सच्चाई है, आप किसान हितैषी बातें कर रहे हैं, तो लोग आ क्यों नहीं रहे?
एकता परिषद में छह हज़ार अधिकांशत: भूमिहीन किसान पैदल आए थे पलवल से दिल्ली तक. मुद्दे में ताकत है, बात पहुंचती है, लोग आते हैं, यह तो सिद्ध हुआ है. हम बात पहुंचाने और ग्रामीण क्षेत्रों में संगठन विस्तार में कमजोर पड़े हैं.

एकता परिषद की भीड़ को लेकर कहा जा रहा है कि उसमें किसान नहीं, भूमिहीन किसान थे और भूमि अधिग्रहण से प्रभावित होने वाले लोग नहीं थे.
जंतर-मंतर पर वीएम सिंह के बैनर के तले बड़ी मात्रा में किसान थे, लगभग डेढ़-दो हजार. किसान थे, इसलिए यह सिद्ध होता है कि बात पहुंचे, तो लोग आते हैं. हमारा संगठन बात पहुंचाने में कमजोर पड़ा है, उसे दुरुस्त करना पड़ेगा.

कहा जा रहा है कि यह आंदोलन देश भर में पहुंचाया जाएगा और वे अलग-अलग काम करेंगे, तो यह क्रिटिसिज्म आ रहा है कि एनजीओ वाले शायद किसी चीज को लेकर परेशान हैं, इसलिए उन्होंने एक नया पैतरा चला है कि किसी तरह से एनजीओ की गतिविधियां जारी रहें और धन मिलना बाधित न हो.
इसका हमें पता नहीं है, लेकिन हमने तो यहां तक क्रिटिसिज्म सुना कि अन्ना हजारे चार्टेड फ्लाइट में आए, जिंदल की फ्लाइट में दिल्ली आए. सोशल मीडिया में यह बहुत चला, जबकि उन्होंने खुद बोर्डिंग पास दिखाया कि किस हवाई जहाज से आए. सच्चाई कुछ है और प्रचार कुछ. इससे साबित होता है कि आंदोलन के विरोधी स्वयं को कमजोर पा रहे हैं, इसलिए वे असत्य का सहारा ले रहे हैं. इसका मतलब है कि मुद्दे में दम है, नेतृत्व में साख है और उस साख को चोट पहुंचाना है, इसलिए ये तरीके अपनाए जा रहे हैं. एनजीओ वाला जो फैक्टर है, तो मैं अपनी बात करता हूं. मुझे तो नहीं मिलता और किन्हें कितना मिलता है, वह भी देख ले सरकार. हम तो मानते हैं कि मुद्दे में दम है, मुद्दों और मूल्यों के आधार पर हम चलें. जो कमजोर होंगे, वे खुद ही छंट जाएंगे.

आगे की क्या तैयारी है?
एक तो विभिन्न संगठन इलाके बांटकर ज़िलों में पदयात्रा करें. उसके बाद अगर बड़ी पदयात्रा निकलती है, तो उसकी पूरी भूमिका बन जाए और बात यहां तक आनी चाहिए कि जत्थे गिरफ्तारी देने के लिए तैयार रहें. यदि ऐसा होता है, तो हम अपना संदेश दूर तक ले जा सकेंगे. सोशल मीडिया एक हद तक इसमें उपयोगी हो सकता है, मगर ज़मीन पर चलने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.

सरकार ने जो बजट पेश किया, उसे किस तरह देखते हैं आप? क्या ये वही लोग हैं, जो किसी विचारधारा से जुड़े होने का दावा करते थे? यह बजट कांग्रेस के बजट से अलग कैसे नज़र आ रहा है?
मैंने कुछ वर्षों से बजट सेशन टीवी पर देखना बंद कर दिया, क्योंकि बजट के अलावा के समय में ही महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाते हैं, चाहे डीजल के दाम घटने-बढ़ने हों, मालभाड़ा बढ़ना हो. टिकट दर अभी नहीं बढ़ाएंगे, तो बाद में बढ़ाएंगे. निर्णय तो बजट के बाहर ही ज़्यादा होते हैं. दूसरा, तीन-चार सालों में इस बजट का प्रतिफलन क्या हुआ, यह आर्थिक सर्वेक्षण में मालूम पड़ता है. नज़रिया अमीरपरस्त है, प्रकृति विध्वंशक है. यह नज़रिया अमीर को और अमीर, ग़रीब को और ग़रीब बनाने वाला है. यह नज़रिया ट्रिकल डाउन थ्योरी में विश्‍वास करता है, जो भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में फेल हो चुकी है. विगत 20 वर्षों में 65 करोड़ लोग थे, एक डॉलर से कम में जीने वाले. आज दुनिया में ऐसे लोग 130 करोड़ हैं. आज 80 प्रतिशत संपदा 20 प्रतिशत लोगों और 20 प्रतिशत संपदा 80 प्रतिशत लोगों के हाथ में है. महिलाओं की स्थिति दिनोंदिन कमजोर हो रही है, आतंकवाद बढ़ा है, राजनीतिक स्थिरता बढ़ी है, तनाव बढ़ा है. जब हम फेल हो चुकी थ्योरी से बजट के लिए दिशा-दृष्टि के बारे में सोचेंगे, तो परिणाम क्या होगा? भारत को अमेरिका बनाने चले और अफ्रीका बना डाला या फिर ब्राजीलीकरण कर डाला.

एक स्वयंसेवक के नेतृत्व में चलने वाली सरकार यह सब कर रही है और संघ चुपचाप बैठा है?
कई बार मैं मानता हूं कि संघ का दोष भी होता है. वह क्या जाने पीर पराई, जाके पैर न फटी बिवाई. अपनी जीवनशैली को अगर हम ग़रीबपरस्त नहीं बनाएंगे, तो हमारी सोच ग़रीबपरस्त नहीं बनेगी. हम एलीटिस्ट सोच के होंगे. वैसा ही होगा कि रोटी नहीं है, तो केक क्यों नहीं खा लेते. इससे अराजक ताकतों को मदद मिलेगी.

वाजपेयी जी की सरकार के समय संघ के कई लोगों की शिकायत थी कि सत्ता में आने के बाद ये लोग बदल गए, विचारधारा छोड़ दी, कांग्रेसी बन गए और इनका चाल, चरित्र, चेहरा यानी सब कुछ बदल गया. जब मोहन भागवत आए, तो उन्होंने कहा कि भाजपा का ऑपरेशन करने की ज़रूरत है. मुझे लगता है कि मोहन भागवत की पकड़ स़िर्फ घर वापसी और लव जिहाद जैसे विवादित मसलों पर है, पर जो मूल तत्व है यानी आर्थिक नीतियों और किसानों-मज़दूरों-ग़रीबों की बात आदि में संघ कोई हस्तक्षेप नहीं करता. यह विरोधाभास समझ में नहीं आता.
इसका उत्तर आज नहीं, तो कल संघ को देना होगा. एक बात मुझे अच्छी लगी कि भूमि अधिग्रहण के मसले पर किसान संघ, मज़दूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच हमारे साथ हैं, बाकी सत्ता के साथ संवाद की अंतिम ज़िम्मेदारी तो जनता की है. संघ के लोग चाहें, तो सरकार से संवाद करें और अमीरपरस्त नीतियों के बजाय ग़रीबपरस्त नीतियों के पक्ष में दबाव डालें.

दो-तीन और चीजें हो रही हैं कि घर वापसी का मसला हो, चाहे लव जिहाद का मसला हो, देश में एक अजीब तरह का माहौल बन गया है यानी जबसे यह सरकार बनी है, तबसे माहौल में तल्खी-सी आ गई है…
भारत में उपजे मजहब और भारत से बाहर उपजे मजहबों की तासीर में क्या कोई फ़र्क है, यह देखने की ज़रूरत है. जैसे ही संस्कृति और भी संस्कृति. मैं ही ठीक, मेरा ही रास्ता ठीक, मेरा ही भगवान, यह ही संस्कृति है. तुम भी ठीक, मैं भी ठीक, मेरा भगवान अपना-तुम्हारा भगवान अपना. अपने के प्रति अभिमान और दूसरे के प्रति सम्मान यह भी संस्कृति का हिस्सा है. कहां क्या कमी है, क्या आधार है, यह संवाद का विषय है. लेकिन, समय जब चुनाव का, जद्दोजहद का, कीचड़ फेंकने का रहता है, तब इन मुद्दों पर सही मानस से चर्चा या संवाद नहीं हो सकता. इसलिए कोशिश करनी चाहिए कि चुनावी माहौल में ऐसे मुद्दे न उठें, तो बेहतर है. इससे वोट भले ही मिल जाएं, मगर समाज का नुक़सान हो जाता है.

जो ग़ैर राजनीतिक संगठन ऐसे कामों को बढ़ावा देते हैं, करते हैं, उनके बारे में क्या कहेंगे?
सही समय पर संवाद होने से वे समझते हैं कि कुछ खास मौक़ों पर ऐसे मसले उठाए जाएं, तो शायद सुनवाई हो जाए, लेकिन उससे नुक़सान होता है, लाभ नहीं होता समाज को.

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