राहुल गांधी अपने सियासी इम्तिहान में फेल हो चुके हैं. लिहाज़ा वे भारत के प्रधानमंत्री पद की दौड़ से भी बाहर हो चुके हैं. ऐसे में यह कयास लगने लाजिमी हैं कि कांग्रेस के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के नाम का छींका किस कांग्रेसी नेता के भाग्य से फूटेगा.
rahul-&-soniaगांधी परिवार के लिए नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक के दौर में वह संकट नहीं आया जो आज राहुल गांधी के सामने है. इस संकट के ज़िम्मेदार भी राहुल गांधी ही हैं. राहुल आज तक देश को यह नहीं बता सके कि अगर उनके पास ज़िम्मेदारियां आ जाएं तो बतौर लीडर वे क्या कर सकते हैं? दरअसल, यह बात राहुल के अलावा और कोई जानता ही नहीं कि वे क्या कर सकते हैं और क्या नहीं. राहुल गांधी के भाषणों से जनता में हमेशा यही संदेश गया है कि वे एक ऐसे नेता हैं जो अपनी कमज़ोर राजनीतिक दृष्टि के साथ देश को आगे ले जाने का सपना देखते हैं. पिछले कुछ वर्षों में राहुल को कई ऐसे मौ़के मिले, जब वह आसानी से जनता के दिलों में छा सकते थे. एक ऐसा ही मौक़ा अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन था. मध्यवर्ग, युवा और शहरी वर्ग का यह आंदोलन वर्षों से दबे गुस्से की शक़्ल ले चुका था. यदि राहुल गांधी चाहते तो किसी न किसी तरह इस आंदोलन में हस्तक्षेप कर वाहवाही लूट सकते थे. इससे न स़िर्फ राहुल गांधी का क़द बढ़ता, बल्कि कांग्रेस की नाक में दम कर चुके इस आंदोलन को भी झटका लगता. इसके अलावा राहुल गांधी को उस वक्त भी एक मौक़ा मिला था, जब उनकी मां सोनिया गांधी इलाज के लिए लंबे वक्त तक अमेरिका में
रहीं. उस वक्त भी राहुल कोई बड़ी ज़िम्मेदारी लेकर भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे लोगों के सामने आ सकते थे. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. कम से कम राहुल इतना तो कर ही सकते थे कि वह जनता को बताते कि वास्तव में कांग्रेस ने ही भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए सूचना का अधिकार क़ानून देश को दिया. कैसे ख़ुद के मंत्रियों को ही जेल भेजा. लेकिन राहुल ने अपना मुंह नहीं खोला.
सोनिया गांधी ने 2014 में तय आम चुनाव के मद्देनज़र समन्वय के लिए राहुल गांधी की अगुवाई में एक छह सदस्यीय कमेटी बनाई. राहुल गांधी की अगुवाई वाली इस समति में अहमद पटेल, जनार्दन द्विवेदी, दिग्विजय सिंह, मधुसूदन मिस्त्री और जयराम रमेश शामिल हैं. पर राहुल गांधी इन लोगों से मशविरे लेना ज़रूरी नहीं समझते.
हालांकि, कांग्रेस के उपाध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी ने विधानसभा चुनावों में टिकट बंटवारे से लेकर चुनाव प्रचार और घोषणापत्र तक अपनी देखरेख में तैयार करवाया. बावजूद इसके, पार्टी का प्रदर्शन आशा के विपरीत रहा. कांग्रेस के दिग्गज नेता अपनी सीट तक बचाने में क़ामयाब नहीं हुए. राहुल ने चुनाव के तौर-तरीक़ों में कई बड़े बदलाव करने की कोशिश की. लेकिन उनका स्टाइल चल नहीं पाया. कांग्रेस ने राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी के सामने खड़ा किया, लेकिन मोदी मैजिक के सामने राहुल का वार फुस्स पड़ गया.
कांग्रेस में बने धड़ों में हो रहे झगड़े को रोकने के लिए राहुल गांधी ने कई बार कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया. मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच गुटबाज़ी तो राजस्थान में अशोक गहलोत और जोशी के बीच मतभेद. इतना ही नहीं छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी और कांग्रेस के अन्य नेताओं के बीच की गुटबाज़ी राहुल के लिए बड़ी चुनौती और मुश्किलों का सबब बनी. गुटबाज़ी रोकने के लिए राहुल गांधी ने कई बार सार्वजनिक तौर पर बयान दिया और नेताओं को डांट भी लगाई, लेकिन बावजूद इसके पार्टी के भीतर इस तरह के संघर्ष नहीं रुके.
पार्टी की हार के बाद राहुल गांधी के नेतृत्व और उनके सिस्टम पर गंभीर सवाल तो उठे ही हैं. चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में हारने के बाद राहुल गांधी की अगुवाई में चल रही बदलाव की प्रक्रिया भी रुक चुकी है. क्योंकि अब पार्टी को राहुल की जगह किसी ऐसे नए नेता की तलाश है, जो पार्टी की खिसकती हुई ज़मीन को थाम ले.
यूपीए अध्ययक्ष सोनिया गांधी ने भी कह दिया है कि जल्द ही वो अपना पीएम कैंडिडेट घोषित करेंगी. इस घोषणा के साथ ही कांग्रेस मुख्यालय के गलियारों में यह चर्चा तेज़ हो चुकी है कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर अगर राहुल नहीं तो फिर कौन? क्या ख़ुद सोनिया गांधी ही आगे बढ़कर पार्टी की डूबती नैया पार लगाएंगी? या अपने कुछेक विश्‍वासपात्रों में से किसी एक को चुनेंगीं. वैसे तो सबसे पहला नाम उन्हीं के बेटे राहुल गांधी का आता है, लेकिन विधानसभा चुनावों में अप्रत्याशित रूप से एक बड़ी हार का सामना करने के बाद सोनिया गांधी शायद यह करने की हिम्मत न जुटा सकें. एक वजह और भी है. कांग्रेस अगर राहुल को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करती है, तो वह भाजपा के लिए राह और भी आसान कर देती है. राहुल गांधी के अलावा मनमोहन सिंह भी कांग्रेस कार्यकर्ताओं और जनता के बीच कोई उत्साह पैदा करने में बुरी तरह असफल रहे. इसलिए यह भी तय है कि मनमोहन सिंह अब एक बार फिर पीएम कैंडिडेट नहीं बनेंगे.
कयास यह भी लगाए जा रहे हैं कि अब कांग्रेस प्रियंका गांधी को फ्रंटफुट पर ला सकती है, लेकिन राबर्ट वाड्रा के ज़मीनी विवाद में फंसे होने के कारण कांग्रेस के लिए यह भी एक मुश्किल क़दम होगा. प्रियंका अभी तक कांग्रेस के लिए रायबरेली और अमेठी में चुनाव प्रचार करती रही हैं और आज के हालात में वही ऐसी हैं, जिससे कांग्रेस का परिवारवाद भी क़ायम रहेगा और पार्टी का परंपरागत वोटर भी, लेकिन प्रियंका के राजनीति में आने से पहले ही गांधी परिवार ने मना कर दिया है.
हालांकि, कांग्रेस में कई अन्य मंत्री भी हैं जिनको पार्टी आगे ला सकती है, जिसमें ए.के. एंटनी, सुशील कुमार शिंदे, कपिल सिब्बल और पी. चिदंबरम जैसे नेता हो सकते हैं. इन नेताओं का कोई ज़मीनी आधार तो नहीं है, पर कांग्रेस इन नेताओं का सहारा लेकर अपनी हालत बदतर होने से बचा सकती है. इन सभी मंत्रियों में ऐसे में ए.के. एंटनी एक ऐसे ही नेता हैं, जिनकी कमियां लोगों के सामने अभी तक आई नहीं हैं. लिहाज़ा वह कांग्रेस के पीएम पद के प्रबल उम्मीदवार हो सकते हैं. इस समय रक्षा मंत्रालय की ज़िम्मेनदारी निभा रहे, ए के एंटनी कांग्रेस के लिए दूसरे मनमोहन सिंह साबित हो सकते हैं, जिनकी कमज़ोरियों और व्यक्तित्व पर अभी तक कोई वाद-विवाद नहीं हुआ है. याद कीजिए कि इसी तरह सन 2004 में मनमोहन सिंह अचानक राजनीतिक परिदृश्य पर नज़र आए थे. उन्होंने भी देश के लिए कई ज़िम्मेदार पदों पर अपनी महती भूमिका निभाई थी.
यूपीए के लिए कई मंत्रालय संभाल चुके पी. चिदंबरम को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित कर कांग्रेस उन्हें प्रमोट कर सकती है. चिदंबरम इस समय वित्त मंत्रालय संभाल रहे हैं और उनकी बेहद ़ख्वाहिश भी है कि वे देश के प्रधानमंत्री बने. इसके लिए उन्होंने पिछले दिनों जोड़-तोड़, भय आदि के कई तिकड़म भी किए. शायद ऐसे में कांग्रेस उन्हें आगे बढ़ा सकती है. आख़िरकार वह राहुल से तो बेहतर ही साबित होंगे.

दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ चुनावों में कांग्रेस की करारी हार के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पार्टी में अपने बेटे और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का ही विकल्प तलाशने लगी हैं. सोनिया गांधी इस बात को भली-भांति समझ चुकी हैं कि उनके बेटे से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है कांग्रेस पार्टी का बचे रहना. पार्टी रही तो सबका वजूद होगा, वरना कांग्रेस पार्टी के साथ गांधी परिवार भी भारतीय राजनीति के हाशिये पर सिमट कर रह जाएगा.

पर सोनिया का डर ये है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद चिदंबरम कहीं निरंकुश न हो जाएं और सत्ता तथा पार्टी से गांधी परिवार बेदख़ल ही न हो जाए.
देश के क़ानून मंत्री कपिल सिब्बल ने भी कई बार मुश्किलों के समय कांग्रेस को उबारा है. पहले भी कई बार सामने आकर कांग्रेस का बचाव कर चुके हैं, बाबा रामदेव के आंदोलन के समय जब कांग्रेस बैकफुट पर थी, तो सिब्बल ने ही रामदेव का आंदोलन बेअसर किया था. उनकी योग्यता पर भी किसी को संदेह नहीं है. कांग्रेस के घोर प्रतिद्वंदी नरेंद्र मोदी को भी उन्होंने बहस करने की चुनौती दे रखी है. यहां दिक्कत यह है कि कपिल सिब्बल मनमोहन सिंह के गुट के माने जाते हैं.
गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे भी सोनिया गांधी की नज़र में बेहद योग्य उम्मीदवार माने जा रहे हैं. शिंदे का दलित होना और सोनिया गांधी का फ़र्माबदार होना उनकी यूएसपी है. सुशील कुमार शिंदे चूंकि महाराष्ट्र से आते हैं, ऐसे में वे राक्रापा अध्यक्ष शरद पवार की काट भी बन सकते हैं जो यूपीए सरकार में शामिल रहते हुए भी कांग्रेस को परेशान करने या राहुल-सोनिया पर छींटाकशी करने का कोई मा़ैका नहीं चूकते. सुशील कुमार शिंदे का व्यक्तित्व हंसमुख भी है और मुखर भी. साथ ही वे त्वरित ़फैसला लेने में भी सक्षम राजनेता माने जाते हैं.
अंतिम विकल्प के तौर पर कांग्रेस राहुल के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ सकती है, भले ही राहुल के नाम पर कांग्रेस को वोट न मिले, पर कांग्रेस का परंपरागत और भाजपा को वोट न करने वाला तबका राहुल को वोट दे सकता है.
सोनिया गांधी के क़रीबी बताते हैं कि 2004 में प्रधानमंत्री पद को नकारने वाली सोनिया गांधी मुश्किल हालात में ख़ुद फ्रंटफुट पर आकर पार्टी का नेतृत्व करने बात पर भी विचार कर सकती हैं. जिससे कि पार्टी में नये उत्साह का संचार हो और लोकसभा चुनाव में कांग्रेस, भाजपा का मुक़ाबला कर सके, क्योंकि चार राज्यों में ख़राब प्रदर्शन के बाद कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट चुका है, और रायबरेली से भी जीत हासिल करना अब मुश्किल लग रहा है.
पर जो नाम सबसे ज्यादा हैरान करता है, वो है यूआईडी यानी आधार योजना के संजोयक नंदन नीलकेणि का. सियासी गलियारों में चल रही ख़बरों के मुताबिक, कांग्रेस नंदन नीलकेणि को भी अपना चेहरा बना सकती है, हालांकि, नंदन नीलकेणि ने इस बात को कोरी बकवास बताया है. सूत्रों के मुताबिक़, सोनिया गांधी को यह लगता है कि नंदन निलेकेणि कांग्रेस के लिए नरेंद्र मोदी साबित हो सकते हैं. उनकी छवि भी साफ़ सुथरी है. अभी तक वे किसी विवाद से नहीं जुड़े. उनके हिस्से एक बेहद महत्वाकांक्षी और सफल योजना आधार का श्रेय भी है. नंदन राजनेता कम और टेक्नोक्रैट ज्यादा हैं. वे एक बेहद सफल बिजनेसमैन हैं और अरबपति भी हैं, नंदन अपने सामाजिक कार्यों के लिए जाने जाते हैं. नंदन नीलकेणि पिछले चार साल से सरकार के साथ काम कर रहे हैं. चूंकि वे आईआईटी पासआउट हैं, लिहाज़ा देश के तकनीकी विकास में भी वे अहम भूमिका निभा सकते हैं. सोनिया गांधी को लगता है कि नंदन नीलकेणि, नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल की तरह युवाओं को अपनी ओर आसानी से आकर्षित कर सकते हैं. माना ये भी जा रहा है कि नंदन निलेकेणि बेंगलुरु दक्षिण से लोकसभा चुनाव लड़ेंगे. इसके लिए उनकी टीम काम भी शुरू कर चुकी है.
बहरहाल, फ़िलहाल सोनिया गांधी बतौर यूपीए चेयरपर्सन कांग्रेस पार्टी में आमूल-चूल बदलाव करने के मूड में हैं. जिस पर वह अपने ख़ास सलाहकारों के साथ गंभीर विमर्श कर रही हैं. उनके सामने अपनी पार्टी को बचाने का संकट है, जिसके लिए इस बार शायद वे अपने बेटे को भी दरकिनार करने से नहीं हिचकेंगी.
 

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