Page-3पूरे देश में इस साल चीनी मिलें नहीं चलेंगी और गन्ने की तैयार फसलें खेतों में ही खड़ी रह जाएंगी. देश भर की चीनी मिलों ने यह ऐलान किया है कि 2015-16 के पेराई सत्र में वे बंद रहेंगी. चीनी मिल मालिकों के संघ इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इसमा) ने यह खुली घोषणा कर दी है कि गन्ना किसानों के बकाये का भुगतान नहीं किया जाएगा. इसमा ने यह स्वीकार किया है कि किसानों का बकाया 21 हज़ार करोड़ रुपये से भी अधिक है और 50 लाख से अधिक किसानों को भुगतान नहीं हुआ है. इसमा की यह स्वीकारोक्ति खास तौर पर उत्तर प्रदेश सरकार के मुंह पर तमाचे की तरह है, क्योंकि वह हमेशा यह भ्रांति पैदा करती रही है कि राज्य में गन्ना किसानों के बकाये का भुगतान हो रहा है. इसमा ने केंद्र और राज्य सरकारों के सामने चुनौती फेंकी है कि गेहूं और धान की तरह गन्ना किसानों को भी सीधी सहायता दी जाए. अब तक उत्तर प्रदेश समेत देश भर के गन्ना किसान आत्महत्या कर रहे थे और सरकारें उस पर पर्दा डाल रही थीं, लेकिन अब तो इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इसमा) ने गन्ना किसानों को मार डालने की खुली मुनादी ही कर दी है. केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार समेत सभी संबद्ध राज्य सरकारें पूंजीपतियों के हाथों में केंद्रित चीनी मिलों की खुशामद करती रहीं, किसानों की तऱफ कोई ध्यान नहीं दिया, सारी सुविधाएं चीनी मिल मालिक भोगते रहे और आ़िखरकार चीनी मिल मालिकों के संघ ने ताल ठोंक कर कह दिया कि वे किसानों के बकाये का भुगतान नहीं कर पाएंगे.

इसमा की खुली घोषणा से उत्तर प्रदेश समेत सभी राज्यों के गन्ना किसान हताशा से भर गए हैं. इसमा की खुली चुनौती का समुचित जवाब देने के लिए कोई आगे नहीं आया. न केंद्र सरकार का कोई नुमाइंदा कुछ बोला, न प्रदेश सरकार ने कोई जवाब दिया, न कोई जनप्रतिनिधि सामने आया और न मीडिया ने ही इस मसले पर केंद्र और प्रदेश सरकार को आड़े हाथों लिया. बीते 30 जून को उत्तर प्रदेश के अ़खबारों में प्रकाशित विशाल विज्ञापन के जरिये इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इसमा) ने देश भर के गन्ना किसानों से कहा है कि चीनी की क़ीमतों में सुधार नहीं हुआ, तो कोई भी चीनी मिल केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित उचित एवं लाभकारी मूल्य (फेयर एंड रेम्युनरेटिव प्राइस-एफआरपी) नहीं देगी. इसमा ने बिंदुवार मुनादी की है कि भारतीय चीनी उद्योग अभूतपूर्व संकट में है और मौजूदा स्थितियों में गन्ने की कटाई नहीं हो सकती. चीनी मिलों की शुद्ध पूंजी समाप्त हो गई है. आर्थिक घाटे का बोझ बढ़ता जा रहा है और ग़ैर उत्पादक आस्तियां (नॉन प्रोडक्टिव एसेट्स-एनपीए) बढ़ती चली जा रही हैं. लिहाजा, देश भर की चीनी मिलें 2015-16 के पेराई सत्र में बंद रहेंगी और गन्ना बिना कटाई के खेतों में खड़ा रह जाएगा. चीनी मिलों ने कहा है कि वे मिल की मरम्मत, कर्मचारियों को वेतन एवं मज़दूरी देने लायक पूंजी भी जुटाने की स्थिति में नहीं हैं. चीनी मिलों का रोना यह है कि पिछले छह साल में गन्ने का भंडार सबसे अधिक (40 लाख टन) रहा, लेकिन चीनी की क़ीमत सबसे कम रही. चीनी मिल मालिकों का कहना है कि चीनी की क़ीमत प्रति किलो लागत से भी आठ-नौ रुपये कम रही.

उल्लेखनीय है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गन्ना किसानों का बकाया भुगतान करने के लिए चीनी मिलों को अपने भंडार की 15 प्रतिशत चीनी बेचने का आदेश दिया था. अदालत ने कहा था कि बेचने से होने वाली आय का 30 ़फीसद हिस्सा गन्ना किसानों को दे दिया जाए. शेष 70 ़फीसद धनराशि गन्ना मूल्य खाते में रिजर्व रखी जाए. अदालत ने स्पष्ट कहा था कि चीनी बेचने से मिलने वाली धनराशि ज़िलाधिकारियों की निगरानी में रहेगी. विडंबना यह है कि यह आदेश इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डॉ. डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति दिलीप गुप्ता की खंडपीठ ने दिया था, लेकिन इस आदेश को ताक पर रख दिया गया और इस खुली अवमानना पर हाईकोर्ट ने ध्यान भी नहीं दिया. पेराई वर्ष 2014-15 के लिए गन्ना किसानों के बकाये से संबंधित एक याचिका पर सुनवाई के दौरान इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश की सभी चीनी मिलों (सरकारी एवं निजी) को 25 ़फीसद बकाया 15 जून तक चुकाने का आदेश दिया था और मामले की अगली सुनवाई की तारीख 28 जुलाई मुकर्रर की थी. हाईकोर्ट ने निजी मिलों को 25 ़फीसद बकाये का भुगतान 15 जून तक और बाकी 75 ़फीसद का भुगतान 15 जुलाई तक करने का आदेश दिया था. 15 जून तक किसानों को भुगतान नहीं मिला, 15 जुलाई की तो बात ही छोड़ दें. 28 जुलाई आए, उसके पहले ही अ़खबारों में विज्ञापन जारी करके इसमा ने किसानों का बकाया देने से ही इंकार कर दिया. इसमा की इस घोषणा पर सरकार चुप्पी साधे हुए है.

किसानों का बकाया देने से चीनी मिलें लगातार कन्नी काट रही हैं. राज्य सरकार और केंद्र सरकार की तऱफ से चीनी मिलों के लिए किस्म-किस्म के पैकेज और राहत-सुविधाएं प्रदान की गईं, लेकिन गन्ना किसानों को भुगतान नहीं किया गया. अभी तीन महीने पहले भी अप्रैल में चीनी मिलों ने मिल-बैठकर किसानों का बकाया देने से बचने की भूमिका बनाई थी और कहा था कि सरकार खुद उनके भंडार में पड़ी चीनी खरीद ले, तभी किसानों के बकाये की भरपाई हो सकती है. इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन के महानिदेशक अविनाश वर्मा ने आधिकारिक तौर पर कहा है कि चीनी के दाम नीचे गिरने की वजह से गन्ना किसानों के बकाये की कुल 21,000 करोड़ रुपये की राशि का भुगतान करने की चीनी मिलों में शक्ति नहीं बची है. इसमा ने सरकार से कहा है कि वह 25-30 लाख टन चीनी खरीद ले, तो क़रीब सात हज़ार करोड़ रुपये से किसानों का थोड़ा भुगतान हो पाएगा. उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों का सबसे ज़्यादा क़रीब 12 हज़ार करोड़ रुपये बकाया है. गन्ना-गणित के विशेषज्ञ एवं किसानों के जुझारू नेता शिवाजी राय का मानना है कि चीनी मिलों द्वारा सही आंकड़े प्रस्तुत नहीं किए जाते और उनमें भारी फर्जीवाड़ा किया जाता है. चीनी मिलें घाटे की बात करती रहती हैं, लेकिन अपना उत्पादन बढ़ाती जा रही हैं. चीनी मिलें एक तऱफ लाभ कमा रही हैं, तो दूसरी तऱफ अ़खबारों में विज्ञापन देकर नुक़सान दिखा रही हैं. हाल में चीनी मिलों की मदद के लिए केंद्र सरकार ने छह हज़ार करोड़ रुपये का सस्ता कर्ज दिया. पिछले साल भी 11 हज़ार करोड़ रुपये का पैकेज दिया गया था. ब्याज रियायत योजना के तहत पहले साल क़रीब 600 करोड़ रुपये का ब्याज भी केंद्र सरकार ही चुकाएगी.

शिवाजी राय कहते हैं कि भारत विश्व का पहला देश है, जहां किसानों के बजाय पूंजीपतियों को सब्सिडी दी जाती है. गन्ना किसानों का बकाया न देने और मिलें बंद करने की घोषणा को शिवाजी राय केंद्र और प्रदेश सरकारों के साथ मिल मालिकों की रजामंदी से की गई घोषणा बताते हैं. वह कहते हैं कि इसी बहाने केंद्र सरकार मज़दूर विरोधी श्रम नीति लाएगी, जिस तरह किसान विरोधी भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाया गया. राय कहते हैं कि चीनी मिलों की हालत इतनी ही खस्ता है, तो केंद्र सरकार को सारी चीनी मिलों का अधिग्रहण कर लेना चाहिए. इससे सरकार का बजट बोझ भी कम होगा और किसानों को राहत भी मिल जाएगी. उत्तर प्रदेश सरकार भी चीनी मिलों के हित के आगे आत्मसमर्पित है. किसानों के करोड़ों रुपये के बकाये की बात तो छोड़िए, चीनी मिल मालिकों ने 2013-14 के पेराई सत्र के लिए गन्ने की क़ीमत 260 रुपये प्रति क्विंटल देने का जो वादा किया था, उसे भी पूरा नहीं किया और गन्ना 150 रुपये से 153 रुपये क्विंटल तक के भाव से बिकता रहा. चीनी मिल मालिकों पर आरोप है कि किसानों के बकाये के हज़ारों करोड़ रुपये दूसरे धंधों में निवेश कर दिए गए हैं और उससे भारी मुना़फा कमाया जा रहा है. उद्योगपति धंधा कर रहा है और किसान भुखमरी का शिकार हो रहा है. इसका नतीजा यह निकला कि उत्तर प्रदेश में गन्ना बुआई के क्षेत्रफल में तेजी से गिरावट आई है. सरकारी सर्वेक्षण में भी स्पष्ट हुआ कि पिछले वर्ष की तुलना में इस बार गन्ना क्षेत्रफल 1,50,378 हेक्टेयर कम रहा. सहारनपुर, बुलंदशहर, गाजियाबाद, मेरठ, शाहजहांपुर, बरेली, मुरादाबाद एवं अलीगढ़ में किसान अब गन्ना बोने से परहेज कर रहे हैं. पश्चिम में शामली, संभल, मथुरा एवं मुजफ्फरनगर के अलावा सभी ज़िलों में गन्ना क्षेत्र घट गया है. फैजाबाद में भी एक साल में गन्ना क्षेत्रफल 40 फीसद कम हो गया. बाराबंकी, पीलीभीत, हरदोई एवं सीतापुर के किसान भी गन्ने की खेती करने से बच रहे हैं. मध्य क्षेत्र में गन्ना क्षेत्रफल 7.6 ़फीसद कम हुआ है. पूर्वांचल में तो और भी बुरे हालात हैं.

शिवाजी राय कहते हैं कि चीनी मिल मालिकों ने अपना सिंडिकेट (गिरोह) बना लिया है. उनके साथ सरकार की मिलीभगत है और खेतों को कॉरपोरेट फार्मिंग में बदलने की साजिश चल रही है. स्पेशल इकोनॉमिक जोन (एसईजेड), स्पेशल डेवलपमेंट जोन (एसडीजेड) और कॉरपोरेट फार्मिंग आदि खास पूंजी घरानों का हित साधने के लिए हैं. उत्तर प्रदेश में गन्ना किसान बहुत खुशहाल थे. गन्ने की फसल और चीनी मिलों से प्रदेश की गन्ना बेल्ट में कई अन्य उद्योग-धंधे भी फल-फूल रहे थे. चीनी मिलों और किसानों के बीच गन्ना विकास समितियां (केन यूनियन) भुगतान से लेकर खाद, ऋण, सिंचाई के साधनों, कीटनाशकों के साथ-साथ सड़क, पुल, पुलिया, स्कूल एवं औषधालय तक की व्यवस्था करती थीं. गन्ने की राजनीति करके नेता तो कई बन गए, लेकिन उन्हीं नेताओं ने चीनी मिलों की दलाली करके गन्ना किसानों को बर्बाद कर दिया. गन्ना क्षेत्र से लोगों का बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है और उन्हें महाराष्ट्र, पंजाब, दिल्ली, पश्चिम बंगाल या अन्य राज्यों में दिहाड़ी करके पेट पालना पड़ रहा है. साजिशों के तहत उत्तर प्रदेश की तक़रीबन सारी सरकारी चीनी मिलें कौड़ियों में बेच डाली गईं. इसमें सारी सरकारें शामिल रही हैं. भाजपा की सरकार ने हरिशंकर तिवारी की कंपनी गंगोत्री इंटरप्राइजेज को चार मिलें बेची थीं. गंगोत्री इंटरप्राइजेज ने उन्हें चलाने के बजाय मशीनों को कबाड़ में बेचकर ढांचा सरकार के सुपुर्द कर दिया. फिर समाजवादी पार्टी की सरकार ने प्रदेश की 23 चीनी मिलें अनिल अंबानी को बेचने का प्रस्ताव रखा. सपा सरकार ने उन चीनी मिलों को 25-25 करोड़ रुपये देकर चलवाया भी, लेकिन मात्र 15 दिन चलकर वे फिर से बंद हो गईं.

बसपा सरकार में मुख्यमंत्री मायावती ने सपा सरकार के उसी प्रस्ताव को उठाया और चीनी मिलों को औने-पौने दामों में बेचना शुरू कर दिया. मायावती ने पौंटी चड्‌ढा की कंपनी और आईबीएन कंपनी के हाथों 14 चीनी मिलें बेच डालीं. देवरिया की भटनी चीनी मिल महज पौने पांच करोड़ रुपये में बेच दी गई, जबकि वह 172 करोड़ की थी. कैग ने इसका पर्दाफाश भी किया. देवरिया चीनी मिल 13 करोड़ और बैतालपुर चीनी मिल 11 करोड़ रुपये में बेची गई. अब उन्हीं मिलों की ज़मीनों को प्लॉटिंग करके महंगी कॉलोनी के रूप में विकसित किया जा रहा है. चीनी मिलों को किसानों ने अपनी ज़मीनें दी थीं, लेकिन उनके बिकने पर उसकी अधन्नी भी संबद्ध किसानों को नहीं मिली. किसानों के खाते में गन्ने का पैसा डालने की व्यवस्था लागू करके तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने केन यूनियनें पंगु करने की राजनीति की थी. बाद की सपा और बसपा सरकारों ने उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए किसानों का बंटाधार करके रख दिया.


35 लाख टन चीनी नष्ट कर देने की सलाह!
चीनी मिलों के मालिक इतने लोकतांत्रिक सोच से भरे हैं कि चीनी के दाम में सुधार के लिए वे स्टॉक में रखी 35 लाख टन चीनी नष्ट करने की सलाह दे रहे हैं. जैसे कभी क़ीमत का संतुलन बनाने के लिए अमेरिका एवं ऑस्ट्रेलिया आदि देश समुद्र में गेहूं फेंकवा दिया करते थे, जिसकी दुनिया भर में काफी निंदा हुई. जिस तरह अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया को सलाह दी जाती थी कि गेहूं समुद्र में फेंकने के बजाय उसे ग़रीबों में बांट देते, तो अच्छा होता, वैसे सुझाव अपने देश के पूंजीपतियों को भी समझ में नहीं आते. भारत में अभी भी चीनी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 20 किलो प्रति वर्ष से भी कम है. भारत के ग़रीब को चाय में भी चीनी मिल जाए, तो वह धन्य हो जाता है. ऐसे में 35 लाख टन चीनी नष्ट करने का सुझाव राष्ट्रद्रोह के अपराध में दर्ज होना चाहिए. लेकिन, यह बात न केंद्र को समझ में आएगी और न यूपी की समाजवादी सरकार को. इसमा का तर्क है कि चीनी का स्टॉक नष्ट कर देने से आपूर्ति कम हो जाएगी, जिससे चीनी की क़ीमत बढ़ जाएगी और चीनी मिलों के ऩुकसान की भरपाई हो जाएगी. चीनी मिल मालिक चाहते हैं कि अतिरिक्त चीनी नष्ट करने का उन्हें विकल्प दिया जाना चाहिए. भारत के चीनी मिल मालिक ऐसी मांग करके अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के पूंजीपरस्तों की विकृत मानसिकता के बराबर खड़े होना चाहते हैं. भारत की चीनी मिलें ब्राजील से सीख नहीं लेतीं, जहां भारतीय चीनी मिलों के मुकाबले क़रीब नौ रुपये प्रति किलो सस्ती चीनी का उत्पादन होता है और ब्राजील की चीनी मिलें ही वहां का बाज़ार नियंत्रित करती हैं. उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में शुगर मिल लॉबी बेहद प्रभावशाली है. राज्य सरकारों पर ही नहीं, बल्कि केंद्र सरकार पर भी चीनी मिल मालिकों का लगातार प्रभाव और दबाव बना रहता है. लिहाजा, इसमा की घोषणा पर अपेक्षित कार्रवाई कितनी किसानोन्मुखी होगी, यह आप अच्छी तरह सोच-समझ सकते हैं.


चीनी का दाम बढ़ाने की प्रेशर-टैक्टिस
चीनी मिलों का सिंडिकेट अपनी घोषणा के जरिये चीनी की क़ीमत बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव डाल रहा है. चीनी मिलों के अधिकारी खुद इसे प्रेशर-टैक्टिस बता रहे हैं. इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इसमा) का कहना है कि चीनी के दाम कम हैं, इसलिए मिलों को भारी घाटा उठाना पड़ रहा है. ऐसे में चीनी मिलें किसानों को भुगतान नहीं कर पा रही हैं. कई चीनी मिलों पर ताला लगने की हालत है.


हड़ताल का ऐलान नहीं, संकट का खुलासा
इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन (इसमा) के महानिदेशक अविनाश वर्मा ने चौथी दुनिया से कहा कि इसमा की घोषणा चीनी मिलों की हड़ताल का ऐलान नहीं है, बल्कि यह चीनी मिलों पर छाए संकट का सार्वजनिकीकरण है. इसका उद्देश्य देश को यह बताना है कि चीनी मिलों की वित्तीय हालत इतनी खराब है कि अगर वे चाहें भी, तो पेराई के लिए चालू नहीं हो सकतीं. वर्मा ने कहा कि यदि क़ीमतों में बढ़ोत्तरी न की गई, तो चीनी मिलें गन्ना किसानों को उनकी फसल का उचित एवं लाभकारी मूल्य (फेयर एंड रेम्युनरेटिव प्राइस-एफआरपी) नहीं दे पाएंगी. गन्ने की क़ीमत और चीनी की क़ीमत में सामंजस्य हो, तभी चीनी मिलें चल सकेंगी.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here