14-hafiz-saeed-ved-pratap-vपत्रकारिता के बारे में आम तौर पर धारणा है कि पत्रकार निष्पक्ष तो होता ही है, क्योंकि उसे जज या डॉक्टर की भूमिका निभानी पड़ती है और यह स़िर्फ भूमिका नहीं है, एक पत्रकार का कर्तव्य भी है. पत्रकार से यह भी अपेक्षा की जाती है कि जो चीजें दबाई जाएं, जो सच्चाई छिपाई जाए, उसे वह उजागर करे और उजागर करने में अपनी सारी क्षमता, सारी शक्ति लगा दे. पत्रकारिता का यही धर्म है कि रिपोर्ट करने या स्कोप की तलाश में वह व्यक्तिगत शत्रुता या जलन को बीच में न आने दे. पत्रकार का मूल धर्म यह भी है कि वह लिखते समय किसी की चापलूसी न करे और अपने निजी संबंधों को, व्यक्तिगत मित्रता को अपनी रिपोर्ट के ऊपर हावी न होने दे.
तीन तरह के पत्रकार पाए जाते हैं. पहले वे, जो कमिटेड जर्नलिज्म करते हैं. वे किसी राजनीतिक दल के साथ जुड़कर उसके मुखपत्र में उस पार्टी की नीतियों का भरपूर प्रचार करते हैं और समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं में लेख लिखकर उन्हीं नीतियों को स्थापित करने की कोशिश करते हैं, जिन्हें वह राजनीतिक दल मानता है. दूसरी तरह के पत्रकारों की श्रेणी पीआर जर्नलिस्टों की है. वे पत्रकारिता का इस्तेमाल सत्ता प्रतिष्ठान, जिसमें पक्ष, विपक्ष और संपूर्ण ब्यूरोक्रेसी शामिल है, से रिश्ते बनाते हैं और उनके स्वार्थ साधने का काम करते हैं, जिनके साथ उनका हित साधन होता है. तीसरी तरह के पत्रकार वे होते हैं, जो कबीर की वाणी-न काहू से दोस्ती न काहू से बैर को अपना आदर्श मानते हुए जनता के पक्ष का जर्नलिज्म करते हैं. जब हम जनता के पक्ष की पत्रकारिता की बात करते हैं, तो यह विचारधारा की पत्रकारिता नहीं होती, बल्कि इसका मतलब है कि मजलूम, सताए गए, दबाए गए, पीड़ित व्यक्ति के पक्ष में कलम उठाना.
श्री वेद प्रताप वैदिक के बहाने बहुत दिनों के बाद राजनेताओं ने एक सुरसुरी छोड़ी कि पत्रकारों को जेल भेज देना चाहिए. यह स़िर्फ वैदिक को जेल भेजने की मांग नहीं थी, बल्कि यह हर उस पत्रकार को जेल भेजने की मांग थी, जिसे सत्ता प्रतिष्ठान पसंद नहीं करता. जिसकी मुख़ालफ़त विपक्ष भी करता है, सत्ता पक्ष भी और संपूर्ण नौकरशाही भी. आख़िर वैदिक ने किया क्या? वैदिक पाकिस्तान गए और वह चूंकि कई बार पाकिस्तान जा चुके थे, इसलिए उन्हें एक महीने का वीजा स्वतंत्र रूप से किसी प्रतिनिधि मंडल का सदस्य होने के नाते नहीं मिला, बल्कि पाकिस्तान हाई कमीशन ने दिया. वह वहां पर अपने हिंदुस्तानी दोस्तों को छोड़कर पाकिस्तानी दोस्तों से मिलने के लिए रुक गए. मैं पाठकों को बता दूं कि हिंदुस्तान में बहुत सारे ऐसे पत्रकार हैं, जिनके पाकिस्तान में दोस्त हैं. वे जब यहां आते हैं, तो हमारी मेहमान नवाज़ी स्वीकार करते हैं और जब हम में से कोई वहां जाता है, तो वह इसी तरह रुकता है, क्योंकि दोनों मुल्कों की खुशबू, दोनों मुल्कों की मिट्टी की गंध बिल्कुल एक जैसी है.
वेद प्रताप वैदिक के अनुसार, लाहौर प्रेस क्लब में जब उन्होंने भारत की स्थिति, आतंकवादियों की कार्रवाई और मुंबई हमलों का ज़िक्र किया, तो वहां दो पत्रकारों ने कहा कि क्या आप कभी हाफ़िज़ सईद से मिले हैं? वैदिक ने कहा, नहीं, तो उन पत्रकारों ने कहा, मिलना चाहेंगे? वैदिक के भीतर का पत्रकार बोल पड़ा और उन्होंने कहा, हां मिलना चाहूंगा. उन्हें शायद विश्‍वास नहीं था कि मुलाक़ात हो जाएगी, लेकिन दो दिन के भीतर उन पाकिस्तानी पत्रकारों ने वैदिक की मुलाकात तय करा दी. मैं यहां यह भी साफ़ करता चलूं कि जो अच्छे पत्रकार होते हैं, उनके संबंध हर जगह होते हैं और जो अच्छा नहीं होता है, वही बाहरी किनारे पर तैरता रहता है तथा अपने शब्दों की हेराफेरी से लोगों को भ्रमित करता है.
वैदिक की हाफ़िज़ सईद से मुलाक़ात हुई. वैदिक ने हाफ़िज़ सईद से क्या बात की, इसे वह इंटरव्यू की शक्ल में लिखने वाले थे, लेकिन वह इंटरव्यू इसलिए नहीं लिख पाए, क्योंकि उन्हें बातों का मर्म तो याद था, लेकिन शब्द याद नहीं थे. और, इंटरव्यू में अगर सही शब्द न हों, तो कोई भी उसका खंडन कर सकता है. इसलिए वैदिक जिन अख़बारों में लिखते थे, उनमें कॉलम लिखना चाहते थे. वैदिक हिंदुस्तान आए और बकौल वैदिक, उन्होंने कई अख़बारों से बातचीत की, जहां वह कॉलम लिखते थे. उन अख़बारों ने वैदिक को यह विषय लेने से मना किया. तब वैदिक ने सोशल मीडिया का सहारा लिया और हिंदी के एक समाचार चैनल के मालिक रजत शर्मा से संपर्क करके हाफ़िज़ सईद से मुलाक़ात की बात कही.
और, यहीं से शुरू हुआ वैदिक के ख़िलाफ़ कांग्रेस का षड्यंत्र. किसी पत्रकार ने इस पर अब तक सवाल नहीं उठाया था, लेकिन जैसे ही कांग्रेस के नेताओं, जिनमें दिग्विजय सिंह प्रमुख थे, ने यह कहते हुए वैदिक के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग की कि वह देश के शत्रु हाफ़िज़ सईद से मिलकर आए हैं, वह वहां नरेंद्र मोदी के मिशन पर गए थे, इसलिए उनके ख़िलाफ़ तत्काल न केवल कार्रवाई होनी चाहिए, बल्कि उन्हें गिरफ्तार भी किया जाना चाहिए, वैसे ही हमारी बिरादरी के लोगों ने टेलीविजन पर वेद प्रताप वैदिक के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ दिया. जिन पत्रकारों ने यह अभियान छेड़ा, शिकायत उन्हीं से है, क्योंकि हम दिग्विजय सिंह या दूसरे राजनेताओं से शिकायत इसलिए नहीं करना चाहते, क्योंकि उन्हें पता ही नहीं है कि पत्रकारिता क्या है. उनके लिए पत्रकारिता स़िर्फ एक चापलूसी का तरीक़ा है. अगर उनकी चापलूसी न हो, तो उनके लिए पत्रकारिता बेकार है और वे उस पत्रकारिता को पीत पत्रकारिता मानते हैं.
हक़ीक़त यह है कि ज़्यादातर राजनेता अपनी चापलूसी में लिखे गए प्रशंसा पत्रों को ही न केवल अख़बार में देखना चाहते हैं, बल्कि टेलीविजन पर भी सुनना चाहते हैं. पर अपने साथी पत्रकारों को क्या कहें? वैदिक क्यों गए, क्यों मिले, हमारी समझ से आईएसआई द्वारा उनकी मुलाकात तय हुई होगी, वह (हाफ़िज़ सईद) तो इतने घेरे में रहते हैं, आदि जैसे सवाल उछालने वाले पत्रकारों को दरअसल कुछ नहीं मालूम है, क्योंकि वे कभी पाकिस्तान या विश्‍व के टीवी चैनल देखते नहीं हैं. हाफ़िज़ सईद का वहां लगातार इंटरव्यू होता है, वह मस्जिदों में हर शुक्रवार को भाषण देता है, वह कोर्ट में अपना बचाव करता है और पाकिस्तान में लगभग खुलेआम घूमता है. जो आदमी हर शुक्रवार को मस्जिद में भाषण दे, कोर्ट में जाकर अपनी वकालत करे और जो किसी भी समारोह में घूमता हुआ दिखाई दे जाए, उसके बारे में यह कहना कि वह पाकिस्तान में दस सुरक्षा घेरों के बीच में रहता है, मूर्खता है.
भारत के लोगों को नहीं पता है कि पाकिस्तान में आतंकवादियों की वजह से सुरक्षा की हालत इतनी ख़राब है कि वहां पर हर नाम वाला व्यक्ति दोहरे-तिहरे सुरक्षा कवच में रहता है. मैं जब पाकिस्तान गया था, तो मैंने देखा कि हर घर के आसपास निजी सुरक्षाकर्मी अत्याधुनिक हथियार लिए इस तरह से रक्षा करते हैं, मानो कोई हमला होने वाला है. हिंदुस्तान में होटलों में गेट के ऊपर चेकिंग बहुत बाद में शुरू हुई, पाकिस्तान में यह लगभग 2002 से शुरू हो गई थी. अगर आप किसी होटल में घुसना चाहें, तो तब तक नहीं घुस सकते, जब तक पूरी तरह से चेकिंग न हो जाए. यह मैं पांच सितारा होटलों की बात कर रहा हूं. पाकिस्तान की आंतरिक स्थिति इतनी ख़राब है कि कोई भी व्यक्ति लूट से बचने के लिए, हत्या से बचने के लिए निजी सुरक्षा एजेंसियों के घेरे में रहता है. और, पाकिस्तान में निजी सुरक्षा एजेंसियों को लगभग वही अधिकार प्राप्त हैं, जो हमारे यहां की पुलिस को प्राप्त हैं.
जब मैं पुलिस और निजी सुरक्षा एजेंसियों को एक ही तरह के अधिकार की बात करता हूं, तो इसकामतलब यह नहीं है कि अपराधी को पकड़ना निजी सुरक्षाकर्मियों के दायरे में है, लेकिन अगर कोई हमला करे, तो उसका क़ानूनी रूप से जवाब देना उनके दायरे में है. जो हथियार वहां पुलिस के पास नहीं हैं, वे हथियार निजी सुरक्षा कर्मचारियों के पास हैं. हमारे पत्रकार जो हिंदुस्तान में हैं, वे सवाल कर रहे हैं कि वेद प्रताप वैदिक अपना सोर्स बताएं कि वह किसके ज़रिये सईद से मिलने गए. टेलीविजन पत्रकार चीख-चीख कर वैदिक को सज़ा दिए जाने की मांग कर रहे हैं. लेकिन ये महान पत्रकार, जिनमें से अधिकांश के संबंध भारत के इंटेलिजेंस ब्यूरो से हैं, विदेश मंत्रालय से हैं और पाकिस्तान के पत्रकारों से भी हैं, यह सुबूत क्यों नहीं लाते कि वेद प्रताप वैदिक आईएसआई के ज़रिये से हाफ़िज़ सईद से मिले और यह सुबूत क्यों नहीं लाते कि वेद प्रताप वैदिक जो कह रहे हैं, झूठ कह रहे हैं. हम आख़िर एक पत्रकार के फेश वैल्यू पर क्यों न जाएं?
लेकिन लगता है, कहीं हमारे अंदर दो कारणों से जलन है कि एक तो यह हम क्यों नहीं कर पाए और दूसरा अंग्रेजी पत्रकारों के मन में जलन है कि इसे एक हिंदी वाला कैसे कर ले गया. हिंदी वाला पत्रकार अपने अलावा किसी को सर्वोच्च नहीं मानता. मैं यह बात अंडरलाइन करके कह रहा हूं कि मैंने आज तक नहीं देखा कि हिंदी के पत्रकारों ने कभी दूसरे किसी ज़िंदा पत्रकार की प्रशंसा की हो. मरे हुए पत्रकार की याद में क़सीदे पढ़ते हुए तो हमने लोगों को देखा है, लेकिन ज़िंदा पत्रकारों की रिपोर्ट की तारीफ़ हिंदी वाला नहीं करता. वह अंगे्रजी के पत्रकारों की तारीफ़ कर सकता है, लेकिन हिंदी भाषा के पत्रकार की तारीफ़ या भाषायी पत्रकारों की तारीफ़ मैंने किसी हिंदी पत्रकार के मुंह से नहीं सुनी. वेद प्रताप वैदिक के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग टीवी के उन जर्नलिस्टों ने सबसे ज़्यादा की, जो किसी कॉरपोरेट हाउस में सीनियर एक्जीक्यूटिव नहीं बन पाए और टहलते हुए पत्रकारिता में आ गए. उनके खाते में कोई रिपोर्ट नहीं है, उनके खाते में कोई कमाल दर्ज नहीं है. उन्हें पत्रकार के नाते लोग स़िर्फ इसलिए जानते हैं कि वे टेलीविजन पर आते हैं. अगर उनका चेहरा टेलीविजन से हटा दिया जाए, तो उन्हें कोई दो पैसे को न पूछे.
पत्रकारिता एक अलग चीज है, एक अलग आदर्श है. इस देश ने पत्रकारों को आम जन के हितों के लिए, उनके जीवन के लिए लड़ते हुए देखा है और उनकी इज्जत भी है. लेकिन वे पत्रकार, जो अमेरिका में जाकर आईएसआई से जुड़ी संस्था के मंच पर भाषण देते हैं, उनके ख़िलाफ़ हिंदी का एक भी पत्रकार मुंह नहीं खोलता, क्योंकि वे अंग्रेजी के पत्रकार हैं. मैं वैदिक का समर्थन नहीं कर रहा हूं. मैं उस सिद्धांत का समर्थन कर रहा हूं, जो यह कहता है कि पत्रकार कहीं भी जा सकता है और कहीं से भी रिपोर्ट लेकर आ सकता है, बशर्ते उस रिपोर्ट का खंडन न हो. वह कहीं भी इंटरव्यू कर सकता है, बशर्ते वह शख्स छिपा हुआ हो और लोगों की जद में न हो. मैं वेद प्रताप वैदिक का वकील नहीं हूं, लेकिन वैदिक के बहाने राजनेताओं की तरह अगर पत्रकार भी पत्रकारों के अधिकारों को समाप्त करने की साजिश का हिस्सा बनते हैं, तो मैं उस साज़िश का अपनी पूरी ताक़त से विरोध करना चाहता हूं. मुझे विनम्रता से यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि जो पत्रकार इस समय पत्रकारों के अधिकारों के ख़िलाफ़ कैंपेन कर रहे हैं, वे उन राजनेताओं की जेब की कौड़ियां हैं, जो पत्रकारिता कीअसली धार समाप्त करना चाहते हैं.
वेद प्रताप वैदिक की बातें जब तक ग़लत साबित नहीं हो जातीं, तब तक मैं उन्हें सही मानता रहूंगा. मैंने हमेशा इस तरह की पत्रकारिता का विरोध किया है कि मेरी समझ से, मेरा यह मानना है…अरे, आप कौन हैं, जो मेरा यह मानना है? पत्रकारिता में मानना नहीं चलता, पत्रकारिता में तथ्य चलता है, सच्चाई चलती है. इसलिए हम चाहेंगे कि पत्रकारिता के ये नकली चेहरे पहचाने जाएं और ये चेहरे बताएं कि इनकी साख क्या है, सिवाय टेलीविजन के पर्दे पर आकर महामूर्खता के सवाल पूछने के. इन्हें बताना चाहिए कि इन्होंने क्या रिपोर्ट की है. इनमें से बहुतों की उम्र वेद प्रताप वैदिक की पत्रकारिता से आधी भी नहीं है. वेद प्रताप वैदिक की कमियां अपनी जगह हैं, उनका बड़बोलापन उनकी कमी है, अपने को सर्वोच्च रूप में पेश करना उनकी कमी है, लेकिन इस कमी के बावजूद वेद प्रताप वैदिक हिंदुस्तान की पत्रकारिता में विलेन नहीं हैं. वह हिंदुस्तान की पत्रकारिता में उतने ही ईमानदार हैं, जितना पत्रकारों को होना चाहिए. चलिए, वेद प्रताप वैदिक की बातों को मैं समझता हूं या फिर मेरी नज़र में…जैसी भाषा से अलग हटकर आप तथ्यात्मक रूप से उन्हें ग़लत साबित कीजिए, वर्ना पत्रकारिता के पेशे को कलंकित करने का अपराध कम से कम इतिहास तो लिखेगा ही.
नए पत्रकार, जो मार्केट इकोनॉमी की देन हैं, प्रो-मार्केट इकोनॉमी में जिनका भरोसा है, वे पत्रकारिता की नई परिभाषा लिख रहे हैं. पत्रकारिता की इस नई परिभाषा के मुताबिक़, पत्रकारों को पुलिस का इन्फॉर्मर होना चाहिए, आईबी का इन्फॉर्मर होना चाहिए और सरकार का इन्फॉर्मर होना चाहिए. वे जहां जाएं, उसकी रिपोर्ट पुलिस को करें, आईबी को करें और जिस सरकार से रिश्ता है, उसे करें. अगर यह नई पत्रकारिता है, तो ऐसी पत्रकारिता से हम सहमत नहीं हैं. देश में प्रो-मार्केट इकोनॉमी है, सरकारें इसके पक्ष में होंगी और जनता इसके ख़िलाफ़. जनता प्रो-मार्केट इकोनॉमी के पक्ष में नहीं है, लेकिन उसकी समझ में नहीं आया कि जो लोग वादे कर रहे हैं, वे उन्हें पूरा कर भी पाएंगे अथवा नहीं, क्योंकि उनकी नीतियां वही हैं, जो पहले से चली आ रही हैं. इसी तरह प्रो-मार्केट जर्नलिस्ट यानी बाज़ारवादी पत्रकार पूरी पत्रकारिता को राजनीति और सरकार का पिट्ठू बना देना चाहते हैं. यह नई पत्रकारिता ख़तरनाक है, यह देश में फासिज्म लाएगी और देश को गृहयुद्ध के स्तर तक ले जाएगी. ये पत्रकार जनता की तकलीफों को अपना विषय नहीं मानते. इनके लिए राजनीति की सतही चीजें देश की सबसे बड़ी घटना हैं, जिनका नज़ारा हम लगातार टेलीविजन पर देख रहे हैं.

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