बिहार के मुजफ्फरपुर ज़िले के हुस्सेपुर, चांदकेवारी पंचायत के दलित-महादलित एवं पिछड़े टोले के नन्हें  हाथ महानगरों की चकाचौंध में जोखिम भरे काम कर रहे हैं. सरयुग, अर्जुन, टुन्नी, दरोगा (काल्पनिक नाम)  आदि बच्चे सूरत (गुजरात), दिल्ली, कोलकाता, असम आदि जगहों पर आधी मज़दूरी में काम करने को मजबूर हैं. सरयुग प्राथमिक स्कूल में पढ़ता था, जो अब घर की माली हालत सुधारने के लिए सूरत स्थित एक कपड़ा फैक्ट्री में नौकरी करता है. 

backkजिस उम्र में बच्चों को माता-पिता का प्यार, समाज से संस्कार और स्कूल से अक्षर ज्ञान मिलना चाहिए, उस में देश का बचपन अपने और परिवार के पेट की खातिर ज़ोखिम भरे काम कर रहा है. ऐसे बच्चों को ढाबों, होटलों, रेस्टोरेंटों एवं रेलवे स्टेशन पर देखा जा सकता है. कमरतोड़ मेहनत के बाद दो वक्त की रोटी बहुत मुश्किल से नसीब हो पाती है. ढेर सारे बच्चे फटेहाल ज़िंदगी जी रहे हैं, वे सड़क के किनारे, बस एवं रेलवे स्टेशन के आस-पास कूड़े-कचरे के ढेरों में अपना जीवन तलाश रहे हैं. सड़क पर जीवन बिताने वाले बच्चों की संख्या देश में लाखों में है, लेकिन शासन-प्रशासन और नीति नियंताओं द्वारा कहा जाता है कि बाल श्रमिक अब न के बराबर हैं. यूनिसेफ की मानें, तो भारत में सड़कों पर जीवन बसर करने वाले बच्चों की संख्या दो करोड़ से भी अधिक है, जो भुखमरी के साथ-साथ उपेक्षा, उत्पीड़न और शोषण के शिकार हैं. उनसे भीख मांगने, चोरी, जेबकतरी और अवैध शराब बेचने जैसे अनैतिक कार्य कराए जाते हैं, जिसकी वजह से उनकी ज़िंदगी नारकीय बनती जा रही है.
देश भर में असामाजिक तत्वों एवं एजेंटों के ज़रिये पैसा कमाने के लिए बच्चों का सौदा बेरोकटोक किया जा रहा है. ऐसे बच्चे परिस्थितियोंवश शराब, सिगरेट, तंबाकू, बीड़ी आदि का सेवन करने लगते हैं. बाल मज़दूरी निषेधाज्ञा एवं विनियमन क़ानून बने ढाई दशक हो गए, पर बाल मज़दूरी के ग्राफ में कमी आने के बजाय 15 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है. सरकार के कुछ प्रभावी प्रोजेक्ट बने और चले भी, पर भ्रष्टाचार की गंगोत्री में आकंठ डूबी सरकारी और ग़ैर-सरकारी संस्थाओं ने बच्चों का निवाला भी छीन लिया. इसमें प्रमुख रूप से बाल श्रमिक विशेष विद्यालय और एनजीआरपी जैसी योजनाएं शामिल हैं, जिनके तहत बाल श्रमिकों को देश-समाज की मुख्य धारा में लाकर उन्हें तीन वर्षीय ब्रिज कोर्स, पांच रुपये में दोपहर का भोजन, सौ रुपये बतौर छात्रवृत्ति, नियमित स्वास्थ्य जांच एवं रा़ेजगारपरक प्रशिक्षण (वोकेशनल ट्रेनिंग) आदि सुविधाएं दी जानी थीं. इसके अलावा सरकार ने अभियान चलाया कि ढाबों, होटलों, मनोरंजन केंद्रों अन्य धंधों में बच्चों को नौकरी देने वालों को जेल की हवा खानी पड़ेगी. कुछ दिनों तक धरपकड़ का अभियान ज़ोरों पर रहा, लेकिन बाद में वह भी बंद हो गया.
बिहार के मुजफ्फरपुर ज़िले के हुस्सेपुर, चांदकेवारी पंचायत के दलित-महादलित एवं पिछड़े टोले के नन्हें हाथ महानगरों की चकाचौंध में जोखिम भरे काम कर रहे हैं. सरयुग, अर्जुन, टुन्नी, दरोगा (काल्पनिक नाम) आदि बच्चे सूरत (गुजरात), दिल्ली, कोलकाता, असम आदि जगहों पर आधी मज़दूरी में काम करने को मजबूर हैं. सरयुग प्राथमिक स्कूल में पढ़ता था, जो अब घर की माली हालत सुधारने के लिए सूरत स्थित एक कपड़ा फैक्ट्री में नौकरी करता है. दो साल बाद जब वह घर आया, तो आसपास के अपने साथियों के बीच जींस और टी-शर्ट में किसी हीरो से कम नहीं दिख रहा था. एक साथी ने जींस पर लिखा अंग्रेजी का शब्द पढ़ा, तो सरयुग अवाक रह गया. अरे, तुम्हें दो साल में अंग्रेजी भी पढ़नी आ गई! मैं तो एबीसीडी के अलावा कुछ नहीं जानता. साथी बोला, तुम पैसे कमा रहे हो और मैं पढ़ाई कर रहा हूं. सरयुग घर का इकलौता कमाने वाला है, उसी की कमाई से घर चलता है. पढ़ाई से नाता टूटते ही सरयुग समाज, संस्कार, नैतिकता, मां की ममता आदि से वंचित हो गया. आज वह 13 साल का है और महीने में पांच हज़ार रुपये कमाता है. सरयुग सूरत में ग़लत लोगों की संगति में आकर शराब, सिगरेट और वयस्क फिल्में देखने का भी आदी हो चुका है. हाथ में क़ीमती मोबाइल पर फूहड़ गीत बजाते हुए जब वह गांव में निकलता है, तो लोग गालियां देते नहीं थकते. पर, भला इसमें सरयुग का क्या दोष? जब उसकी माली हालत खराब थी, तो कोई मदद के लिए आगे नहीं आया. किसी ने परिवार वालों को नहीं समझाया कि अभी यह बच्चा है, इसे परदेस कमाने के लिए मत भेजो. सरयुग जैसे अनपढ़ ही देश के सामाजिक एवं आर्थिक विकास में बाधक बनते हैं.
ग़ौरतलब है कि अधिकांश बाल श्रमिक कुपोषित पाए जाते हैं. आज भी देश में महिलाएं, खास तौर से ग़रीब तबके की महिलाएं खून की कमी का शिकार पाई जाती हैं, तो उनके गर्भ में पल रहे बच्चे भला स्वस्थ कैसे होंगे? आंकड़े बताते हैं कि 85 से 90 प्रतिशत तक बच्चे छह वर्ष से कम उम्र में काल के गाल में समा जाते हैं. सबसे आश्चर्यजनक तथ्य तो यह है कि खाद्य सुरक्षा एवं बाल विकास परियोजना के तहत देश भर में चल रहे आंगनबाड़ी केंद्रों पर बच्चों को दिए जाने वाले पोषाहार समेत अन्य सामग्रियां स़िर्फ नाम मात्र के लिए मिलती हैं. बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए आने वाली सामग्री बाज़ार में बेच दी जाती है और फिर कागज़ी खानापूर्ति कर दी जाती है. ऐसे में ग़रीब, झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले परिवारों के बच्चों को खाद्य सुरक्षा की गारंटी मिलेगी, कहना मुश्किल है. मौजूदा हालात में ऐसे परिवार अपने बच्चों को पेट की खातिर मज़दूरी करने के लिए नहीं भेजेंगे, तो आ़िखर क्या करेंगे?
ज़्यादातर बाल मज़दूर दूसरे राज्यों में पलायन कर रहे हैं. ग़रीब, आदिवासी, दलित एवं पिछड़ी जातियों के हज़ारों बच्चे दिल्ली, मुंबई एवं कोलकाता आदि में आधी मज़दूरी में काम करने को मजबूर हैं. सर्वशिक्षा अभियान कार्यक्रम छह से चौदह वर्ष तक के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देने की बात करता है. दूसरी ओर मज़दूरी कर रहे अधिकांश बच्चे अशिक्षित हैं या फिर वे बीच में पढ़ाई छोड़कर पेट की आग बुझाने को विवश हैं. ग़रीब के भूखे बच्चों को उनके हाथ से काम छीनकर जबरदस्ती किताब पकड़ाने से अच्छा होता कि शिक्षा को श्रम से जोड़कर एक नई परिभाषा गढ़ी जाती. रोटी के बगैर किताब भला किस काम की? किसी शायर ने ठीक ही कहा है-जब चली ठंडी हवा, बच्चा ठंड से ठिठुर गया. मां ने अपने लाल की तख्ती (स्लेट) जला दी रात को.

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