nitishबिहार को विशेष राज्य का दर्जा पिछले कई चुनावों से नीतीश कुमार और इस लिहाज से जनता दल (यू) का प्रमुख मुद्दा रहा है. अब यह राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद का भी मुद्दा बनता जा रहा है. बिहार के सत्तारूढ़ महा-गठबंधन के तीसरे एवं सबसे कनिष्ठ घटक कांग्रेस की राज्य इकाई ने इसे अब तक मुद्दा नहीं बनाया है, पर वह इसका समर्थन ज़रूर कर रही है.

बिहार के विकास और उसे पिछड़ेपन से मुक्ति दिलाने के लिए विशेष राज्य का दर्जा ज़रूरी बताया जा रहा है. बिहार की क्षेत्रीय राजनीति में केंद्र की राजनीतिक सत्ता के विरोध में अभियान चलाने के लिए बीते वर्षों में इस मांग को महत्वपूर्ण हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है. ढाई वर्ष पहले (जून, 2013 तक) बिहार की तत्कालीन एनडीए सरकार इसका इस्तेमाल केंद्र की यूपीए सरकार को घेरने के लिए करती थी और अब महा-गठबंधन इस मुद्दे का इस्तेमाल नरेंद्र मोदी सरकार के खिला़फ कर रहा है. पर सच्चाई यह है कि हाल के वर्षों में केंद्र की नीति में बदलाव आने के कारण इस हथियार की धार कुंद पड़ गई है.

भारत सरकार ने विशेष राज्य के दर्जे का चलन समाप्त करने का निर्णय लिया है. जिन राज्यों को यह सुविधा हासिल है, वहां भी शनै: शनै: इसे समाप्त किया जा रहा है. नतीजतन, विशेष राज्य के दर्जे की मांग स़िर्फ जन-गोलबंदी के लिए उपयोगी रह गई है, पर इसका राजनीतिक तीखापन कम हुआ है. सो इसकी गूंज-अनुगूंज लोक-कल्याण एवं विकासमूलक अर्थशास्त्रियों और नीति निर्धारकों को बहुत आकर्षित नहीं करती. ऐसे में बिहार की सत्ता राजनीति भी नया पैंतरा अख्तियार कर रही है.

बिहार के पिछड़ेपन को केंद्रीय सहायता और केंद्र संपोषित योजनाओं में केंद्र सरकार की आर्थिक हिस्सेदारी को महा-गठबंधन सरकार मसला बना रही है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद बिहार की जनता से बार-बार कह रहे हैं कि 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों से बिहार को काफी ऩुकसान पहुंचा है. राज्य के वित्त मंत्री अब्दुल बारी सिद्दीकी का कहना है कि केंद्र से मिलने वाले धन में तीस हज़ार करोड़ रुपये की कटौती हो गई है, जिससे कुछ वस्तुओं पर नए सिरे से वैट लगाना पड़ा और कुछ वस्तुओं की वैट दर बढ़ानी पड़ी.

राजद के इंकलाबी बुजुर्ग नेता रघुवंश प्रसाद सिंह तो इस मसले पर आंदोलन की बात कह रहे हैं. शिक्षा मंत्री अशोक चौधरी कहते हैं कि केंद्र से धन न मिलने के चलते सूबे के शिक्षकों को वेतन नहीं मिल पा रहा है और पुस्तकों-पोशाक आदि के वितरण में भी परेशानी हो रही है. पथ निर्माण मंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव भी मानते हैं कि केंद्र से पूर्ण सहयोग न मिलने से सड़कों के निर्माण एवं रखरखाव का काम ठीक से नहीं हो रहा है.

बिहार की मौजूदा आर्थिक स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि सूबे में आत्मनिर्भर अर्थ-तंत्र विकसित करने का विचार तो बार-बार होता रहा, पर उसे कभी गंभीरता के साथ अभियान का स्वरूप नहीं दिया गया.  राज्य में आंतरिक वित्तीय स्रोत विकसित करने की दिशा में हमारी सत्ता राजनीति ने कभी कोई सार्थक पहल की हो, ऐसा उदाहरण दुर्लभ है. बिहार के विभाजन के बाद हालात और बदतर हो गए. राज्य के आंतरिक संसाधनों के कई वित्तीय स्रोत सूख गए या इतने कमज़ोर हो गए कि उनके होने या न होने का कोई असर कहीं नहीं दिख रहा है. नतीजतन, बिहार अपनी आर्थिक ज़रूरतें पूरी करने के लिए केंद्र पर निर्भर है. मौजूदा बिहार के अपने वित्तीय स्रोत बहुत सीमित हैं.

राज्य की निजी आमदनी के दो बड़े स्रोत हैं, वाणिज्य कर विभाग के बिक्री कर सहित अन्य कर और उत्पाद विभाग के कर. इसके अलावा खान एवं भूतत्व के साथ-साथ कुछ अन्य विभागों से भी कुछ आमदनी होती है. लेकिन, उनके अलावा और कोई ऐसा स्रोत नहीं बचता, जिससे राज्य किसी बड़ी आमदनी की उम्मीद कर सके. राज्य सरकार के दस्तावेजों (आर्थिक सर्वेक्षण 2014-15) के अनुसार, बिहार अपने खर्च का 27-28 प्रतिशत ही अपने करों से पूरा कर पाता है. इसके अलावा सात-आठ प्रतिशत खर्च ग़ैर कर आय एवं ऋण से पूरे होते हैं.

बाकी 64 प्रतिशत खर्च केंद्र से विभिन्न मदों में मिले धन से पूरे किए जाते हैं. इस मोर्चे पर बिहार, ओडिशा, हिमाचल प्रदेश एवं झारखंड की हालत एक जैसी है. गुजरात तो अपने खर्च का 80 प्रतिशत अपने संसाधनों से पूरा कर लेता है. उक्त चार राज्यों के अलावा शेष अन्य राज्य भी अपने खर्च का 40 से 60 प्रतिशत अपनी आय से पूरा करते हैं.

लिहाजा केंद्र पर बिहार की निर्भरता काफी अधिक है. इस हालत को शराबबंदी की घोषणा ने और भी गंभीर बना दिया है. पिछले वर्षों में शराब राज्य की आमदनी का एक बहुत बड़ा साधन रही है. इससे उत्पाद शुल्क और वैट (वाणिज्य कर) के तौर पर राज्य सरकार को चालू वित्तीय वर्ष में लगभग साढ़े पांच हज़ार करोड़ रुपये की आय का अनुमान है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महा-गठबंधन सरकार बनते ही सूबे में पूर्ण शराबबंदी की घोषणा कर दी, जिसे आगामी एक अप्रैल से लागू किया जा रहा है.

लेकिन, एकबारगी इतनी बड़ी रकम की भरपाई का कोई रास्ता न देख महा-गठबंधन सरकार ने आंशिक शराबबंदी का फैसला लिया. इससे सरकार को कुछ राहत मिलने की उम्मीद है. लेकिन, जो ऩुकसान हो रहा है, उसे पूरा करने के रास्ते नहीं सूझ रहे हैं. सीमित या आंशिक शराबबंदी के बावजूद वित्तीय वर्ष 2016-17 में कर योग्य आय में क़रीब ढाई हज़ार करोड़ रुपये की कमी आएगी. इसकी भरपाई कैसे होगी, यह लाख टके का सवाल है.

सूबे के वित्त प्रबंधकों का संकट यहीं समाप्त नहीं होता. बिहार सरकार ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सात निश्चय लागू करने शुरू कर दिए हैं, जो विधानसभा चुनाव के दौरान किए गए थे. शराबबंदी का निश्चय इससे बाहर का है. सरकार की सीधी नियुक्तियों की सभी श्रेणियों में महिलाओं को 35 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला लिया जा चुका है. अन्य छह निश्चय अगले पांच वर्षों में लागू करने हैं, जिनके लिए 2.7 लाख करोड़ रुपये चाहिए. यानी इन निश्चयों को लागू करने के लिए प्रतिवर्ष औसतन 55 हज़ार करोड़ रुपये चाहिए. सूबे के बड़े नौकरशाहों का मानना है कि मुख्यमंत्री के निश्चय लागू करने में शुरुआती वर्षों में क़रीब 30 हज़ार करोड़ रुपये खर्च होने की उम्मीद है.

साथ ही केंद्र संपोषित योजनाओं की हिस्सेदारी की शैली में बदलाव के कारण लोक कल्याण एवं समाज कल्याण की विभिन्न योजनाओं के लिए राज्य को अधिक धन की व्यवस्था करनी होगी. सड़क, शिक्षा एवं स्वास्थ्य आदि ज़रूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त धन चाहिए. एक और बड़ा खर्च सरकार की दहलीज पर है यानी सातवें वेतन आयोग की अनुशंसाएं. हालांकि, इस पर विवाद चल रहा है, लेकिन अगले वित्तीय वर्ष के पूर्वार्द्ध में इसे लागू किया जाना तय माना जा रहा है. ऐसा होने पर राज्य के खजाने पर एक बड़ा बोझ पड़ेगा. 

बिहार के सत्ता-गलियारे के साथ-साथ आर्थिक मामलों के जानकारों का सवाल है कि महा-गठबंधन सरकार हालात से कैसे निपटेगी? इस सवाल का जवाब आसान नहीं है. 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार, केंद्र के करों में से 42 प्रतिशत रकम राज्यों को मिलेगी. 13वें वित्त आयोग में यह केवल 32 प्रतिशत थी. इस लिहाज से बिहार को पांच वर्षों के दौरान क़रीब पौने पांच लाख करोड़ रुपये मिलेंगे. इसे सतही तौर पर देखें, तो बिहार को केंद्र से अधिक धन मिल रहा है. लेकिन, वित्त आयोग की दूसरी सिफारिशों ने राज्यों को परेशानी में डाल दिया है.

यानी केंद्र संपोषित योजनाओं में केंद्र सरकार की हिस्सेदारी में भारी कटौती हो गई है. 14वें वित्त आयोग की सिफारिशें लागू होने के पहले तक केंद्र संपोषित योजनाओं में केंद्र 50 से 90 प्रतिशत तक हिस्सेदारी निभाता रहा. अब नई व्यवस्था के तहत केंद्र संपोषित अधिकांश योजनाओं में राज्य सरकार की आर्थिक हिस्सेदारी नब्बे प्रतिशत तक हो गई है.

इसके चलते बिहार को कम से कम तीस हज़ार करोड़ रुपये का ऩुकसान हो रहा है. केंद्र की हिस्सेदारी कम होने का प्रतिकूल असर इंदिरा आवास योजना, मनरेगा, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, महिला एवं बाल कल्याण और विद्युतीकरण आदि कार्यक्रमों पर पड़ा है. हालांकि, असर का दिखना अभी बाकी है. कई कार्यक्रमों के भौतिक एवं आर्थिक लक्ष्यों में कटौती करनी पड़ रही है.

शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवा के विस्तार कार्यक्रमों से संबद्ध लोगों के वेतन पर संकट तक आ सकता है. वस्तुत: जिन कार्यक्रमों पर केंद्र की इस नई व्यवस्था का प्रतिकूल असर पड़ा रहा है, वे सभी समाज कल्याण से संबंधित हैं. इंदिरा आवास योजना की अधूरी इकाइयों को पूरा करना कठिन हो गया है, जिनकी संख्या लाखों में है. यह किसी भी सरकार के लिए परेशानी का एक बड़ा सबब है, लेकिन बिहार सरकार के पास करने के लिए बहुत कुछ है, ऐसा नहीं लगता. फिर भी नीतीश सरकार ने एक ठोस संकेत दिया है.

शराबबंदी से संभावित आर्थिक ऩुकसान, केंद्र की नई नीति और बढ़े खर्चों से निपटने की कोशिश में बिहार की महा-गठबंधन सरकार ने पहला क़दम गत दिनों उठाया. राज्य सरकार ने बिक्री कर और वैट बढ़ाने का फैसला लिया है. बिहार में पेट्रोल-डीजल पर वैट बढ़ गया है. यही नहीं, क़ीमती वस्त्रों (पांच सौ रुपये प्रति मीटर या उससे अधिक महंगे), साड़ियों (दो हज़ार रुपये या उससे अधिक महंगी), ब्रांडेड समोसे, ब्रांडेड कचौड़ी, नमकीन और आठ सौ रुपये प्रति किलोग्राम की मिठाइयों को भी वैट के दायरे में लाया गया है. भवन निर्माण सामग्री यानी बालू-गिट्टी आदि पर भी वैट की दर बढ़ाने का फैसला लिया गया है. सरकार के इन और ऐसे अन्य क़दमों से कोई बड़ी आमदनी तो नहीं होगी, पर पांच से सात सौ करोड़ रुपये की आय होने का अनुमान है.

सरकार के ऐसे निर्णय पहले भी बजट में घोषित होते रहे हैं, लेकिन अब दिल्ली से लेकर पटना तक ऐसी संसदीय गरिमा का पालन अतीत की बात बनता जा रहा है. उद्योग-व्यापार जगत के लोगों, आर्थिक मामलों के जानकारों के साथ-साथ राज्य के कई वरिष्ठ नौकरशाहों का मानना है कि यह करों की कड़वी खुराक का आग़ाज है. फरवरी के अंतिम सप्ताह में वित्तीय वर्ष 2016-17 का बजट पेश होना है. उसमें करों से संबंधित विभिन्न उपाय खोजे जाएंगे.

राज्य की जनता को अनेक नए करों के लिए मानसिक तौर पर तैयार रहना चाहिए. कुछ नई वस्तुओं पर प्रवेश कर लग सकता है, तो कुछ पर बिक्री कर और वैट की दर बढ़ाई जा सकती है. ज़ाहिर है, यह स्थिति दो तिहाई से भी बड़े जनादेश के ज़रिये सत्ता में लौटे नीतीश कुमार की लोक-कल्याणकारी राजनेता की छवि के लिए बहुत बेहतर नहीं होगी, लेकिन महा-गठबंधन नेतृत्व के पास दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है. ऐसे में बिहार के साथ केंद्र का सौतेला व्यवहार या बिहार की हक़मारी या विशेष राज्य के दर्जे की मांग जैसा राजनीतिक मसला ही काम आ सकता है. तो, क्या वही हो रहा है? 

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