voting_PTI16वीं लोकसभा का चुनाव दस्तक दे चुका है. 6 मार्च को आचार संहिता लागू होने के बाद 13 मार्च को प्रथम चरण के लिए नामांकन प्रक्रिया भी शुरू हो गई है. प्रथम चरण में दस अप्रैल को राज्य की दस लोकसभा सीटों पर मतदान होगा, जिनमें सहारनपुर, कैराना, मुजफ्फनगर, बिजनौर, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर, बुलंदशहर एवं अलीगढ़ शामिल हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव में इन दस सीटों में से पांच पर बसपा का दबदबा रहा था और कांगे्रस का खाता तक नहीं खुला था. भाजपा एवं राष्ट्रीय लोकदल ने दो-दो और सपा ने एक सीट जीती थी. प्रथम चरण के मतदान से पूरे प्रदेश की राजनीतिक बयार तय होगी. पिछली बार राष्ट्रीय लोकदल ने लोकसभा का चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़ा था, लेकिन इस बार उसका गठबंधन कांगे्रस के साथ है. इसके अलावा आम आदमी पार्टी (आप) का भी उदय हुआ है. कई नेताओं के पाला बदलने से भी क्षेत्र की जमीनी लड़ाई पर असर पड़ता दिख रहा है. अमर सिंह के साथ रालोद में शामिल हुईं पूर्व फिल्म अभिनेत्री एवं रामपुर की सांसद जयाप्रदा अबकी बार अपनी पार्टी और सीट बदल कर रालोद के बैनर तले बिजनौर से चुनाव लड़ रही हैं. अजित सिंह ने अपने मौजूदा सांसद संजय चौहान का टिकट काटकर जयाप्रदा को मैदान में उतारा है.
पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश के एक कद्दावर नेता रशीद मसूद जेल में हैं. हालांकि उन्होंने अपने बेटे के लिए समाजवादी पार्टी से टिकट का जुगाड़ ज़रूर कर लिया. सपा ने पहले सहारनपुर से मसूद के भतीजे इमरान को टिकट दिया था. उस समय मसूद सपा से नाराज होकर कांगे्रस के साथ खड़े थे, लेकिन सपा से टिकट पक्का होते ही वह पाला बदल कर अपने पुराने घर लौट आए थे. रशीद मसूद के सपा में वापस आने के बाद  इमरान नाराज होकर कांगे्रस में चले गए और वहां से टिकट भी ले आए. 2009 के मुकाबले 2014 में हालात काफी भिन्न हैं. कुछ माह पूर्व हुए सांप्रदायिक दंगों के कारण इस बार यहां बड़े उलट-फेर की उम्मीद है. जाट-मुस्लिम समीकरण दंगों की आग में झुलस चुका है. मोदी लहर पर सवार होकर भाजपा मैदान मारने की कोशिश में है. कांगे्रस ने अपने गठबंधन की ताकत बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को दरकिनार करके जाट बिरादरी को आरक्षण देकर जीत का दांव चला है. वहीं सपा मुसलमानों को लुभाने के लिए दंगा पीड़ितों पर धनवर्षा कर रही है. पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी ताकत बढ़ाने के लिए सपा आलाकमान कई रालोद नेताओं को तोड़कर अपने पाले में खींच चुका है. कभी अजित की सबसे क़रीबी रहीं अनुराधा चौधरी अब सपा में हैं. भाजपा को जाट वोटबैंक पर भरोसा है. सभी दल अपने-अपने हिसाब से दंगों को भुना रहे हैं. इसीलिए दंगे के कई आरोपी भी चुनाव मैदान में ताल ठोंकते दिख रहे हैं. 2009 में सहारनपुर से बसपा के जगदीश सिंह राणा सपा के रशीद मसूद को, कैराना से बसपा की तबस्सुम बेगम भाजपा के हुकुम सिंह को, मुजफ्फरनगर से बसपा के कादिर राणा रालोद की अनुराधा चौधरी को, बिजनौर से रालोद के संजय सिंह चौहान बसपा के शाहिद सिद्दीकी को, मेरठ से भाजपा के राजेंद्र अग्रवाल बसपा के मलुक नागर को, बागपत से रालोद अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह बसपा के मुकेश शर्मा को, गाजियाबाद से भाजपा के वर्तमान एवं तत्तकालीन अध्यक्ष राजनाथ कांगे्रस के सुरेंद्र प्रकाश गोयल को, गौतमबुद्ध नगर से बसपा के सुरेंद्र सिंह नागर भाजपा के मुकेश कुमार शर्मा को, बुलंदशहर से सपा के कमलेश भाजपा के अशोक कुमार प्रधान और अलीगढ़ से बसपा की राजकुमारी चौहान सपा के जफर आलम को पराजित कर सांसद बने थे.
कांंगे्रस इस बार यहां शून्य से ऊपर उठने की कोशिश में रालोद से गलबहियां किए हुए है. 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अपनी सरकार की पांच साल की उपलब्धियां गिना रही थी, जिनमें जमीन अधिग्रहण क़ानून एवं खाद्य सुरक्षा क़ानून प्रमुख थे, लेकिन 2014 में कांग्रेस आलाकमान ने दोनों कार्यकालों की उपलब्धियां जनता को बताने का फरमान दिया है. कांगे्रस जाट आरक्षण का फ़ायदा लेने के अलावा भारत निर्माण पर जोर दे रही है. कांग्रेसी नेता यहां सपा-भाजपा दोनों ही दलों के ख़िलाफ़ गुजरात और मुजफ्फरनगर के दंगों को मुद्दा बनाने के लिए प्रयासरत हैं, ताकि अल्पसंख्यक मतदाताओं का बड़ा हिस्सा अपने पाले में किया जा सके, लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद सत्ता विरोधी लहर कांगे्रस को हैरान-परेशान किए हुए है. भाजपा नरेंद्र मोदी और गुजरात में उनकी सरकार में हुए विकास के दावों के सहारे टिकी है. मोदी ने रैलियों के जरिए कमान संभाल रखी है. वह मेरठ में जनसभा भी कर चुके हैं, जहां जुटी भीड़ से भाजपा के हौसले बुलंद हैं. भाजपा को उम्मीद है कि इस बार जाट उसका बेड़ा पार लगाएंगे. भाजपा सपा-बसपा को जाट मतदाताओं के बीच खलनायक के रूप में पेश कर रही है, वहीं वह रालोद को इसलिए कोस रही है, क्योंकि मुसीबत के समय उसके नेताओं ने जाट बिरादरी के पीड़ितों का दर्द बांटना तो दूर, यहां आना भी उचित नहीं समझा. गुजरात दंगों की चर्चा न हो, इसलिए भाजपा दंगों के मसले पर उतनी आक्रामक नहीं है, जितनी सुशासन एवं विकास के एजेंडे को लेकर है. पिछले चुनाव तक राम मंदिर जो मुद्दा उसने प्रमुखता से उठाया था, अबकी वह हाशिये पर है.
दस सीटों पर मतदान का रुझान सबसे अधिक सपा को प्रभावित करेगा. यहां से पूरे प्रदेश में यह संदेश जाएगा कि मुसलमानों का विश्‍वास मुलायम से उठ गया है या फिर आज भी वह अल्पसंख्यकों के बीच लोकप्रिय हैं. एक वक्त था, जब विरोधी दल सपा की छवि कंप्यूटर एवं अंग्रेजी विरोधी के रूप में पेश करते थे. बदलते वक्त के साथ सपा ने युवाओं से खुद को जोड़ा. युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की लैपटॉप वितरण योजना खासी लोकप्रिय हुई, किंतु दंगों की आग ने सपा को झुलसा कर रख दिया. पार्टी अब मुजफ्फरनगर दंगे के मुद्दे से होने वाले संभावित नुकसान की भरपाई में लगी है. वह दंगा पीड़ितों को सबसे ज़्यादा आर्थिक मदद देने का ढिंढोरा पीट रही है. सपा नेतृत्व विकास और गुजरात दंगों के सहारे भाजपा से दो-दो हाथ करने की रणनीति को अमली जामा पहनाने में लगा है. बसपा प्रमुख मायावती के लिए यहां अपनी प्रतिष्ठा बचाए रखना नाक का सवाल बन गया है. उनके नेताओं पर भी दंगा भड़काने का आरोप है. इसके अलावा मायावती का दंगों के समय यहां से दूरी बनाए रखना भी लोगों को रास नहीं आया. लखनऊ में बसपा ने रैली करके कांग्रेस, सपा एवं भाजपा को निशाने पर लिया था. मायावती सभी दलों को दलित-अल्पसंख्यक विरोधी बता रही हैं, वहीं सवर्णों को रिझाने के अपने पुराने मुद्दे को भी धार दे रही हैं. वह अपनी सरकार में दंगे न होने को मिसाल के तौर पर पेश करके मुसलमानों का भरोसा हासिल करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं. आप का उभार या पतन भी यहां पहली बार देखने को मिलेगा. राज्य में सियासत किस करवट बैठेगी, यह बात दस अप्रैल को काफी साफ़ हो जाएगी.
 

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