5555मध्य-पूर्व में इस समय जिस प्रकार का संकट छाया है, उससे छुटकारा पाने के लिए फिलहाल कोई आसार नज़र नहीं आ रहा है. खाड़ी के सभी देश किसी न किसी रूप में युद्ध जैसे हालात का सामना कर रहे हैं. कुछ प्रत्यक्ष रूप से जंग में शामिल हैं, तो कुछ अप्रत्यक्ष रूप से इसका हिस्सा बने हुए हैं. क्षेत्र में शक्ति और शस्त्रों का असंतुलन तेज़ी से बढ़ रहा है. मध्य-पूर्व में एक ओर ईरान अपने प्रभुत्व के लिए शक्ति प्रदर्शन कर रहा है, तो दूसरी ओर सउदी अरब और उसके सहयोगी अपना दबदबा खोना नहीं चाहते. शक्ति और प्रभुत्व की इस जंग में दुनिया की दो बड़ी ताक़तें अमेरिका और रूस अपने-अपने समर्थकों को मज़बूत करने की दिशा में काम कर रही हैं. रूस ईरान को आधुनिक वायु रक्षा सिस्टम देने पर सहमत है, तो अमेरिका अरब सहयोगियों को आधुनिक हथियारों से लैस कर रहा है. होसी के ख़िला़फ अरब सहयोगियों में सउदी अरब, यूएई, क़तर, बहरीन और मिस्र शामिल हैं. इनसे हथियार बेचने के लिए अमेरिकी हथियार के सप्लायरों ने अरब देशों से अरबों डॉलर कमाने के लिए अपने कार्यालय मध्य-पूर्व में खोल लिए हैं. हथियारों की यह ख़रीद-फरोख़्त निश्चित ही इलाके को जंग की स्थिति में रखने के लिए मददगार होगी. रक्षा उपकरणों के कारोबारी विश्लेषक और मध्य पूर्व के जानकार कहते हैं कि क्षेत्र में संकट छाया है और एक धार्मिक वर्ग दूसरे पर प्रभुत्व चाहता है, जिस कारण रक्षा कारोबार में हाईटेक और हार्डवेयर का इज़ा़फा होगा. मध्य-पूर्व के सभी देश हथियार ख़रीदने के मामले में एक-दूसरे से आगे निकलने की दौड़ में लगे हुए हैं. अंतर्राष्ट्रीय पीस रीसर्च इंस्टीटयूट (एसआईपीआर) के अनुसार, सउदी अरब और यूएई दुनिया के चौथे और पांचवे सबसे बड़े हथियारों के ख़रीदार बन गए हैं. इसके अलावा खाड़ी के अन्य देशों में भी शस्त्र ख़रीदारी के रूझान में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है. वैश्विक अर्थव्यवस्था पर विवेचना करने वाली संस्था आईएचएस रिपोर्ट के अनुसार, हथियारों के कारोबार में रिकॉर्ड बढ़ोतरी का कारण, मध्य-पूर्व और प्रशांत महासागर में बढ़ता हुआ तनाव है. क़तर भी क्षेत्र में प्रभाव बनाना चाहता है. उसने बोइंग कंपनी से हेलीकॉप्टर, पीटरयाट और एयर डिफेंस सिस्टम के अलावा अन्य अमेरिकी कंपनियों से भारी मात्रा में हथियारों की ख़रीद का समझौता किया है. हथियार बनाने वाली कंपनियां क़तर में अपने कार्यालय बना रही हैं. क़तर में बोइंग ने 2011 में अपना एक ऑफिस बनाया था और इस साल लॉक हीड मार्टिन ने वहां अपना कार्यालय बनाया है. हथियारों की यह ख़रीदारी और हथियार बनाने वाली कंपनियों की मध्य-पूर्व में बढ़ती रुचि से संकेत मिलते हैं कि यहां के हालात ठीक नहीं हैं और निकट भविष्य में यह क्षेत्र युद्ध की पस्थितियों से बाहर निकल नहीं पाएगा.

वर्तमान युद्ध, जो सउदी अरब और यमन में हो रहा है, इस जंग को लेकर ईरान नाराज़ है. ईरान बार-बार सउदी अरब और उसके सहयोगियों को धमकी दे रहा है कि अगर उसने यमन के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं रोका, तो वह सउदी अरब को जवाब देगा. यह स्थिति मध्य-पूर्व को आग का गोला बना सकती है. ईरान अगर प्रत्यक्ष रूप से इस लड़ाई में भाग लेता है तो निश्चित रूप से क्षेत्र दो सम्प्रदायों के विवाद में उलझ जाएगा. यानी शिया और सुन्नी एक दूसरे के आमने-सामने होंगे और यह लड़ाई लंबी भी हो सकती है. राजनीतिक जानकार तो यहां तक कहते हैं कि अगर यमन में होसियों पर सउदी अरब का हमला रुक जाए, तो भी क्षेत्र में प्रभुत्व बनाने के लिए सउदी अरब और ईरान के बीच शीत युद्ध जारी रहेगा और यह शीत युद्ध साम्प्रदायिक आधार पर होगा.
मध्य-पूर्व में अभी कई सालों तक युद्ध की स्थिति बरक़रार रहेगी, चाहे यह स्थिति वर्तमान सैन्य हमले के रूप में हो या ईरान और सउदी अरब के बीच के शीत युद्ध के रूप में. इसके अलावा एक संवेदनशील मसला है, जो मध्य-पूर्व के लिए निरंतर ख़तरा बना हुआ है और वह है क़तर का इस्लामी कट्‌टरपंथी समूहों के लिए नरमपंथी व्यवहार रखना. खाड़ी देशों में क़तर एकमात्र ऐसा देश है, जो दुनिया के विभिन्न हिस्सों में पाए जाने वाले इस्लामी समूहों के प्रति नरम रुख़ रखता रहा है. सूडान से प्रकाशित होने वाला एक अरबी अख़बार लिखता है कि जिस समय सउदी अरब इख़्वान समूह को आतंकवादी समूह बताने के लिए अमेरिका पर दबाव बना रहा था, उस समय क़तर ने विरोध किया था, लेकिन इसके विरोध के बावजूद उख़्वान को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी समूह क़रार दे दिया गया. इसके बाद क़तर ने हालांकि उख़्वानियों को अपने यहां कार्यालय खोलने की अनुमति नहीं दी, लेकिन उख़्वान के कड़े समर्थक प्रसिद्ध धर्मगुरु यूसु़फ क़रज़ावी को अपने यहां शरण दी. क़रज़ावी ने वहां उख़्वानी चिंतन पर आधारित कई इस्लामी केन्द्र स्थापित किए. यही नहीं, अलजज़ीरा चैनल पर अलशरिया वलहियात के नाम से उनका अधिकारिक रूप से एक प्रोग्राम प्रसारित किया जाता था, जिस पर सउदी अरब ने कड़ी आपत्ति भी की, लेकिन क़तर ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. यूसु़फ क़रज़ावी मिस्र सरकार को उख़्वान समर्थन के कारण से वांछित हैं. मिस्र से प्रकाशित होने वाला एक अरबी अख़बार अलयौम ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसके अनुसार सउदी अरब और कुछ अन्य अरब देशों के दबाव में क़तर ने अपने यहां शरण लिए हुए जिन 7 उख़्वानी प्रतिनिधियों के निष्कासन का निर्णय लिया था, बाद में इस फैसले को वापस ले लिया. इन 7 प्रतिनिधियों में उख़्वान के दो सक्रिय प्रतिनिधि जमाल अब्दुल सत्तार और अस्साम तस्लीमा और संगठन के महासचिव महमूद हुसैन भी शामिल थे. यह स्थिति अरब स्प्रिंग के बाद की ही नहीं है, बल्कि क़तर में उख़्वानियों की जड़ें बहुत पुरानी हैं. आठवें दशक में क़तर से एक पत्रिका अलउम्मा नाम से प्रकाशित होती थी. इसके संपादक एक उख़्वानी अमर उबैद हस्ना थे. इस पत्रिका में उख़्वानी चिंतन का प्रतिनिधित्व किया जाता था, लेकिन यह पत्रिका अब बंद हो चुकी है. उख़्वानियों के प्रति नरम रुख़ रखने के अलावा क़तर पर मूरीतानिया में इस्लामी समूहों को सहायता पहुंचाने का भी आरोप लगता रहा है.
यह परिस्थितियां बता रही हैं कि उख़्वान को क़तर में वैध दर्जा प्राप्त न होने के बावजूद इसके समर्थकों की भारी संख्या मौजूद है. यही वे तथ्य हैं, जिस कारण कहीं न कहीं यह संशय पैदा होता है कि क़तर में यह इस्लामी कट्‌टरपंथी वही रास्ता अपना सकते हैं, जो मिस्र में अपनाया गया था. अलउख़्वान ने जमालअब्दुल नासिर से लेकर अनवर सादात तक और फिर होस्नी मुबारक के दौर में बेहद ख़ामोशी से अपनी जड़ें मज़बूत कीं और जैसे ही क्षेत्र में अरब स्प्रिंग का तूफान आया, तो उसने अपना शक्ति प्रदर्शन करके सरकार पर अपना क़ब्ज़ा कर लिया. अब अगर क़रज़ावी जैसे लोग देश में अपनी गतिविधियां चला रहे हैं, तो निश्चित ही उनकी जड़ें भी मज़बूत हो रही होंगी और जैसे ही मौक़ा मिलेगा, वह मिस्र में उख़्वानियों और यमन में होसियों की तरह क्रांति ला सकते हैं.
ख़ैर, अरब देशों के बीच हथियारों की ख़रीदारी की होड़ और खाड़ी क्षेत्रों में ईरानी हस्तक्षेप क़तर का इस्लामी कट्‌टरपंथियों के प्रति नरम रुख़ रखना. ये सभी चीज़ें संकेत दे रही हैं कि मध्य-पूर्व में निकट भविष्य में युद्ध स्थितियों से बाहर निकल नहीं पाएगा.

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