China-road-in-Himalayaनेपाल और उत्तर भारत में आए जानलेवा भूकंप के कारणों में टेक्टॉनिक प्लेट्स के खिसकने और टकराने के चाहे जितने भौगोलिक-भूगर्भशास्त्रीय तर्क गढ़े जाएं, लेकिन हिमालय के स्थैर्य (स्थिरता) में लगातार व्यवधान डाल रहे चीन की हरकतों के बारे में भी पूरी दुनिया को विचार करना चाहिए. भारत को घेरने के लिए हिमालय को घेरना ज़रूरी है, इसीलिए चीन हिमालय को तीन तऱफ से काट-काटकर उसकी चौहद्दी कम कर रहा है. और तो और, हिमालय के नीचे सुरंग खोदने तक के उपक्रम किए जा रहे हैं.
नेपाल का भूकंप बहाना नहीं बनना चाहिए, लेकिन यह इस बात की गहराई से समीक्षा करने का ज़रिया ज़रूर बनना चाहिए कि चीन से नेपाल तक हिमालय को काटकर बनाए गए द फ्रेंडशिप हाईवे ने हिमालय को कितना नुक़सान पहुंचाया है? अब चीन से नेपाल तक बन रहे रेल मार्ग को लेकर हिमालय के अंदर जो सुरंग खोदे जाने की पूर्व भूमिका बनाई जा रही है, उसकी गतिविधियों से हिमालय कितना परेशान है? हिमालय के सीने पर बसा देश नेपाल, हिमालय के अंदर चल रही हरकतों से महफूज कैसे रह सकता है? नेपाल के भौगोलिक विशेषज्ञों का भी मानना है कि द फ्रेंडशिप हाईवे ने नेपाल का बहुत ऩुकसान किया है और प्रस्तावित रेल मार्ग तो नेपाल को नेस्तनाबूद कर देगा. वैसे भी, चीन भारत और अपने बीच किसी बफर-स्टेट का अस्तित्व नहीं चाहता. चीन और नेपाल के बीच बना द फ्रेंडशिप हाईवे तिब्बत के ल्हासा से हिमालय के बीच से होता हुआ झांगमू और नेपाल के कोडारी तक पहुंचता है. बीच में चीन के शंघाई तक जाने वाली सड़क भी इससे कटती हुई जाती है. आप यहां ध्यान देते हुए चलें कि नेपाल के कोडारी इलाके में भूकंप के झटकों ने अत्यधिक तबाही मचाई है. सामरिक एवं रणनीतिक दृष्टि से बनाई गई यह सड़क हिमालय से भारत की तऱफ बहने वाली सारी प्रमुख नदियों यथा गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, अरुण, कोशी, यहां तक कि हिमालय पर्वत श्र्खला की पवित्र चोटी कैलाश, पवित्र मान सरोवर झील को छूती और काटती हुई चलती है. नेपाल के कोडारी तक आने वाली यह सड़क आगे भी अरनिको राजमार्ग के नाम से काठमांडू तक पहुंचती है. हिमालय को काट-काटकर बनाया गया यह हाईवे 5,476 किलोमीटर यानी 3,403 मील का रास्ता तय करता है.
भारत पर हमले के एक साल पहले यानी 1961 से ही चीन हिमालय के इस क्षेत्र को काटकर सड़क ले जाने की कोशिश कर रहा था. भारत-चीन युद्ध के एक साल बाद 1963 में चीन ने काठमांडू-कोडारी रोड बनाना शुरू कर दिया और 1967 में इसे आवागमन के लिए खोल भी दिया. बाद के वर्षों में इसके विस्तार पर लगातार काम होता रहा. आप इस बात पर भी हैरत करेंगे कि चीन जैसे चालाक देश ने नेपाल से लगी अपनी सीमा पर कहीं भी सुरक्षा चौकी नहीं रखी है. केवल कोडारी रोड पर चीन का एक चेक-पोस्ट बना है. अब इसी रूट पर चीन ल्हासा से खासा (नेपाल सीमा पर स्थित) और काठमांडू तक रेलवे लाइन के निर्माण पर काम कर रहा है. खूबी यह है कि चीन और नेपाल को रेल मार्ग से जोड़ने वाले इस प्रोजेक्ट में नेपाल के एक भी श्रमिक को काम में शामिल नहीं किया गया है. चीन 2020 तक इसे पूरा कर लेना चाहता है. इस रेल मार्ग को हिमालय के अंदर-अंदर खुद रही कई लंबी-लंबी सुरंगों से होकर गुजरना है. इस रेल प्रोजेक्ट को इंटरनेशनल कैंपेन फॉर तिब्बत के अलावा कई दूसरे संगठनों ने भी क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए खतरनाक होने के साथ-साथ पर्यावरण को बेहद नुक़सान पहुंचाने वाला बताया है. इसके पहले ब्रह्मपुत्र नदी पर बांधों की श्र्ृंखला बनाए जाने की चीन की हरकतों पर भारत सरकार औपचारिक तौर पर आपत्तियां भी दर्ज कर चुकी हैं, लेकिन उन आपत्तियों से चीन की हरकतों पर कोई असर नहीं पड़ रहा.
भूगर्भशास्त्रियों का कहना है कि भारत और यूरेशियाई टेक्टॉनिक प्लेटों के खिसकने की दो वजहें होती हैं, एक तो प्राकृतिक रूप से आंतरिक ऊर्जा के कारण प्लेटों में खिसकाव होता रहता है और दूसरे बाह्य व्यवधान के कारण भी टेक्टॉनिक प्लेट्स में अतिरिक्त कंपन के कारण खिसकाव होता है. प्लेटों के खिसकने के कारण ऊपरी सतह पर भूकंप महसूस होता है. रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि हिमालय क्षेत्र में चीन ने अपनी रक्षा प्रणाली को पुख्ता करने के लिए पर्वतीय श्र्ृंखला को तहस-नहस करके रख दिया है, जिसके चलते हिमालय क्षेत्र में अंदरूनी अप्राकृतिक बाधाएं ज़्यादा आ रही हैं. नतीजतन हिम-स्खलन, भू-स्खलन और भूकंपन की घटनाएं काफी बढ़ गई हैं. केदारनाथ त्रासदी के पीछे भी हिमालय क्षेत्र की अतिरिक्त (मानवीय) भौगर्भिक गतिविधियों को ही ज़िम्मेदार बताया गया था. विकास कार्यों के ज़रिये भारतीय पक्ष भी हिमालय को थोड़ा-बहुत अस्थिर कर रहा है और चीन तो उसे बिल्कुल ही वेध डालने पर आमादा है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी चर्चा नहीं होती. जम्मू-कश्मीर से लेकर हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, कच्छ, बिहार, अंडमान निकोबार द्वीप समूह को भूकंपन के सबसे खतरनाक जोन-5 में रखा गया है. इसके अलावा दिल्ली, सिक्किम, उत्तरी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, गुजरात एवं महाराष्ट्र का कुछ हिस्सा और राजस्थान का पश्चिमी तट आदि भूकंपीय खतरे के जोन-4 में शामिल हैं. इसमें उत्तर भारत को सर्वाधिक खतरा उत्तराखंड में बने टिहरी डैम से है. नेपाल में आया भूकंप रिक्टर स्केल पर 7.9 दर्ज किया गया है. टिहरी डैम के बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि रिक्टर स्केल पर 8.5 मैगनिट्यूड से अधिक का कंपन होने पर यह डैम टूट सकता है.


…तो उत्तर भारत सैलाब में बह जाएगा
अगर टिहरी डैम टूटा, तो केवल उत्तराखंड ही क्या, पूरा उत्तर भारत ही पानी के अंदर होगा. टिहरी डैम मध्य हिमालय के सबसे सक्रिय भूकंपीय क्षेत्र (सिसमिक जोन) में बना हुआ है. टिहरी डैम की डिज़ाइन कुछ इस तरह की बनी है कि यह रिक्टर स्केल पर 7.2 तक के झटके बर्दाश्त कर सकता है. हालांकि, डैम के निर्माण से जुड़े रहे इंजीनियरों का कहना है कि 8.5 के मैगनिट्यूड पर अगर भूकंप आया, तो टिहरी डैम ध्वस्त हो सकता है. और अगर ऐसा हुआ, तो उत्तर भारत का अधिकांश हिस्सा धुल जाएगा. भूकंप से भूस्खलन भी तेजी से होता है. अभी हाल ही केदारनाथ में जो आपदा आई थी, उसमें भी टिहरी को काफी ़खतरा था. बड़ा भूस्खलन भी टिहरी डैम को ध्वस्त कर सकता है. टिहरी डैम की दीवारों में पहले से ही कई स्थानों पर दरारें (फिसर्स) हैं, जिनसे रिसाव होता रहता है, जिसे रोकने के लिए रूस से विशेषज्ञों को बुलाना पड़ा. उल्लेखनीय है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर के भूकंप विज्ञानी (सिसमोलॉजिस्ट) डॉ. विनोद गौर ने टिहरी डैम की सुरक्षा को लेकर कई सवाल खड़े किए थे, लेकिन उनके सुझावों को पूरी तरह अनसुना करके टिहरी डैम का निर्माण किया गया. प्रोफेसर जेम्स ब्रूने ने भी टिहरी डैम को विश्व का सबसे असुरक्षित डैम बताया है. हालांकि, टिहरी डैम का निर्माण करने वाले प्रोजेक्ट इंजीनियरों ने प्रोफेसर ब्रूने के फॉर्मूले से मदद भी ली थी.

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