chuसाल 2013 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में जनता ने किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं दिया था. लेकिन उसने साफ तौर पर 15 सालों से दिल्ली की सत्ता पर काबिज़ कांग्रेस पार्टी को पूरीतरह नकार दिया था. उन चुनावों के नतीजे घोषित होने के बाद ऐसी स्थितियां निर्मित हुईं कि कोई भी पार्टी सरकार बनाने का दावा पेश करने की स्थिति में नहीं थी. अंततः कांग्रेस के समर्थन से पहली बार चुनावी समर में उतरी आम आदमी पार्टी ने सरकार बनाई. आप की सरकार केवल 49 दिनों तक चल सकी. एक साल के लम्बे इंतज़ार के बाद आखिरकार दिल्ली विधानसभा चुनावों की घोषणा हो गई. दिल्ली की राजनीति में दखल रखने वाली तीन प्रमुख पार्टियां आम आदमी पार्टी, भाजपा और कांग्रेस एक बार फिर आमने-सामने हैं. मतदाताओं को लुभाने के लिए इन पार्टियों के चुनावी वादे एक बार फिर जनता के सामने हैं. अब यह सवाल उठाना लाज़मी है कि पिछले चुनावों में इन पार्टियों ने जनता से जो वायदे किये थे उनका क्या हुआ? क्या चुनावी वादे केवल वोट हासिल करने के लिए किए जाते हैं? क्या चुनाव के नतीजे आने के बाद उनका कोई मायने-मतलब नहीं रह जाता है?

सबसे पहले आम आदमी पार्टी के वादों पर नज़र डालते हैं. जो पिछले चुनाव में कई लोक लुभावन घोषणाओं के साथ मैदान में उतरी थी. चूंकि यह पार्टी अन्ना हजारे के जनलोकपाल आंदोलन की वजह से वजूद में आई थी इसलिए उसने प्रमुखता से दिल्ली अन्ना वाला जनलोकपाल क़ानून (जो मसौदा उन्होंने तैयार किया था) बनाने का वादा किया था. पार्टी के घोषणा-पत्र में कहा गया था कि सत्ता में आने के 15 दिन के अंदर विधानसभा के खुले सत्र में इस क़ानून को पारित किया जायेगा. साथ ही पार्टी के नागरिक सुरक्षा फोर्स, महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में शीघ्र न्याय दिलवाने का वादा किया गया था. यह दोनों वादे ऐसे थे जो दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर के थे. आप जिस जनलोकपाल क़ानून को पारित करने की बात कर रही थी वह देश की संसद के अधिकार क्षेत्र में था, वहीं दूसरी तरफ राष्ट्रीय राजधानी होने की वजह से दिल्ली में सुरक्षा व्यवस्था की ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन होती है. इसमें दिल्ली सरकार कुछ नहीं कर सकती थी. लिहाज़ा ये दोनों घोषणायें महज़ घोषणायें ही थीं. आम आदमी सरकार के कार्यकाल के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का धरना और उनके क़ानून मंत्री सोमनाथ भारती का एक रिहायशी इलाके में छापेमारी इन्हीं घोषणाओं से प्रेरित मालूम होते हैं. बाद में जनलोकपाल के मसले पर केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. दिलचस्प बात यह है कि जनलोकपाल इसबार पार्टी के लिए चुनावी मुद्दा नहीं है.
आम आदमी पार्टी ने स्वतंत्र एजेंसियों की मदद से बिजली के बढ़ा हुए बिल की जांच करवाकर बिजली के दामों में 50 फीसदी कमी करने और सभी घरों को प्रतिदिन 700 लीटर मुफ्त पानी पहुंचाने का भी वादा किया था. झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों के लिए फ्लैट की व्यवस्था और दिल्ली से वीआईपी कल्चर समाप्त करना उनके अन्य प्रमुख वादे थे. दिल्ली के सभी घरों में 700 लीटर मुफ्त पानी पहुंचाने के वादे के क्रम में सरकार बनने के बाद उन्होंने 666 लीटर पानी उपलब्ध कराने की घोषणा की, लेकिन अरविन्द केजरीवाल के इस्तीफे के बाद इस घोषणा को वापस ले लिया गया. जहां तक बिजली बिल का सवाल है तो पार्टी के स्थापना के बाद ही बिजली की बिल पर सत्याग्रह के दौरान पार्टी ने लोंगों से बिजली बिल नहीं जमा करने की अपील की थी. जिसके नतीजे में बिजली बिल नहीं अदा करने वाले लोगों पर जुर्माना हुआ था. केजरीवाल सरकार ने उस जुर्माने को माफ़ कर दिया और चुनावी घोषणा के मुद्दे नज़र उन्होंने 400 यूनिट बिजली खर्च करने वाले उपभोक्ताओं को 50 प्रतिशत सब्सिडी देने का ऐलान किया था. लेकिन इस घोषणा को भी उनके इस्तीफे के बाद वापस ले लिया गया. चूंकि सरकार केवल 49 दिन चली थी. उनके इन दो फैसलों को बाद में वापस ले लिया गया, इसलिए ज़मीन पर इन घोषणाओं की सफलता या असफलता का अंदाज़ा नहीं हो पाया.
अब यह कहने की आवश्यकता नहीं है आम आदमी पार्टी के बाक़ी लोक लुभावन वादों का क्या हुआ? क्योंकि यह वादे तभी पूरे हो सकते थे जब सरकार आगे चलती. अलबत्ता उनकी सरकार जाते-जाते अनुबंध पर रखे गए दिल्ली सरकार के कर्मचारियों की सेवायें नियमित किया जाने जैसे वादे को पूरा कर देती तो उनकी नीयत पर शक करने की गुंजाईश नहीं रहती. लेकिन उन्हें शायद यह बात समझ में आ गई होगी कि उन्होंने जो वादे किए हैं वे कभी पूरे नहीं हो सकते, इसलिए लोकपाल को बहाना बनाकर त्यागपत्र दे दिया था. केजरीवाल अब यह कह रहे हैं कि उनसे सौ गलतियां हो सकती हैं, लेकिन उनकी नीयत साफ़ है. कुल मिलाकर अब तक के उनके चुनाव प्रचार से यह साफ़ तौर पर ज़ाहिर होता है कि वे अपनी 49 दिनों की सरकार की सफलताओं के आधार पर और बिजली-पानी जैसी अपनी पुरानी लोक लुभावन घोषणाओं के साथ चुनाव मैदान में उतरे हैं. बहरहाल, कांग्रेस ने पिछले विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को गंभीरता से नहीं लिया था इसीलिए उसने पार्टी के चुनावी घोषणाओं पर सवाल खड़े नहीं किये थे. भाजपा के भी प्रचार का केंद्र बिंदु कांग्रेस पार्टी थी, इसलिए उसने भी आम आदमी पार्टी की चुनावी घोषणाओं पर सवाल नहीं उठाये. लेकिन इस बार पार्टी को न केवल अपने चुनावी वादों को पूरा नहीं करने पर सफाई देनी पड़ रही है बल्कि कांग्रेस और भाजपा दोनों सेआमने-सामने का मुक़ाबला करना पड़ रहा है.
पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा भी लोक लुभावन घोषणाएं करने में किसी भी पार्टी से पीछे नहीं थी. पार्टी ने बिजली के बिल में 30 प्रतिशत की कटौती करने, सब्सिडी वाले 12 एलपीजी सिलेंडर देने, दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने, महिला सुरक्षा, अवैध कालोनियों को रेगुलराइज करने, दिल्ली में साइकिल कल्चर स्थपित करने जैसी चुनावी घोषणाएं की थीं. हालांकि राज्य में भाजपा की सरकार नहीं बन सकी थी लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा सत्ता में है और कम से कम दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने के सिलसिले में कुछ काम कर सकती थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. दिल्ली विधान सभा चुनाव के सिलसिले में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने रामलीला मैदान के अपने भाषण में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की बात नहीं की, जिसको आम आदमी पार्टी ने प्रमुखता से मुद्दा बनाया और केंद्र सरकार से दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने की मांग करते उनके पोस्टर जगह-जगह नज़र आने लगे हैं. केंद्र में आने के बाद भाजपा राष्ट्रपति शासन के दौरान अपनी कुछ घोषणाओं पर अमल करवा सकती थी लेकिन उनकी घोषणाएं भी घोषणाएं ही रहीं. इस चुनाव में भी पार्टी कामोबेश उन्हीं मुद्दों पर चुनाव मैदान में उतरी है.
चूंकि चुनाव से पूर्व दिल्ली में कांग्रेस सत्ता में थी और पार्टी राष्ट्रमंडल खेल घोटालों जैसे कई तरह के सवालों में घिरी हुई थी, इसलिए वह पहले से ही बैक-फुट पर नज़र आ रही थी. लेकिन कांग्रेस भी लोक लुभावन वादे पेश करने में पीछे नहीं रही. पार्टी ने राष्ट्री राजधानी क्षेत्र के लिए साझा आर्थिक कराधान क्षेत्र स्थापित करने की बात की, खाद्यान सुरक्षा कानून के तहत 73 लाख लोगों को अनाज उपलब्ध कराने, सड़क पर रेह़डी लगाने वालों के लिए अलग जोन बनाने, 40 लीटर सब्सीडाइज पानी उपलब्ध करवाने जैसी घोषणाओं के साथ-साथ अवैध कोलोनियों को नियमित करने और आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों के लिए 4 लाख फ्लैट बनवाने की बात की थी. ज़ाहिर है कांग्रेस पिछले 15 साल से दिल्ली की सत्ता पर काबिज़ थी इसलिए उसके इन वादों पर जनता ने ध्यान नहीं दिया और उसे सत्ता से बेदखल कर दिया.
दिल्ली में सत्ता के तीनों मुख्य दावेदार पार्टियों की घोषणाओं को देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि चुनाव के दौरान की जाने वाली घोषणाएं केवल चुनाव जीतने के लिए होती हैं और सत्ता में आने के बाद पार्टियां इन्हें गंभीरता से नहीं लेतीं.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here