bakkkबिहार के मुजफ्फरपुर स्थित लंगट सिंह कॉलेज में बीते दिनों गंगा समाज के प्रतिनिधियों, साहित्यकारों, कलाकारों, वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, समाजशास्त्रियों, संस्कृतिकर्मियों, नदी आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं, विशेषज्ञों एवं प्रदूषण की वजह से तबाह हुए लोगों का एक सम्मेलन हुआ, जिसका उद्घाटन समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा ने किया. इस अवसर पर गंगा मुक्ति आंदोलन के संयोजक अनिल प्रकाश ने मुजफ्फरपुर सहमति नामक एक घोषणा-पत्र पेश किया, जिसे प्रतिभागियों ने सर्वसम्मति से मंजूर कर लिया. घोषणा-पत्र में गंगा नदी के प्रदूषण की समस्या को केवल नदी और पानी की बजाय पूरे क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र के संकट से जोड़कर देखा गया और नदी के संरक्षण पर विचार-विमर्श किया गया.
गंगा नदी के संरक्षण का मतलब है, गंगोत्री से बंगाल की खाड़ी तक पूरी नदी का संरक्षण, जिसके बीच फैले हुए मैदानों (जिसे गंगा का मैदान कहते हैं) में बसने वाले लोगों का जीना-मरना गंगा के सहारे है. भारत के साथ-साथ बांग्लादेश और नेपाल के लोगों का जीवन भी इस नदी के ऊपर निर्भर है, इसलिए वे भी गंगा की तबाही से प्रभावित हो रहे हैं. लिहाज़ा मुजफ्फरपुर सहमति में उन्हें भी इस अभियान से जोड़ने पर जोर दिया गया. केंद्रीय वक्फ़ काउंसिल के पूर्व सचिव एवं न्यू इंडिया फाउंडेशन के चेयरमैन डॉ. कैसर शमीम ने कहा कि गंगा स़िर्फ एक नदी नहीं है. गंगोत्री से लेकर बंगाल की खाड़ी तक की जैव विविधता इसी नदी से जुड़ी हुई है. इसलिए हम पूरे क्षेत्र की वनस्पतियों एवं जीवों को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. उन्होंने इस मुहिम में गंगा की सहायक नदियों की सफाई के महत्व पर जोर देते हुए मुजफ्फरपुर एवं त्रिहुत की नदियों की तुलना बनारस की वरुणा एवं अस्सी नदियों से की, जो गंगा प्रदूषण का बड़ी वजह हैं.
दरअसल, गंगा बेसिन में वे सभी नदियां और जलाशय शामिल हैं, जिनका पानी गंगा में गिरता है. इन सहायक नदियों का प्रदूषित पानी गंगा में पहुंच कर, गंगा की अपनी सफाई क्षमता को भी नष्ट कर रहा है. इसके अतिरिक्त नदी के किनारे बेतरतीब बसे शहरों एवं कल-कारखानों का दूषित पानी और कचरा गंगा में मिलकर उसे तिल-तिल मार रहा है. केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड की 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक, गंगा के किनारे बसे शहरों के जरिये 2723 मिलियन लीटर कचरा और मल-मूत्र रोज़ाना गंगा में घुल-मिल रहा है. यह सरकारी आंकड़ा है. असल में तो इससे कहीं ज़्यादा गंदगी उन सहायक नदियों में डाली जा रही है, जिनका पानी गंगा में गिरता है. खुद केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पाया है कि 6000 मिलियन लीटर गंदा पानी रा़ेजाना गंगा में डाला जा रहा है. घोषणा-पत्र में कहा गया है कि अब सरकार इलाहाबाद से बंगाल की खाड़ी के बीच 16 बैराज बनाने की बात कर रही है, जिसका मतलब है कि गंगा को 16 बड़े तालाबों में बदल देना. इसके नतीजे में जो तबाही फैलेगी, उसका इलाज खोजने के लिए व्यवसायिक कंपनियां सामने आएंगी, जिनका मकसद स़िर्फ मुनाफा कमाना है. सरकार नदी के किनारे जगह-जगह पर्यटन केंद्र खोलना चाहती है, जिससे सरकार को मामूली, लेकिन पर्यटन से जुड़े व्यवसायिक घरानों को अधिक लाभ होगा.
गंगा मुक्ति आंदोलन के संयोजक अनिल प्रकाश ने कहा कि मां के दूध की तरह खेत और नदी भी बाज़ारी वस्तु नहीं बन सकते. गंगा को तालाबों में बदलने, पिकनिक स्पॉट एवं मनोरंजन पार्क बनाने और गंगा के किनारे स्मार्ट सिटी बनाने के नापाक मंसूबे हम कामयाब नहीं होने देंगे. एक फरक्का ने मछलियों को जिस तरह गायब किया, उससे बीस लाख मछुआरे बेरा़ेजगार हो गए. उन्होंने कहा कि पिछले दो सौ सालों में विकास का अर्थ रहा है, प्रकृति का बेहिसाब शोषण. हम यह सोच बदलना चाहते हैं. डॉ. भरत झुनझुनवाला ने फरक्का बैराज की वजह से हुए नुक़सान का ज़िक्र करते हुए केंद्र सरकार को सुझाव दिया कि बड़े जहाज गुजारने के लिए बैराज बनाकर गंगा को तबाह करने की बजाय छोटे जहाजों से माल की ढुलाई का कार्यक्रम बनाना चाहिए. बिजली के लिए सौर ऊर्जा समेत दूसरे विकल्पों पर विचार होना चाहिए. उन्होंने कहा कि अब बरसात के तीन महीनों का पानी केवल अगस्त में बरसने लगा है. गंगा पर बहुत सारे बैराज बनने के बाद स्थिति और खराब होगी. पूर्व पुलिस अधिकारी रामचंद्र खान ने कहा कि अमेरिका में बांध तोड़े जा रहे हैं, लेकिन यहां नए बांध बनाने की कोशिशें हो रही हैं.
सम्मेलन में इस बात पर भी सहमति बनी कि जल, वायु, ज़मीन, आसमान, पहाड़, जंगल, सूरज एवं उसकी धूप और उससे पैदा होने वाली ऊर्जा जनसंपदा है. सरकार को इसके सुचालन के लिए चुना जाता है. वह इसकी मालिक कतई नहीं है. इसलिए उसे यह अधिकार नहीं है कि वह जनसंपदा को बाज़ार की चीज बनाए. इतिहासकार अशोक अंशुमन ने ऐतिहासिक परिवर्तनों का उल्लेख किया, जिनके कारण पहले ज़मीन और फिर उस पर पाई जाने वाली वस्तुएं बाज़ार का हिस्सा बनीं. सम्मेलन में गंगा और प्रकृति के बीच रागात्मक संबंध बनाए रखने पर जोर दिया गया, ताकि यह धरती इंसान के रहने लायक रहे और उसे सुख दे सके. सम्मेलन में मांग की गई कि नई योजना से पहले गंगा सफाई की पुरानी योजनाओं की समीक्षा की जाए, जिनमें अरबों-खरबों रुपये बर्बाद किए गए. कहा गया कि गंगा समेत पूरी प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है, जिसका नतीजा उत्तराखंड और कश्मीर में सामने आया है.
पर्यावरण के रखरखाव के स्थानीय उपाय भी होते हैं. इन उपायों को स्थानीय बोलियां एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाती हैं. विज्ञान 80 फ़ीसद जीव-जंतुओं का नामकरण नहीं कर पाया है, लेकिन स्थानीय बोलियों में इनमें से बहुत सारे जीवों का कोई न कोई नाम ज़रूर होता है. इसलिए जब भी कोई भाषा लुप्त होती है, तो उसके साथ सदियों से एकत्र किए गए इंसानी तजुर्बे का खजाना भी लुप्त हो जाता है. घोषणा-पत्र में जैव विविधता और भाषायी विविधता के आपसी रिश्ते को उजागर करते हुए उनके संरक्षण पर जोर दिया गया. यही तथ्य ध्यान में रखते हुए गंगा संरक्षण का नारा स्थानीय बोली में दिया गया, लौटा द नदिया हमार… सम्मेलन के प्रतिभागियों में डॉ. सफदर इमाम कादरी, किशन कालजई, डॉ. अफसर जाफरी एवं विजय प्रताप आदि भी शामिल थे.

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