dalitदलित युवकों की पिटाई के विरोध में ‘उना दलित अत्याचार लड़त समिति’ की अगुवाई में अहमदाबाद से उना तक ‘आजादी कूच’ पदयात्रा आयोजित हुई. पदयात्रा की अगुवाई समिति के संयोजक जिग्नेश मेवानी कर रहे थे. मेवानी 19 अगस्त तक गुजरात में आम आदमी पार्टी के नेता थे, लेकिन 20 अगस्त नई दिल्ली स्थित प्रेस क्लब में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने कहा कि, ‘मेरे ऊपर आरोप लगाया जाता है कि मैं आम आदमी पार्टी से जुड़ा हूं और उना की घटना को राजनीतिक फायदे के लिए तूल दे रहा हूं, इसलिए मैं आम आदमी पार्टी से इस्तीफा दे रहा हूं’.

अहमदाबाद से शुरू हुई ‘आज़ादी कूच’  कहने को एक पदयात्रा थी, लेकिन उना में पदयात्रा के नाम पर लोगों ने बसों और निजी वाहनों का सहारा भी लिया. इस रैली ने कई अन्तर्विरोधों को जन्म दिया है, जिससे दस दिनों तक चली ‘आजादी कूच’ के नेतृत्व की राजनीतिक मंशा पर सवाल खड़े हो गए हैं. गिर सोमनाथ के जिलाधिकारी डॉ. अजय कुमार के मुताबिक़, उना के हाई स्कूल मैदान में ‘दलित अस्मिता रैली’ के आयोजकों ने अस्सी हज़ार लोगों के आने संबंधी लिखित सूचना दी थी, जबकि रैली में शामिल लोगों की संख्या बीस हज़ार से ज़्यादा नहीं थी.

वैसे उम्मीद तो यह की जा रही थी कि रैली में सौराष्ट्र और काठियावाड़ के ज़िलों से का़फी संख्या में दलित शामिल होंगे. लेकिन इसके बरअक्स उना तालुका, जहां दलित युवकों की पिटाई हुई थी, वहां के लोगों ने भी रैली में बढ़-चढ़कर हिस्सा नहीं लिया. रैली ख़त्म होने के बाद दलित युवक किशोर भाई कहते हैं, जिसे ग़ैर राजनीतिक रैली बताया जा रहा था, उस मंच पर कांग्रेस के नौशाद सोलंकी, बागजी भाई जोगढ़िया, केवल सिंह राठौड़ और भाजपा के प्रदीप सोलंकी माइक थामे तक़रीर दे रहे थे. मेवानी कांग्रेस और भाजपा नेताओं की मंच पर मौजूदगी की बात स्वीकार करते हैं. बकौल जिग्नेश उन लोगों को किसी ने बुलाया नहीं था. वे लोग एक साज़िश के तहत इस आंदोलन को सियासी रंग देना चाहते थे.

जिग्नेश की इस दलील को ख़ारिज करते हुए जयंती भाई कहते हैं,  जिग्नेश ख़ुद आम आदमी पार्टी से जुड़े हैं. इस रैली को वह ग़ैर राजनीतिक और दलितों का स्वतः स्फूर्त आंदोलन बताते हैं, जो स्वयं एक विरोधाभास है.

ख़ैर एक अराजनीतिक मंच पर जिस तरह नेताओं का जमघट दिख रहा था, उसके कई निहितार्थ निकाले जा सकते हैं. ‘आजादी कूच’ के सियासी मंसूबे और निजी हितों पर भी सवाल उठ रहे हैं. रैली में बड़ी संख्या में उना से दलित समुदाय के लोगों के आने की उम्मीद थी, लेकिन इसके बरअक्स रैली में दूसरे राज्यों से आए लोगों की भीड़ अधिक थी. रैली से एक दिन पहले यानी 14 अगस्त को ‘आजादी कूच’ का कारवां उना स्थित राठौड़ हॉल पहुंचा. यहां बमुश्किल तीन से चार हजार लोगों की भीड़ थी. इनमें कई गैर सरकारी संगठनों के कारकुन, टाटा इंस्टीट्यूट ऑ़फ सोशल साइंस और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों की संख्या कम नहीं थी. मुंबई से आईं लेखिका और फिल्मकार राजश्री बताती हैं,  देश में दलितों पर का़फी अत्याचार हो रहा है, उना की घटना तो इसकी इंतिहा है, इसलिए रैली में वह हिस्सा लेने आई हैं.

महाराष्ट्र में सक्रिय रिपब्लिकन पैंथर्स से जुड़ी सामाजिक कार्यकर्ता सुवर्णा के मुताबिक, इस रैली की एक ख़ास बात यह रही कि इसे दलित और मुस्लिम एकता के रूप में प्रचारित किया गया था. लेकिन रैली में दलित और मुस्लिम एकता की बात करने वाले नेताओं ने गुजरात में मुसलमानों की बेहतरी की कोई बातें नहीं कीं. अहमदाबाद से आए ‘जन संघर्ष मंच’ के अश़फाक़ और इमरान ख़ान बताते हैं,  संस्था की ओर से हम लोगों को उना जाने को कहा गया. बीस-पच्चीस लोगों की तादात में हम यहां आए हैं, लेकिन इस रैली का क्या मक़सद है, इस बारे में हमें कोई मालूमात नहीं है.

‘दलित अस्मिता रैली’ में कुप्रबंधन का आलम यह था कि जिन लोगों को इसे सफल बनाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी, वे 14 अगस्त (रविवार) से ही ग़ायब हो गए. इस रैली में जिग्नेश मेवानी, रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार मुख्य वक्ता थे. सभी वक्ता भाषण देने के बाद वहां से रवाना हो गए. उसके बाद मंच पर अज्ञात और अपरिचित नेताओं की भीड़ उमड़ पड़ी. इस तरह घंटे भर के भीतर मंच वक्ताओं से और मैदान श्रोताओं से खाली हो गया.

ज़िला अमरेली से आए रमेश परमार के मुताबिक, यह रैली पूरी तरह राजनीतिक थी, जिसे कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी और आम आदमी पार्टी के नेताओं ने हाईजैक कर लिया. नतीज़तन दलित समुदाय स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहा है. रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के नेता चंद्र सिंह महीढ़ा बताते हैं, दलित हित के नाम पर यह रैली आयोजित हुई थी, लेकिन यह गैर राजनीतिक न होकर विशुद्ध राजनीति में तब्दील हो गई. उनके अनुसार,  जिग्नेश ने अपने सियासी फायदे के लिए दलितों का इस्तेमाल किया है. उन्होंने भाषण तो अच्छा दिया, लेकिन उना के दलितों की बुनियादी समस्याओं पर उन्होंने कोई बात नहीं की. मसलन, तालुके के काठी दरबार (राजपूत) कोली और पटेल बहुल बयासी गांवों ने दलितों का बहिष्कार कर दिया है, लेकिन इस बारे में किसी वक्ता ने कोई बात नहीं की. मोटा समढियाला वही गांव है, जहां मृत गाय की खाल उतारने को लेकर रमेश बालू भाई, वत्सराम समेत दो युवकों की पिटाई हुई थी. रैली से एक दिन पहले रमेश बालू भाई के यहां दलित संगठनों ने एक बैठक की. इसमें भारतीय बौद्ध संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष संघप्रिय राहुल, दलित सेना के प्रहलाद भाई और लोक अधिकार मंच के अध्यक्ष गोविंद ढाढल मौजूद थे. भारतीय बौद्ध संघ के अध्यक्ष संघप्रिय राहुल ने कहा, उनका संगठन इस रैली में शामिल नहीं होगा, क्योंकि इस रैली का सियासी मक़सद है. इससे दलितों को कोई फायदा नहीं होगा. उना की घटना निंदनीय थी, लेकिन इसका समाधान राजनीति से नहीं, बल्कि सामाजिक स्तर पर होना चाहिए. उनके इस समस्या का वास्तविक हल बातचीत से संभव है. इस संबंध में हम राज्य के मुख्यमंत्री, गौरक्षा समिति, बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं से बात करेंगे.

उना हिंसा और ज़िला प्रशासन की लापरवाही

रैली से लौट रहे दलितों पर सामतेर गांव के काठी दरबारों ने कातिलाना हमला कर दिया. इस हमले में दो दर्जन से ज्यादा लोग ज़ख्मी हो गए. यह हमला शाम करीब छह बजे हुआ. हथियारों से लैस काठी दरबारों ने दलितों पर जमकर लाठी-डंडे और गोलियां बरसाईं. दलितों का आरोप है कि सामतेर की घटना प्रशासन की लापरवाही के कारण हुई. इस पर गिर सोमनाथ के ज़िलाधिकारी डॉ. अजय कुमार का कहना है कि यहां 800 लोगों के पास लाइसेंसी शस्त्र हैं, लेकिन उन्हें गन हाउस में जमा कराने की कोई योजना नहीं है. दलित अस्मिता रैली शांतिपूर्वक संपन्न होगी, इसलिए हथियारों को जमा कराने का कोई आदेश जारी नहीं हुआ. सामतेर में जिस तरह काठी दरबारों ने अंधाधुंध फायरिंग की, उससे ज़ाहिर है वे पूरी तैयारी के साथ मौक़े पर पहुंचे थे और उन्होंने फायरिंग में अपने लाइसेंसी हथियारों का इस्तेमाल किया था.

मांगें नहीं मानी तो होगा चक्का जाम : जिग्नेश मेवानी

दलित अस्मिता रैली के बाद आपके संगठन की आगामी रणनीति क्या है?

सरकार के समक्ष हमने अपनी दस मांगें रखीं हैं, जिनमें प्रत्येक भूमिहीन दलित परिवारों को पांच एकड़ ज़मीन आवंटित करने की मांग प्रमुख है. अगर सरकार हमारी मांगों को 15 सितंबर तक पूरा नहीं करती है, तो हम लोग उसके बाद राज्य भर में रेल रोको आंदोलन की शुरुआत करेंगे.

लेकिन, सरकार ने उना की घटना के बाद विशेष जांच दल गठित की है, इस बारे में आपका क्या कहना है?

एसआईटी के गठन से हमें ज़्यादा उम्मीदें नहीं हैं, क्योंकि राज्य सरकार जैसा चाहेगी उसी अनुरूप जांच के नतीज़े सामने आएंगे. इसलिए हमने दलितों की बुनियादी समस्याओं के बारे में बात की है.

आप सरकार से प्रत्येक दलित परिवारों के लिए पांच एकड़ ज़मीन की मांग कर रहे हैं, क्या व्यावहारिक रूप से यह संभव है?

अगर सरकार अडानी, अंबानी और एस्सार जैसी कंपनियों को कौड़ी के भाव ज़मीन मुहैया करा सकती है, तो दलितों और आदिवासियों को क्यों नहीं? गुजरात में भूदान और सीलिंग से हासिल हुई ज़मीनों का आज तक सही वितरण नहीं हो सका है. अगर राज्य सरकार इन ज़मीनों का सही वितरण कर दे तो दलितों की भूमि संबंधी समस्या हल हो जाएगी. इतना ही नहीं, वन अधिकार क़ानून के तहत राज्य में 1.20 लाख एकड़ ज़मीन जिन पर आदिवासियों और दलितों का अधिकार है, उस पर भी सरकार कोई कार्रवाई नहीं कर रही है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘सबका साथ सबका विकास’ की बात कहते हैं, इससे आप कितना इत्तेफाक रखते हैं?

प्रधानमंत्री की बातें नारों तक ही सीमित हैं. वे देश और दुनिया में गुजरात मॉडल की बात करते हैं, लेकिन उनके गृह राज्य में दलितों के 119 गांवों के हज़ारों लोग आज भी पुलिस संरक्षण में जीवन व्यतीत कर रहे हैं. राज्य में पचपन हज़ार दलित आज भी मैला ढोने को विवश हैं, क्या प्रधानमंत्री जी को यह ज्ञात नहीं है. मेरे ख़्याल से प्रधानमंत्री को भाषणों से इतर देश के वंचित लोगों की समस्याओं पर व्यावहारिक रूप से ध्यान देना चाहिए.

आपकी इस मुहिम में कौन-कौन से संगठन शामिल हैं?

मैं देश के उन सभी लोगों से अपील करना चाहता हूं, जो वंचितों के सवाल पर कुछ करने की इच्छा रखते हैं, वे हमारे साथ जुड़ें. मैं देश के किसान संगठनों, मज़दूर संगठनों, ट्रेड यूनियनों और कॉलेज-यूनिवर्सिटी के छात्रों से भी कहना चाहता हूं कि वे हमारे साथ शामिल हों.

इन दलितों का फिक्रमंद कौन है?

उना के आकोलाली गांव में 13 सितंबर 2012 को 27 वर्षीय एक दलित युवक लाल जी भाई को पिछड़ी जाति के कोली समुदाय के सैकड़ों हथियारबंद लोगों ने ज़िदा जला दिया था. लालजी पर कोली समुदाय की एक लड़की को अगवा करने का आरोप था. बहुसंख्यक कोली समुदाय के डर से आज भी यह दलित परिवार वापस गांव लौटना नहीं चाहता. यह पीड़ित परिवार उना के आंबेडकर चौक पर पिछले कई दिनों से भूख हड़ताल पर बैठा है. पंद्रह अगस्त को यहां से चंद फर्लांग की दूरी पर होने वाली ‘दलित अस्मिता रैली’ के बारे में लाल जी भाई के पिता जेठा भाई कहते हैं, उनका परिवार इस रैली में नहीं जाएगा, क्योंकि इन लोगों को हमारी कोई चिंता नहीं है. चार साल पहले हमारे बेटे को कोली जाति के लोगों ने ज़िंदा जला दिया गया था, तब दलितों के ये कथित हिमायती कहां थे?

गुजरात में दलित उत्पीड़न की फेहरिस्त यहीं ख़त्म नहीं होती. उना से सटे अमरेली ज़िले में 14 मार्च 2012 को जामका गांव में कोली जाति के लोगों ने बीस वर्षीय मधु भाई की हत्या कर दी. मृतक के पिता वीरा भाई पर भी लोगों ने जानलेवा हमला किया था. सत्तर साल के बुजुर्ग वीरा भाई अपने बेटे को इंसा़फ दिलाने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं. ‘दलित अस्मिता रैली’ के बारे में वीरा भाई कहते हैं, अगले साल गुजरात में चुनाव हैं, इसलिए उना की घटना को केंद्र में रखकर राजनीति हो रही है.

आंबेडकर चौक पर अनशन कर रहे इन लोगों से मिलने न तो जिग्नेश मेवानी आए और न ही रोहित वेमुला की मां राधिका और जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार. इस बारे में रामकुमार बताते हैं, दलितों के हिमायती यही चेहरे अगले साल गुजरात विधानसभा चुनाव में मनमा़िफक सियासी दलों के साथ समझौता करेंगे. मृत गाय की खाल उतारने के सवाल पर जिन दलित युवकों की पिटाई हुई थी, वे मोटा समढियाला गांव के निवासी थे. यहां रमेश बालू भाई और वत्सराम ही एकमात्र परिवार हैं, जो मरी हुई गायों की खाल उतारते हैं. रमेश बताते हैं, गौरक्षा दल से जुड़े कार्यकर्ताओं ने बिना वजह उनके साथ ज़्यादती की. घटना के बाद हमने  मृत गायों की खाल नहीं उतारने का प्रण लिया है. सरकार हमारे लिए रोज़गार के वैकल्पिक अवसर मुहैया कराए और पांच एकड़ ज़मीन दे,यही हमारी मांग है. उना की पूरी घटना समझने के लिए यहां के सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर भी ग़ौर करना बेहद ज़रूरी है. सबसे पहले बात गौरक्षा समिति की होनी चाहिए. यह संगठन करीब सौ साल पुराना है और इसमें राजपूतों एवं ब्राह्मणों के अलावा पिछड़ी जाति के कोली और अहीर समुदाय का वर्चस्व है.

मोटा समढियाला और उसके आस-पास के बाइस गांव काठी दरबार (राजपूत) बहुल हैं. काठी दरबार बहुल सामतेर वही गांव है, जहां रैली के बाद वापस लौट रहे दलितों पर कातिलाना हमला हुआ. इलाक़े के राजपूत और प्रभावशाली पिछड़ी जातियों ने दलितों का सामूहिक बहिष्कार कर दिया है.

अगले साल गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब और गोवा में विधानसभा के चुनाव होने हैं. लिहाज़ा कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की नज़र दलित मतदाताओं पर है. दलितों पर अत्याचार की ख़बरें दूसरे राज्यों से भी आती हैं, लेकिन उसके विरोध में न तो कोई स्वर सुनाई देता है और न ही कोई पदयात्रा होती है. उना की घटना निंदनीय एवं अमानवीय है, लेकिन मामले पर जिस तरह नेताओं ने सक्रियता दिखाई, उससे लोगों में एक शक पैदा हो गया है. गुजरात में चुनाव की चर्चा अमूमन पाटीदारों और पटेलों के इर्द-गिर्द ही सीमित रहती है. हक़ीक़त में दलित और आदिवासी सियासी दलों की नज़रों में एक वोटबैंक हैं. अगले साल गुजरात चुनाव में दलित मतदाता किसके साथ जाएंगे, यह मुकम्मल तौर पर नहीं कहा जा सकता, लेकिन दलितों की रहबर बनी पार्टियों ने इस समुदाय के बीच एक भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है.

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