कांग्रेस और भाजपा के अलावा एक दूसरी पार्टी का भी उदय हो गया है, जिससे गठजोड किया जा सकता है. आप पार्टी से सभी क्षेत्रीय पार्टियां सीख कर काफ़ी कुछ कर सकती हैं. कम से कम मोदी को जीतने से तो रोक ही सकती हैं. लेकिन दुखद रूप से उनका ऐसा सोचना ग़लत है, क्योंकि सपा, बसपा, राजद और यहां तक जदयू का भी आप से गठबंधन होना मुश्किल है.
_71618205_kejriबीते विधानसभा चुनावों में मोदी की कोई लहर नहीं थी. हां, बिल्कुल नहीं थी. बिना नरेंद्र मोदी की लहर के ही राजस्थान में कांग्रेस घटकर 21 सीटों पर आ गई. दरअसल, भाजपा को मोदी की आवश्यकता इसलिए नहीं थी, क्योंकि उसके पास अशोक गहलोत के साथ झग़डे में व्यस्त सीपी जोशी थे. वहीं चुनाव ल़डने वाले प्रत्याशियों के राहुल गांधी की पसंद के होने के कारण असहाय अवस्था में प़डे सचिन पायलट भी थे, जो भाजपा की मदद कर रहे थे. इसके अलावा शिवराज सिंह चौहान को भी मध्य प्रदेश में दो तिहाई बहुमत हासिल करने के लिए भी किसी तरह की मदद की ज़रूरत नहीं थी. लाचार अवस्था में स़िर्फ ज्योतिरादित्य सिंधिया ही शिवराज की जीत के लिए काफ़ी थे.
राहुल गांधी द्वारा चुने गए रणनीतिकार मुधुसूदन मिस्त्री छत्तीसग़ढ में हार के लिए काफ़ी थे. अगर भाजपा के विरोध में कमज़ोर टीम है, तो उसे चुनाव जीतने के लिए नरेंद्र मोदी की ज़रूरत ही क्या थी?
इसी वजह से अरविंद केजरीवाल को उनके जीत के क्षणों को थो़डा हल्का करके भी देख जा सकता है. कांग्रेस ने शीला दीक्षित को बहुत पहले ही अकेला छो़ड दिया था. अगर वे चौथी बार राज्य की मुख्यमंत्री बन जाती हैं, तो आपको यह मालूम ही है कि वे किसके लिए ख़तरा बन जातीं? राहुल गांधी दो बार शीला दीक्षित की रैलियों में तीन घंटे से ज्यादा देर से पहुंचे. किसी को इस बात पर कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि राहुल की कितनी इच्छा थी कि शीला दीक्षित चौथी बार मुख्यमंत्री बनें. खाद्य सुरक्षा और आधार कार्ड जैसी सारी योजनाएं आम चुनावों को ध्यान में रखकर ही लागू की गईं थीं. इन बेहतर योजनाओ के लिए किसी भी तरह राहुल के अलावा किसी और को महत्व नहीं दिया जा सकता था.
आप इसके बारे में सोचिए कि अगर कांग्रेस इन चुनावों में जीत जाती, तो राहुल कितने प्रभावशाली हो सकते थे. विशेष रूप से विपक्ष के लिए.
इसके अलावा देश के लिए ख़ुशी के समाचार और भी हैं. वह है आम आदमी पार्टी की जीत. जब आम आदमी पार्टी की स्थापना की घोषणा हुई थी, उस समय मैंने इसका स्वागत किया था. यह 1960 में स्वतंत्र पार्टी के गठन के बाद पहला आधुनिक राजनीतिक गठन था. आम आदमी पार्टी विचारधारा के आधार पर तो स्वतंत्र पार्टी से एकदम अलग है, लेकिन अन्य पार्टियों में उपस्थित भ्रष्टाचार को समाप्त करने को लेकर दोनों पार्टियों की विचारधारा एक तरह की ही है. आप पार्टी में स्वतंत्र सदस्यता लेने की व्यवस्था है और लोग इस पार्टी को इसलिए नहीं ज्वाइन करते, क्योंकि उन्हें स़िर्फ टिकट चाहिए. दरअसल, देश में युवा आम आदमी पार्टी के आने से जोश में है.

दिल्ली बहुत छोटा राज्य है. वास्तविकता में यह एक राज्य नहीं है. आप कुछ सौ वॉलंटियर के साथ दरवाज़े-दरवाज़े जाकर अपना प्रचार कर सकते हैं. लेकिन मुंबई में यह तरीक़ा कारगर नहीं होगा, क्योंकि शिवसेना ने यह तरीक़ा पचास साल पहले ही प्रयोग कर लिया है. शिवसेना की पहुंच वहां गली-गली में है. कोलकाता में तो तृणमूल और सीपीआई के बीच एक स्थाई जंग-सी है, तो समझ लीजिए वहां भी कोई एंट्री नहीं है.

हालांकि, यह पार्टी अभी नई-नई है. आंदोलनों से उपजी पार्टियों को शुरुआत में कामयाबी मिलती है, लेकिन उन्हें दोबारा भी सफलता मिले, ऐसा हमेशा नहीं होता. आइए विचार करें कि अगर आम आदमी पार्टी अपना दायरा फैलाएगी तो क्या होगा. दिल्ली बहुत छोटा राज्य है. वास्तविकता में यह एक राज्य नहीं है. आप कुछ सौ वॉलंटियर के साथ दरवाज़े-दरवाज़े जाकर अपना प्रचार कर सकते हैं. लेकिन मुंबई में यह तरीक़ा कारगर नहीं होगा, क्योंकि शिवसेना ने यह तरीक़ा पचास साल पहले ही प्रयोग कर लिया है. शिवसेना की पहुंच वहां गली-गली में है. कोलकाता में तो तृणमूल और सीपीआई के बीच एक स्थाई जंग-सी है, तो समझ लीजिए वहां भी कोई एंट्री नहीं है.
इसके बावजूद उन्हें मेरी तरफ से बधाई. उनकी सफलता से धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को यह भ्रम हो गया है कि कांग्रेस और भाजपा के अलावा एक दूसरी पार्टी का भी उदय हो गया है, जिससे गठजोड किया जा सकता है. आप पार्टी से सभी क्षेत्रीय पार्टियां सीखकर काफ़ी कुछ कर सकती हैं. कम से कम मोदी को जीतने से तो रोक ही सकती हैं. लेकिन दुखद रूप से उनका ऐसा सोचना ग़लत है. क्योंकि सपा, बसपा, राजद और यहां तक जदयू का भी आप से गठबंधन होना मुश्किल है. आप जिस तरह कांग्रस विरोधी है, उसी तरह मायावती और लालू की भी विरोधी है. इसलिए कांग्रेस प्रेमी कोई सांत्वना चाहते हैं, तो उन्हें कहीं और देखना होगा. लेकिन किसी भी सूरत में उन्हें राहुल की तरफ नहीं देखना चाहिए. ये चुनाव कई मामलों में भारतीय राजनीति के लिए ऐतिहासिक हैं. 1969 में इंदिरा गांधी ने ऐसी राजनीति शुरू की थी, जिसमें उन्होंने सत्ता का केंद्र एक परिवार को बना दिया था. राजसत्ता की शुरुआत बेहतरीन शासकों के साथ शुरू होती है और आख़िरी में कमज़ोर शासकों के साथ. हमारे उदाहरण के रूप में मुगल वंश है, जिसमें अकबर और औरंगज़ेब जैसे शासक थे और बाद में शाह आलम जैसे भी. इस बात का विचार करना कि राहुल एक बार फिर पार्टी को जीतने की अवस्था में पहुंचा सकेंगे, यही प्रदर्शित करता है कि कांगे्रस यह नहीं समझ पा रही कि इस समस्या का कभी समाधान नहीं हो सकता. आप की जीत के बाद जिस तरह से राहुल गांधी ने यह कहा कि हमें सीखने की ज़रूरत है, यह दर्शाता है वे राजनीति में अभी नौसिखिए हैं. उन्होंने हाल ही में आप का मोबाइल ऐप पाया है और अब वे इसे ऑनलाइन ख़रीदेंगे और प्रयोग में लाएंगे. उनको भी मेरी तरफ से शुभकामनाएं और उन्हें भी, जो उनमें विश्‍वास करते हैं. तो हाल में कांग्रेस की ब़डी हार के लिए किसे ज़िम्मेदार ठहराना चाहिए? पहले राहुल को या फिर आप पार्टी को?
 

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