AFP_Getty-519679682सत्तर सदस्यीय दिल्ली विधानसभा के लिए चुनाव की घोषणा हो चुकी है. आगामी सात फरवरी को वोट डाले जाएंगे, जबकि 10 फरवरी को वोटों की गिनती होगी. पिछली बार जब दिसंबर 2013 में यहां चुनाव हुआ था, तो किसी भी पार्टी को इतनी सीटें नहीं मिली थीं, जिसकी बुनियाद पर वह आसानी से सरकार बना पाती. दिल्ली में सरकार बनाने के लिए कम से कम 36 सीटें हासिल करना आवश्यक है, लेकिन पिछली बार के चुनाव में भाजपा को 31, आम आदमी पार्टी को 28 और कांग्रेस को केवल आठ सीटें ही मिल पाई थीं. चुनाव परिणाम आने के कुछ दिनों बाद आम आदमी पार्टी कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने में सफल ज़रूर हुई, लेकिन यह सरकार केवल 49 दिनों तक ही चल सकी, क्योंकि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. दरअसल, अरविंद केजरीवाल उस समय आम चुनाव में कूदना चाहते थे, हालांकि उनकी पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर अपना कोई प्रभाव नहीं रखती थी. अपने इस ग़लत निर्णय से मलाल केजरीवाल और उनकी पार्टी को आज तक है.
अब एक बार फिर केजरीवाल दिल्ली को जीतना चाहते हैं, लेकिन मोदी के नेतृत्व में इस बार भाजपा को हरा पाना पहले के मुक़ाबले अधिक कठिन है. कांग्रेस न तो तब कहीं लड़ाई में थी और न अब है. इसलिए कुल मिलाकर जनसामान्य में बात केवल दो ही पार्टियों को लेकर हो रही है, आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी. कुछ लोग यह मान रहे हैं कि पिछली बार तो आम आदमी पार्टी सरकार बनाने में सफल हो गई थी, लेकिन इस बार दिल्ली में भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाएगी. हालांकि, यह भी सच है कि पिछली बार जब पूरी दिल्ली पर अरविंद केजरीवाल का बुखार चढ़ा हुआ था, तो भी चुनाव में आम आदमी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया था और सरकार बनाने के लिए उसे कांग्रेस का समर्थन लेना पड़ा था. इसलिए पूरे विश्‍वास के साथ यह भी नहीं कहा सकता कि ऐसे समय में, जबकि पूरे देश में प्रधानमंत्री मोदी के नाम का डंका बज रहा है, भारतीय जनता पार्टी दिल्ली में अगली सरकार बनाने में कामयाब हो ही जाएगी.
मुसलमानों की अगर बात करें, तो दिल्ली के लगभग एक करोड़ 20 लाख मतदाताओं में से 11 प्रतिशत मतदाता मुस्लिम हैं. मटिया महल, बल्लीमारां, सीलमपुर, मुस्तफाबाद और ओखला जैसे विधानसभा क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं. पिछली बार इन पांचों विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस के टिकट पर मुस्लिम उम्मीदवारों की जीत हुई थी और इस बार भी कुछ ज़्यादा फेरबदल की गुंजाइश नज़र नहीं आ रही है. आम आदमी पार्टी ने भले ही इनमें से चार सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए थे, लेकिन उसका कोई भी उम्मीदवार जीत हासिल करने में सफल नहीं हो सका था. आम आदमी पार्टी ने पांचवें मुस्लिम उम्मीदवार के रूप में शाजिया इल्मी को आरकेपुरम से खड़ा किया था, लेकिन वह भी 326 वोटों के साधारण अंतर से वहां चुनाव हार गई थीं. पिछली बार की तरह इस बार भी आम आदमी पार्टी ने पांच, जबकि कांग्रेस ने छह मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है.
आइए देखते हैं, इन पांचों विधानसभा सीटों पर पिछली बार मुस्लिम उम्मीदवारों की स्थिति क्या थी और इस बार यहां के मुसलमानों का रुझान क्या है. सबसे पहले बात करते हैं मटिया महल विधानसभा सीट की, जो कि पुरानी दिल्ली स्थित जामा मस्जिद के आसपास का क्षेत्र है. यहां पर मुसलमानों की आबादी 67 प्रतिशत है. पिछली बार मटिया महल सीट पर कुल 71,670 वोट पड़े थे, जिनमें से विजयी उम्मीदवार शोएब इकबाल (जो उस समय जदयू में थे और अब कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं) को 22,732 वोट मिले थे. दूसरे नंबर पर रहे कांग्रेस उम्मीदवार मिर्ज़ा जावेद अली को 19,841 वोट मिले थे. आम आदमी पार्टी के शकील अंजुम देहलवी 18,668 वोटों के साथ तीसरे नंबर पर रहे. इस बार कांग्रेस ने मटिया महल सीट से शोएब इकबाल को अपना उम्मीदवार बनाया है. भारतीय जनता पार्टी ने पिछली बार यहां से निज़ामुद्दीन को खड़ा किया था, जिन्हें कुल 6,061 वोट मिले थे. मटिया महल सीट पर 1993 से ही शोएब इकबाल का क़ब्ज़ा रहा है और दिलचस्प बात यह है कि इस सीट पर शोएब इकबाल का नाम पार्टी से हर बार बड़ा हो जाता है. यहां के मतदाताओं पर अब तक इसका कोई फ़र्क नहीं पड़ा है कि शोएब इकबाल किस पार्टी में हैं. यही कारण है कि बिहार के जनता दल यूनाइटेड और लोक जनशक्ति पार्टी में रहकर भी शोएब इकबाल यहां से चुनाव जीत चुके हैं. आजकल वह कांग्रेस में हैं और पिछली बार की तरह इस बार भी उनके जीतने की संभावनाएं प्रबल हैं. भारतीय जनता पार्टी के टिकट से 1983 में बेगम खुर्शीद किदवई भी यहां से एक बार चुनाव जीत चुकी हैं.
पुरानी दिल्ली का एक और मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र है बल्लीमारां. शोएब इकबाल की तरह बल्लीमारां से हारुन यूसुफ़ 1993 से ही कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतते आ रहे हैं. पिछली बार इस सीट पर कुल 88,749 वोट पड़े थे, जिनमें से विजयी कांग्रेस उम्मीदवार हारुन यूसुफ़ को 32,105 वोट मिले थे, दूसरे नंबर पर रहे भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार मोती लाल सोढ़ी को 24,012 वोट मिले थे, जबकि बसपा के इमरान हुसैन तीसरे नंबर पर रहे थे. कांग्रेस ने एक बार फिर इस सीट से हारुन यूसुफ़ को अपना उम्मीदवार बनाया है, वहीं आम आदमी पार्टी ने पिछली बार यहां से बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले इमरान हुसैन को अपना उम्मीदवार बनाया है. पिछली बार यहां से आम आदमी पार्टी की उम्मीदवार फरहाना अंजुम 13,103 वोटों के साथ चौथे नंबर पर थीं. यूं तो इस बार भी यहां से हारुन यूसुफ़ के जीतने की प्रबल संभावना है, लेकिन अगर यहां का मुस्लिम वोट कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में अधिक बंटा, तो उस स्थिति में भाजपा का उम्मीदवार चुनाव जीत सकता है.
मुस्तफ़ाबाद विधानसभा क्षेत्र में यूं तो मतदाताओं की संख्या दो लाख से अधिक है, लेकिन पिछली बार एक लाख 46 हज़ार 314 लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था, जिनमें से 56,250 वोट हासिल कर कांग्रेस उम्मीदवार हसन अहमद ने जीत दर्ज कराई थी, जबकि भाजपा उम्मीदवार जगदीश प्रधान 54,354 वोट हासिल कर दूसरे नंबर पर रहे. तीसरे नंबर पर रहे आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार कपिल धाम को केवल 19,759 वोट मिले थे. कांग्रेस ने इस बार भी हसन अहमद को अपना उम्मीदवार बनाया है, जबकि आम आदमी पार्टी ने इस बार यहां से हाजी यूनुस को खड़ा किया है.
लिहाज़ा, इस बार यहां पर दो पार्टियों द्वारा मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा करने के कारण मुसलमानों का वोट बंटने का ख़तरा बढ़ गया है, जो भाजपा उम्मीदवार को जीत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है.
सीलमपुर भी मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र है. यहां पर मुसलमानों की आबादी लगभग 60 प्रतिशत है. पिछली बार यहां के लगभग डेढ़ लाख मतदाताओं में से 99,295 लोगों ने वोट डाले थे, जिनमें से विजयी कांग्रेस उम्मीदवार चौधरी मतीन अहमद को 46,452 वोट मिले थे, जबकि भाजपा के उम्मीदवार कौशल कुमार मिश्रा 24,724 वोट पाकर दूसरे नंबर पर रहे थे. बहुजन समाज पार्टी के अब्दुल रहमान 13,352 वोटों के साथ तीसरे और आम आदमी पार्टी के मसूद अली ख़ां 12,969 वोटों के साथ चौथे नंबर पर रहे थे. शोएब इकबाल और हारुन यूसुफ़ की तरह चौधरी मतीन अहमद भी 1993 से सीलमपुर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतते रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि 1993 से लेकर 2013 तक के चुनावों में उन्होंने लगातार पांच बार यहां से भाजपा के उम्मीदवार को ही हराया है. दूसरी ओर एक सच्चाई यह भी है कि चौधरी मतीन अहमद को मिलने वाले कुल वोट जहां धीरे-धीरे कम हो रहे हैं, वहीं भाजपा उम्मीदवार के वोटों में लगातार इज़ाफ़ा होता जा रहा है. चौधरी मतीन अहमद को हराने में भाजपा को अभी कितने साल और लगेंगे, यह कहना ज़रा मुश्किल है.
ओखला विधानसभा क्षेत्र में भी मुसलमान किसी भी उम्मीदवार को हराने या जीत दिलाने का दम रखते हैं. सीलमपुर और बल्लीमारां की तरह ओखला से अधिकतर मतदाताओं की पहली पसंद पहले कांग्रेस पार्टी हुआ करती थी, लेकिन 2013 में आम आदमी पार्टी के अस्तित्व में आने के बाद मुसलमानों का वोट कांगे्रस और आम आदमी पार्टी के बीच बंटा है. पिछली बार यहां के कुल 2,35,966 मतदाताओं में से लगभग एक लाख लोगों ने अपने वोट डाले ही नहीं थे. पिछली बार यहां से कांग्रेस उम्मीदवार आसिफ़ मोहम्मद खां ने आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार इरफान खान को 25 हज़ार से अधिक वोटों से हराया था. भाजपा यहां पर तीसरे नंबर पर थी. आम आदमी पार्टी और भाजपा दोनों के ही उम्मीदवारों को 23 हज़ार से कुछ अधिक वोट मिले थे, जबकि आसिफ़ मोहम्मद खां को 50 हज़ार वोट मिले थे. इस बार आम आदमी पार्टी ने यहां से अमानत उल्लाह को टिकट दिया है, जबकि कांग्रेस ने दोबारा आसिफ़ मोहम्मद खां को अपना उम्मीदवार बनाया है. अमानत उल्लाह पिछली बार लोक जनशक्ति पार्टी के टिकट पर खड़े हुए थे और उन्हें केवल 3,747 वोट मिले थे. यहां के लगभग 20 हज़ार लोगों ने बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार ब्रह्म सिंह के पक्ष में वोट दिए थे. मुसलमानों के मौजूदा रुझान को देखते हुए इस बार यहां से आम आदमी पार्टी के वोटों में कुछ इज़ाफ़ा ज़रूर हो सकता है. यहां से आसिफ़ मोहम्मद खां को हरा पाना किसी भी दूसरी पार्टी के लिए मुश्किल लग रहा है.
इन पांच विधानसभा क्षेत्रों के अलावा दिल्ली में और भी कई ऐसे चुनाव क्षेत्र हैं, जहां पर मुसलमानों की बड़ी आबादी रहती है. इन्हीं में से एक बाबरपुर विधानसभा क्षेत्र भी है, जहां पर मुसलमानों की आबादी लगभग 48 प्रतिशत है. यहां पर मुस्लिम वोटों के विभाजन का फ़ायदा उठाते हुए नरेश गौण चार बार भाजपा के टिकट पर चुनाव जीत चुके हैं. पिछली बार भी उन्होंने कांग्रेस के उम्मीदवार ज़ाकिर खान को साढ़े चार हज़ार वोटों के अंतर से हराया था. तीसरे नंबर पर रहे आम आदमी पार्टी के गोपाल राय को केवल 22.37 प्रतिशत वोट मिले थे. इस बार कांग्रेस ने यहां से हाजी दिलशाद को टिकट दिया है.
इसी प्रकार सेंट्रल दिल्ली के पटेल नगर विधानसभा क्षेत्र में भी मुसलमान बड़ी संख्या में रहते हैं. यहां के अधिकतर मुसलमान पहले कांग्रेस को वोट देते थे, लेकिन पिछली बार उनमें से अधिकतर ने आम आदमी पार्टी के पक्ष में वोट दिए. शायद यही कारण था कि पिछली बार यहां से आम आदमी पार्टी की उम्मीदवार वीना आनंद लगभग 38 प्रतिशत वोट हासिल कर जीतने में सफल रहीं, जबकि कांग्रेस तीसरे नंबर पर पहुंच गई, लेकिन इस बार यहां के मुसलमान अपनी विधायक से नाराज़ नज़र आ रहे हैं. उनकी शिकायत है कि वीना आनंद ने अपने क्षेत्र और विशेषकर, मुसलमानों के लिए कुछ भी नहीं किया. सीमापुरी विधानसभा क्षेत्र में भी मुसलमानों की बड़ी आबादी रहती है. पिछली बार यहां से आम आदमी पार्टी के धर्मेंद्र कुमार लगभग 38 प्रतिशत वोटों के साथ जीतने में कामयाब रहे थे, जबकि दूसरे नंबर पर रहे भाजपा के उम्मीदवार रामपाल सिंह को लगभग 21 प्रतिशत वोट मिले थे. यहां के मुस्लिम मतदाताओं के मौजूदा रुझान की बात करें, तो अधिकतर मुस्लिम अब भी आम आदमी पार्टी को अपनी पहली पसंद बताते हैं.
इस तरह देखा जाए, तो दिल्ली में मुसलमानों का रुझान भले ही आम आदमी पार्टी की ओर अधिक दिखाई देता हो, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मुसलमानों ने कांगे्रस को अपना समर्थन देना पूरी तरह बंद कर दिया है. लिहाज़ा मुसलमानों के वोटिंग पैटर्न में इस बार किसी बड़े परिवर्तन की उम्मीद नज़र नहीं आ रही है. इस बात की अधिक उम्मीद है कि पिछली बार जिन मुस्लिम उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की थी, वे इस बार भी अपनी सीट निकालने में कामयाब हो जाएं.

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