nagalandपूर्वोत्तर के राज्य और वहां के लोग खुद को अलग-थलग पाते हैं. पूर्वोत्तर को विकास और देश की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए सरकार द्वारा लगातार प्रयास जारी हैं. लेकिन, शहरों और दिलों को जोड़ने का काम करने वाली सड़क के निर्माण में घोटाला किए जाने का मामला प्रकाश में आने से पूर्वोत्तर के लोगों को खासा झटका लगा है. नगालैंड के चार ज़िले एक-दूसरे से कटे हुए हैं. वहां के लोगों को दूसरे ज़िले में जाने के लिए दुर्गम पहाड़ों को पार करना पड़ता है. एनएच-39, जिसे वहां की लाइफ लाइन माना जाता है, का निर्माण कार्य कई वर्ष पहले शुरू हुआ था, जो आज तक जारी है. बरसात के मौसम में भू-स्खलन होने की वजह से आवागमन ठप हो जाता है. खाद्य सामग्री, एलपीजी, पेट्रोल-डीजल और दवाओं की आपूर्ति बाधित हो जाती है. इसके चलते लोगों को खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. मीडिया में भी इन समस्याओं की खबरें न के बराबर आती हैं. नगालैंड के इन ज़िलों में पेयजल के लिए लोग झरनों पर निर्भर रहते हैं. महिलाओं को पानी लाने के लिए दुर्गम पहाड़ों पर मीलों दूर जाना पड़ता है.

ऐसे में इन क्षेत्रों में सड़कों का महत्व भलीभांति समझा जा सकता है. लेकिन, यदि सड़क निर्माण कार्य में सैकड़ों करोड़ रुपये का घोटाला हो जाए, तो फिर क्या होगा? फिर कैसे विकसित भारत का सपना पूरा होगा? कैसे हम सुदूर पूर्वोत्तर को देश की मुख्य धारा से जोड़ सकेंगे? मामला नगालैंड का है, जहां लोंगलैंग- चांगटोंज्ञा, मोन-तामलू-मेरांगकोंग, फेक-फूटजेरो और जूनहेबटो-चाकाबामा को एक-दूसरे से जोड़ने वाली सड़कों के निर्माण कार्य में 1,700 करोड़ रुपये का घोटाला किए जाने का मामला प्रकाश में आया है.
उक्त पूरी धनराशि सरकारी खजाने से निकल गई, लेकिन निर्माण कार्य आज तक पूरा नहीं हो सका. ग़ौरतलब है कि यह प्रोजेक्ट चार अलग-अलग सेक्टरों का था, जिसे बाद में जोड़कर एक कर दिया गया. 329 किलोमीटर लंबे इस मार्ग के निर्माण का ठेका मेटास इंफ्रा, जो आईएल एंड एफएस इंजीनियरिंग एंड कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड के नाम से जानी जाती है, को दिया गया था. मालूम हो कि मेटास इंफ्रा सत्यम घोटाले से जुड़ी कंपनी है. आईएल एंड एफएस कंपनी गायत्री प्रोजेक्ट्‌स के साथ 62 और 38 फीसद हिस्सेदारी के साथ ज्वॉइंट वेंचर के तौर पर काम करती है.
हैरानी की बात यह है कि प्रोजेक्ट शुरू होते ही इसकी लागत ढाई गुना बढ़ गई है. आईएल एंड एफएस और गायत्री प्रोजेक्ट्‌स पर आरोप है कि उन्होंने नगालैंड सरकार को 1,700 करोड़ रुपये की चपत लगाई. वर्ष 2010 में मेटास इंफ्रा और गायत्री प्रोजेक्ट्‌स को नगालैंड पीडब्ल्यूडी से 329 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने का ठेका मिला था. मेटास इंफ्रा और गायत्री प्रोजेक्ट्‌स को 9 दिसंबर, 2010 को केंद्र की मंजूरी मिली थी. इसके बाद 3 फरवरी, 2011 को दोनों कंपनियों को पीडब्ल्यूडी नगालैंड ने ठेका दिया था. शर्त यह थी कि प्रोजेक्ट फरवरी 2014 तक पूरा हो जाना चाहिए. प्रोजेक्ट मिलने के नौ महीने के अंदर मेटास इंफ्रा का नाम बदल कर आईएल एंड एफएस इंजीनियरिंग एंड कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड हो गया. इस प्रोजेक्ट के प्रमोटर रामालिंगम राजू को हाल में सत्यम घोटाले में सात साल की सजा हुई है. प्रोजेक्ट शुरू होने के साल भर के अंदर आईएल एंड एफएस ने इसकी लागत रिवाइज्ड करके ढाई गुना बढ़ा दी. जानकारों के अनुसार, यह प्रोजेक्ट 1,296 करोड़ रुपये में पूरा हो जाना चाहिए था, लेकिन इसकी लागत बढ़ाकर 2,978 करोड़ रुपये कर दी गई.
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस निर्माणाधीन सड़क की लंबाई पहले 329 किलोमीटर तय की गई थी, जिसे बाद में घटाकर 313 किलोमीटर कर दिया गया. सवाल यह है कि जब निर्माणाधीन सड़क की लंबाई 16 किलोमीटर कम हो गई, तो लागत क्यों नहीं घटी? हैरानी की बात तो यही है कि लागत घटने के बजाय ढाई गुना बढ़ गई. इस प्रोजेक्ट की कॉन्ट्रैक्ट डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट नगालैंड के पीडब्ल्यूडी ने तैयार की थी और इसके बाद प्रस्ताव केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय को भेजा गया, क्योंकि हाईवे प्रोजेक्ट की फंडिंग केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय ही करता है, जबकि राज्य सरकारें वर्क कॉन्ट्रैक्ट देने का काम करती हैं. सूत्रों के अनुसार, आईएल एंड एफएस ने कम से कम 1,682 करोड़ रुपये से ज़्यादा रकम झटकने की योजना बनाई थी. यह योजना तब बनाई गई, जब सड़क की लंबाई 329 किलोमीटर तय की गई थी, जबकि बाद में सड़क की लंबाई घटाकर 313 किलोमीटर कर दी गई.
आईएल एंड एफएस ने स़फाई पेश की है कि लागत में इजा़फा ज़रूर हुआ है, लेकिन इसके पीछे ज़मीन की खुदाई में आने वाला खर्च है. कंपनी का कहना है कि डीपीआर (ऊशींरळश्रशव झीेक्षशलीं ठशिेीीं) में खामी थी और उसने निर्माण लागत बढ़ने की जानकारी पीडब्ल्यूडी-नगालैंड को दे दी थी तथा 2011 में नगालैंड सरकार को भी इस बारे में अवगत करा दिया था. सवाल यह है कि जब कंपनी को पता था कि उसे कितनी लंबी और कहां तक सड़क बनानी है, तो फिर क्या उसे यह पता नहीं था कि सड़क बनाने के लिए कितनी खुदाई करनी पड़ेगी और उस पर कितना खर्च आएगा? और, अगर डीपीआर में खामी थी, तो उसने यह मामला प्री-बिड मीटिंग में क्यों नहीं उठाया? राज्य सरकार को नौ माह बाद जानकारी क्यों दी गई? कंपनी द्वारा पेश की गई स़फाई कहीं से गले नहीं उतरती.
इस सड़क घोटाले से केंद्र सरकार हैरान है और वह इसकी जांच सीबीआई से कराने पर विचार कर रही है. जांच का बिंदु संभवत: यह होगा कि जब चारों ज़िलों के लिए अलग-अलग प्रोजेक्ट थे, तो उन्हें मिलाकर एक क्यों कर दिया गया? सूत्रों के मुताबिक, यह प्रोजेक्ट निरस्त होगा और फिर इसे नए सिरे से बनाया जाएगा. मजे की बात है कि जब रिवाइज्ड कॉस्ट पर सवाल उठे, तो सड़क परिवहन मंत्रालय ने कंसल्टेंसी कंपनी राइट्‌स को चार करोड़ रुपये बतौर शुल्क देकर प्रोजेक्ट की वैल्यूएशन जांचने का ज़िम्मा सौंपा. राइट्‌स ने अपनी शुरुआती रिपोर्ट में रिवाइज्ड कॉस्ट पहले से 15 करोड़ रुपये ज़्यादा बताई. इस रिपोर्ट के बाद राइट्‌स की भी मंशा सामने आ गई. राइट्‌स की रिपोर्ट संगठित भ्रष्टाचार का जीता-जागता उदाहरण है.

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