“याद तुम्हारी आती जब, मुस्काती है शाम..
ना जाने इस पगली से किसने कहा तेरा नाम?”

मेरे मन की सबसे खूबसूरत देहरी पर तुम्हारी स्मृतियों का एक दीया जलता रहता है। रौशनी से सराबोर मैं उसकी लपटों में तुम्हें महसूस करता हूँ। सावन की तेज़ ठंडी फ़ुहारें उसकी आँच को और भड़का देती हैं। कितना कुछ है जो मैं लिख देना चाहता हूँ। चीख-चीख कर बता देना चाहता हूँ। पर मैं जानता हूँ कि ये मेरे सामर्थ्य से बाहर की बात है। सुन रही हो न, इन धड़कनों में अपना नाम? मेरे लिखे में अपनी ध्वनि? सब कहते हैं कि मैं कमाल का लिखता हूँ। लेकिन, मैं जानता हूँ कि जब तक मेरे लिखे में तेरी मौजूदगी, तेरी महक नहीं होगी उसमें रूह भी नहीं होगी। देहरी पर रखा वो दिया बुझ जाएगा। आज इतना ही। शेष मिलने पर।

हीरेंद्र झा

(एक प्रेमी की डायरी से चुन-चुन कर कुछ पन्ने हम आपके लिए लाते रहेंगे)

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