चुनावी आहट के साथ ही शुरू हो गई वोट बैंक को साधने की कोशिशें

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बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यू) सुप्रीमो नीतीश कुमार का राजनीतिक संकट भी भारत के आम राजनेताओं की तरह ही है, लेकिन उनके और इनके संकट में थोड़ा अंतर है. जद (यू) सुप्रीमो और उनके दल के तमाम छोटे-बड़े नेता इस जुमले को खूब दोहराते रहते हैं कि हम वोट के लिए कुछ नहीं करते. लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत है और यह जानने के लिए इतिहास में जाने की जरूरत नहीं है. जद (यू) का पिछले कुछ महीनों का राजनीतिक आचरण वोट की राजनीति की उसकी रणनीति का खुद खुलासा करते हैं.

पिछले दिनों सूबे में पार्टी के संसदीय दल के नेता और मुख्यमंत्री के खास आरसीपी सिंह के नेतृत्व में इस दल के बड़े नेताओं-प्रवक्ताओं के समूह ने दलित-महादलित और अतिपिछड़ा जैसे सामाजिक समूहों को गोलबंद करने का अभियान चलाया. शराबबंदी ही नहीं, मुख्यमंत्री के दहेजबंदी और बालविवाह-बंदी अभियान से जोड़ने के बहाने सूबे की महिला मतदाताओं को जद (यू) के पक्ष में नए सिरे से गोलबंद करने की भी कोशिश की जा रही है.

वहीं, दबंग पिछड़ी जातियों के साथ-साथ दबंग अतिपिछड़े सामाजिक समूहों को भी जद (यू) की छतरी के नीचे लाने का प्रयास किया जा रहा है. इन सबके साथ नीतीश कुमार के पुराने सामाजिक-राजनीतिक समीकरण, ‘लव-कुश’ को नए सिरे से जिंदा करने के भी उपाय किए जा रहे हैं.

भारत में राजनीति का जातिवादी चरित्र नई बात नहीं है. संविधान प्रदत्त आम मताधिकार के तहत चुनाव व्यवस्था लागू होने के पहले से ही इसके उदाहरण मिलते रहे हैं.  कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक यह विविध स्वरूप में लम्बे समय से मौजूद है, पर हाल के दशकों में बिहार में इसमें गंभीर बदलाव आया है. यहां अलग-अलग जातियों की अलग-अलग राजनीतिक पार्टी होती है. राजद को यादव व मुसलमानों का दल माना जाता है, तो मौजूदा दौर में भाजपा को अगड़ों व वैश्यों की पार्टी के तौर पर पहचान मिली है.

तत्कालीन जनता दल से अलग होकर जॉर्ज फर्नांडीज के नेतृत्व में जब नीतीश कुमार ने 1994 में समता पार्टी बनाई थी, तो ऐसा माना जाता था कि वो अघोषित रूप से ‘लव-कुश’ (कुर्मी-कुशवाहा) समीकरण की बुनियाद पर टिकी है. समता पार्टी का बाद में शरद यादव के नेतृत्व के जद (यू) में विलय हो गया और धीरे-धीरे बिहार की राजनीति में लव-कुश समीकरण धूमिल होता चला गया.

हालत यह है कि पिछले कुछ चुनावों से जद (यू) ‘लव’ की पार्टी बन कर रह गई है. दलित-महादलित समूहों की बात करें, तो लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान ने जद (यू) से अलग होने के बाद दलितों को अपने साथ करने की जो भी कोशिशें की हो, इनके अधिकांश सामाजिक समूह उनसे अलग ही रहे और वे एक खास दलित सुमदाय के नेता बन कर रह गए. बिहार की राजनीति में अतिपिछड़ों की अपनी कोई ताकतवर आवाज हाल के दशकों में नहीं उभर सकी. हालांकि इन सामाजिक समूहों को अपने साथ जोड़ने की सायास और गंभीर कोशिश नीतीश कुमार ने की. एनडीए-1 और एनडीए-2 (नवम्बर 2005 से जून 2013) के दौरान उन्होंने अतिपिछड़ा व महादलित सामाजिक समूहों को अपने वोट बैंक में बदलने की कई सार्थक राजनीतिक और प्रशासनिक पहल की.

उन्होंने एक और चाल चली. उन्होंने महिलाओं को वोट-बैंक में तब्दील करने का कुछ हद तक सफल राजनीतिक प्रयास किया. इस पहल का राजनीतिक लाभ नीतीश कुमार को वर्ष 2009 के ससंदीय व वर्ष 2010 के विधानसभा चुनावों में मिला. लेकिन 2014 के ससंदीय चुनाव में मोदी लहर के सामने नीतीश कुमार का यह राजनीतिक महल ताश के पत्ते की तरह बिखर गया. नरेंद्र मोदी के कारण एनडीए (उस वक्त मोदी विरोध के नाम पर नीतीश कुमार एनडीए नहीं, महागठबंधन में थे) यह वोट बैंक लूट ले गया.

ऐसे में नीतीश कुमार अपने पुराने समर्थक सामाजिक समूहों को नए सिरे से गोलबंद करने की हरसंभव चेष्टा कर रहे हैं. इस कोशिश में जद (यू) राह की समस्त बाधाओं को खत्म करने का कोई भी प्रयास बाकी नहीं छोड़ना चाहती है. लेकिन सूबे की राजनीति में हाल के वर्षों में कई ऐसे वाकयात हुए हैं, जो इस राह में सत्तारूढ़ दल की परेशानी बढ़ा रहे हैं. तथ्य तो यह है कि कुछ सामाजिक समूहों के अपने घोषित राजनीतिक दल नहीं हैं और इनका समर्थन हासिल करने के लिए सभी दलों में होड़ मची है- वे दल एनडीए के भी हैं और महागठबंधन के भी.

कुशवाहा समाज किसके साथ

सूबे की जातीय राजनीति की यह वास्तविकता है कि कुशवाहा समाज का कोई बहु-स्वीकृत नेता नहीं है. कहने को तो इस राज्य के कोई आधा दर्जन राजनेता कुशवाहा समाज में स्वीकृत होने का दावा करते हैं, पर तथ्य से दूर यह केवल दावा भर है. हां, पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) सुप्रीमो व केंद्रीय मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा की स्वीकृति अपने समाज में कुछ बढ़ी जरूर है. वे अपने दल को इस समाज के हितरक्षक के तौर पर तो पेश कर ही रहे हैं, ढाई-तीन वर्षों में एक अभियान भी चला रहे हैं- यादव और कुर्मी के बाद अब कुशवाहा मुख्यमंत्री क्यों नहीं?

सूबे में कुशवाहा समाज की आबादी कोई साढ़े पांच प्रतिशत है. कहा जाता है कि उनके इस अभियान को अपने समाज में समर्थन भी मिल रहा है. इस समाज के कई छोटे-बड़े नेता उनके साथ जुड़ रहे हैं. इससे भी उनके पक्ष में संदेश जा रहा है. कुशवाहा समाज में ऐसी महत्वाकांक्षा को जद (यू) सुप्रीमो के समर्थक उनकी राजनीति के लिए खतरनाक मानते हैं. पिछले एक साल के दौरान कई ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनसे यह संकेत गया कि नीतीश कुमार की राजनीति उपेन्द्र कुशवाहा को हाशिये पर धकेलने की है.

इसका संदेश नीतीश कुमार के लिए अच्छा नहीं गया है. बिहार के राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि रालोसपा को जद (यू) सुप्रीमो एनडीए से बाहर करने की जुगत में हैं. कुशवाहा समाज में इस बात की चर्चा आम है. इधर, मुज़फ़्फरपुर बालिका गृह कांड में तत्कालीन समाज कल्याण मंत्री मंजु वर्मा से इस्तीफा लेने के नीतीश कुमार के फैसले को भी कुशवाहा समाज ने अपने साथ दुर्भावना के रूप में लिया है.

इस मामले में शक की सुई एक और मंत्री पर गई थी, जो अगड़े सामाजिक समूह के हैं, लेकिन उन्हें छोड़ दिया गया. ऐसे नकारात्मक संदेशों के कारण नीतीश कुमार के लिए कुशवाहा समाज को अपने साथ जोड़ने की सकारात्मक कोशिश वक्त की जरूरत हो गई है. इसीलिए गत दो महीनों में इस समाज के प्रमुख लोगों व इससे जुड़े जद (यू) के नेताओं-कार्यकर्त्ताओं की दो अलग-अलग बैठकें मुख्यमंत्री आवास में आयोजित जा चुकी हैं.

मुख्यमंत्री के निर्देश पर एक संगठन, कुशवाहा राजनीतिक विचार मंच का गठन किया गया. इस मंच की ओर से सूबे के विभिन्न जिलों, विशेषकर कुशवाहा बहुल क्षेत्रों में, कार्यक्रम चलाने का निर्णय लिया गया है. मुख्यमंत्री ने इस अभियान की जिम्मेवारी दल के विभिन्न कुशवाहा नेताओं को दी है और इसके लिए टीमों का गठन भी कर दिया गया है. कुशवाहा समाज से नीतीश कुमार की बनी दूरी को पाटने के लिए और भी काम आरंभ करने की तैयारी चल रही है. फिर भी, जद (यू) संगठन और सुप्रीमो व उनके खास लोग बहुत आशासवादी नहीं हैं.

दलितों-पिछड़ों को साधने की कोशिश

बिहार की एक बड़ी राजनीतिक सच्चाई यह है कि सूबे की लगभग 16 प्रतिशत दलित-महादलित और करीब 38-40 प्रतिशत अतिपिछड़ी आबादी के आर्थिक व राजनीतिक सशक्तिकरण की दिशा में नीतीश कुमार के शासन काल (एनडीए-1 व 2) में कई महत्वपूर्ण, ठोस व सार्थक काम किए गए. इन समुदायों को इसका लाभ भी मिला. पर राजीतिक सत्ता में उनकी हिस्सेदारी अब भी सीमित है और ये दबंग जातियों की सहानुभूति व कृपा पर ही निर्भर हैं. पंचायतों-स्थानीय निकाय की समितियों तक ही उन्हें हिस्सेदारी दी गई है. दलितों के एक सामाजिक समूह पर तो रामविलास पासवान की गहरी पकड़ है और माना जा रहा है कि इस समूह का वोट ट्रांसफर कराने की उनकी ताकत को फिलहाल कोई चुनौती नहीं दे सकता.

लेकिन यह पार्टी भी सुप्रीमोवादी पारिवारिक नेतृत्व से आगे नहीं बढ़ सकी है. महादलितों के बड़े समूह पर पूर्व मुख्यमंत्री और हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के सुप्रीमो जीतनराम मांझी अपनी पकड़ का दावा करते हैं. उनके दावे में दम भी दिखता है. सूबे की कुछ अतिपिछड़ी जातियों में भी उनको लेकर राजनीतिक सहानुभूति का दावा किया जाता है. वस्तुतः कुछ साल पहले इन समुदायों पर नीतीश कुमार का राजनीतिक असर स्पष्ट दिखता था, पर जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री पद से हटाने और उस पद पर नीतीश कुमार को लाने के लिए जद (यू) में नीतीश-भक्तों ने जैसा अभियान चलाया, उससे इन सामाजिक समूहों में मांझी के प्रति सहानुभूति जगी.

इस राजनीतिक घटना ने महादलित सामाजिक समूहों में जद (यू) को लेकर क्षोभ-रोष का माहौल विकसित किया. नीतीश कुमार की कृपा से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे जीतनराम मांझी महादलित और समस्त सुविधाओं से वंचित विपन्न अतिपिछड़ों की जमात की आवाज जैसा बनते दिख रहे हैं. हालांकि गत विधानसभा चुनावों में वे एनडीए में थे और उनके सारे उम्मीदवार चुनाव हार गए, गनीमत रही कि वे खुद जीत गए.

फिलहाल, वे महागठबंधन में हैं और महादलित समुदायों में उनकी पकड़ के लिहाज से संसदीय चुनाव उनके दावों की अग्निपरीक्षा ही होगी. यह तो उनकी राजनीति का सकारात्मक पक्ष हुआ, पर नीतीश कुमार के प्रत्याशियों को तो मांझी की नकारात्मक राजनीति ज्यादा परेशान करेगी. वस्तुतः श्याम रजक और महेश्वर हजारी जैसे कुछ दलित- महादलित शख़्सियतों को अपवाद मान लें, तो जद (यू) में इन सामाजिक समूहों की ताकतवर आवाज का अभाव है.

अतिपिछड़े सामाजिक समूहों की स्थिति भी जद (यू) में दलित-महादलित से बेहतर नहीं है. सूबे के अन्य राजनीतिक दलों की तरह, जद (यू) ने इन सामाजिक समूहों का कोई कद्दावर नेता विकसित नहीं किया, या न होने दिया. इन सामाजिक समूहों के जिन कुछ लोगों के नेता होने की बात की जा रही है, उनमें अधिकांश को इसलिए सुना जा रहा है, क्योंकि वे या तो मंत्री हैं या संगठन में बड़े पदाधिकारी.

हालांकि सूबे के अधिकांश दलों में दलित-महादलित व अतिपिछड़ों की हैसियत वोट बैंक तक की ही रहने दी गई है. सूबे के जिलों में जद (यू) की तरफ से दलित-महादलित सम्मेलन आयोजित किए जा रहे हैं. महिलाओं के संदर्भ में भी ऐसी ही बात कही जा सकती है. नीतीश कुमार ने महिला सशक्तिकरण की दिशा में कई बड़े काम किए हैं. सरकारी नौकरी में उनके लिए आरक्षण के भीतर आरक्षण की व्यवस्था कर दी, तो वहीं पंचायतीराज संस्थानों व स्थानीय निकायों में उनके लिए 33 प्रतिशत के आरक्षण की सीमा बढ़ा कर 50 प्रतिशत कर दी.

उनके राजनीतिक सशक्तिकरण की यही सीमा हो गई है. संसद-विधान मंडलों में महिलाओं के आरक्षण को लेकर नीतीश कुमार राजनीति भी वहीं है, जहां तत्कालीन जनता दल था. यह तो गंभीर राजनीतिक विमर्श का विषय है. फिलहाल संसदीय चुनाव 2019 की तैयारी चल रही है.

दलित-महादलित व अतिपिछड़ों के साथ-साथ महिला वोटरों को भी गोलबंद करने का अभियान चल रहा है. इस सिलसिले में विकास-मित्र, टोला सेवक, जीविका जैसी व्यवस्था का लाभ तो नीतीश कुमार को मिलना ही है. पर ये सब तो बाद की बात है, अभी तो सभी वोट-बैंक के कील-कांटे दुरुस्त करने हैं. यही हो रहा है. रणनीति बनाने में प्रशांत किशोर जुटे हैं, तो उन रणनीतियों को जमीन पर उतारने के लिए आरसीपी सिंह की टीम लगी है. फिर भी, सुप्रीमो की चिंता तो अपनी जगह है ही- ‘वोट के लिए कुछ नहीं करना है.’

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