जदयू के बागियों ने जिस तरह से राज्यसभा चुनाव में गदर मचाई, उससे साफ़ है कि पार्टी में नीतीश कुमार का नियंत्रण काफी कमजोर हो गया है. शरद यादव को वाकओवर देकर बागियों ने यह भी साफ़ कर दिया कि वे जदयू से किनारा करने वाले नहीं हैं, बल्कि पार्टी में ही रहेंगे और पार्टी को लोकतांत्रिक तरीके से चलाएंगे. बागियों के इस ऐलान के बाद जदयू के रणनीतिकारों के पसीने छूट रहे हैं. बीच का रास्ता निकालने की कोशिश जारी है, लेकिन बागियों के स्वर कहते हैं कि बात निकल गई है और दूर तलक जा चुकी है.
nitish-picराज्यपाल कोटे से विधान परिषद में मनोनयन और मंत्रि परिषद के विस्तार के बाद बिहार में बवाल होना तय था और वह हो भी रहा है. लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद नीतीश कुमार के सामने जो अंतिम विकल्प बचे हैं, उन्हें आजमाने में अब देर नहीं हो रही है. कहानी कुछ ऐसी बन रही है कि जदयू मजबूत होने की बजाय आपसी कलह और बगावती सुरों से रोज-रोज जूझ रहा है. नेतृत्व के फैसलों पर अब खुलेआम सवाल उठाए जा रहे हैं और पूछा जा रहा है कि दल को नुकसान पहुंचाने वालों को ही ईनाम क्यों दिया जा रहा है? ऐसे नेता, जिन्होंने पार्टी प्रत्याशियों को हराने का काम किया, एमएलसी और मंत्री बन रहे हैं. अगर ऐसे ही लोग एमएलसी और मंत्री बनते रहे, तो फिर दल के निष्ठावान कार्यकर्ताओं एवं नेताओं का क्या होगा? लेकिन, जदयू का शीर्ष नेतृत्व ऐसी कोई बात सुनने के लिए तैयार नहीं है. पार्टी यह मानकर चल रही है कि जितना नुकसान होना था, वह हो चुका है और आगे अगर कुछ करना है, तो लीक से हटकर करना होगा, भले ही उससे कुछ लोगों की नाराजगी क्यों न झेलनी पड़े.
यही वजह है कि जदयू नेतृत्व दो स्तरों पर अपने आपको दुरुस्त करने की कोशिश कर रहा है. पहला यह कि उन वरिष्ठ मंत्रियों को कट टू साइज करने की कोशिश की जा रही है, जो 2005 से पद पर बने हुए हैं. उन मंत्रियों को संगठन में लाकर उनकी जगह नए चेहरों को मंत्री बनाकर पार्टी में नया संदेश देने की कोशिश हो रही है. गौतम सिंह का इस्तीफ़ा भी इसी कड़ी का एक हिस्सा है. जानकार सूत्र बताते हैं कि कम से कम आधा दर्जन वरिष्ठ मंत्रियों के इस्ती़फे लिए जा चुके हैं, जिनमें पी के शाही, भीम सिंह, नरेंद्र सिंह, श्याम रजक आदि के नाम शामिल हैं. कुछ के विभाग बदल कर भी संकेत दिए गए हैं. रणनीतिकारों की समझ यह है कि इन वरिष्ठ मंत्रियों के बने रहने का जो लाभ सरकार और पार्टी को मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल रहा है. हो यह रहा है कि अक्सर ये पार्टी का नुकसान ही कर रहे हैं, जैसा कि लोकसभा चुनाव में दिखाई भी पड़ गया. जदयू में लगातार समीक्षा और मंथन का दौर चल रहा है और उसके नतीजों को लेकर कुछ मंत्रियों की धड़कनें तेज हो गई हैं. किस-किस पर गाज गिरेगी, इसे लेकर पटना में अटकलों का दौर जारी है.
नीतीश कुमार भी यह इशारा कर चुके हैं कि फिलहाल उनका दिल्ली जाने का कोई इरादा नहीं है और वह पटना में ही रहकर पार्टी को एक बार फिर बुलंदियों तक पहुंचाने का काम करते रहेंगे. नीतीश कुमार तो अपने काम में लगे हैं, पर उनके काम से खुद को नुकसान में पा रहे विधायक एवं नेता भी साथ ही साथ पार्टी की जड़ खोदने में लग गए हैं. जगह-जगह विक्षुब्ध विधायकों के बीच बैठकों का दौर जारी है. ये नेता खुलकर अपनी भड़ास निकाल रहे हैं, लेकिन नीतीश कुमार यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि इस तरह की बयानबाजी से सरकार और पार्टी को बहुत नुकसान होने वाला नहीं है, क्योंकि बहुमत उनके पास है. विक्षुब्ध नेता स़िर्फ बोलकर अपना मन हल्का कर रहे हैं. इसके अलावा इन बयानों का कोई राजनीतिक महत्व नहीं है. हां, नीतीश कुमार यह ज़रूर महसूस कर रहे हैं कि मंत्रिमंडल विस्तार में भौगोलिक असंतुलन को लेकर बाद के दिनों में परेशानी हो सकती है.
ग़ौरतलब है कि बिहार के कई ज़िले ऐसे हैं, जिन्हें मंत्रिमंडल विस्तार में जगह नहीं मिल पाई. मुख्यमंत्री समेत मंत्रिमंडल में 31 सदस्य शामिल हो गए हैं. इनमें मुख्यमंत्री समेत तीन गया ज़िले के हैं, जबकि 15 ज़िलों को मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली. राजपूत, भूमिहार, यादव एवं अति पिछड़ा समुदाय के चार-चार मंत्री हैं. इनमें अति पिछड़े, पिछड़े दलित, महादलित, सवर्ण और अल्पसंख्यक शामिल हैं. तीन महिला मंत्री हैं. इसके अलावा जीतन राम मांझी, रमई राम और श्याम रजक महादलित समुदाय से हैं. अवधेश कुशवाहा, मनोज कुमार सिंह एवं सम्राट चौधरी कुशवाहा समाज से, तो वृशिण पटेल, श्रवण कुमार एवं रामधनी सिंह कुर्मी समाज से हैं. भीम सिंह, दामोदर रावत, बीमा भारती एवं वैद्यनाथ सहनी अति पिछड़ा समाज से हैं. रामलखन राम दलित हैं. विजय कुमार चौधरी, पी के शाही, राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह एवं महाचंद्र प्रसाद सिंह भूमिहार और नरेंद्र िंसंह, लेसी सिंह, विनय बिहारी एवं जय कुमार सिंह राजपूत हैं.
यादव समाज से विजेंद्र यादव, नरेंद्र नारायण यादव, रंजू गीता एवं विनोद प्रसाद यादव हैं. तीन अल्पसंख्यक हैं, जिनमें शाहिद अली खां, नौशाद आलम एवं जावेद इकबाल शामिल हैं. जीतन राम मांझी, भीम सिंह और विनोद प्रसाद यादव गया से, तो महाचंद्र प्रसाद एवं श्याम रजक पटना से हैं. ललन सिंह एवं श्रवण कुमार नालंदा, नरेंद्र सिंह एवं दामोदर रावत जमुई, विजय कुमार चौधरी एवं वैद्यनाथ सहनी समस्तीपुर, सम्राट चौधरी मुंगेर, वृशिण पटेल वैशाली, रमई राम एवं मनोज कुमार सिंह मुजफ्फरपुर, नरेंद्र नारायण यादव मधेपुरा, रामधनी सिंह एवं जय कुमार सिंह रोहतास और पी के शाही सीवान से हैं. अवधेश प्रसाद कुशवाहा पूर्वी चंपारण, विनय बिहारी पश्‍चिमी चंपारण, रामलखन राम एवं नीतीश मिश्र मधुबनी से हैं. दुलाल चंद गोस्वामी कटिहार और लेसी सिंह एवं बीमा भारती पूर्णियां से हैं. शाहिद एवं रंजू गीता सीतामढ़ी से, तो विजेंद्र यादव सुपौल से हैं. छपरा, दरभंगा, अररिया, जहानाबाद, औरंगाबाद, गोपालगंज, शिवहर, सहरसा, बेगूसराय, खगड़िया, भागलपुर, बक्सर, भोजपुर, कैमूर एवं अरवल आदि ज़िलों को प्रतिनिधित्व नहीं मिला है.
अब इस तरह के असंतुलन का राजनीतिक खामियाजा तो जदयू को उठाना ही पड़ेगा. अब बात करते हैं विक्षुब्धों की रणनीति की. सरकार एवं नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ आवाज उठाने वाले मंत्री और विधायक भी इस बात को जानते हैं कि बहुमत का आंकड़ा सरकार के पास है, इसलिए चाहकर भी वे सरकार को अस्थिर नहीं कर सकते. इसलिए वे आगे की रणनीति पर अमल करने में जुट गए हैं. जानकार सूत्र बताते हैं कि जदयू के कई नाराज विधायक भाजपा के संपर्क में हैं. एक सूत्र तो यहां तक कहते हैं कि भाजपा जितने चाहे, उतने जदयू विधायक उसके साथ जा सकते हैं, पर फिलहाल भाजपा ने ही रेड सिग्नल लगा रखा है. दरअसल, भाजपा आगामी विधानसभा उपचुनाव के नतीजों को परख लेना चाहती है. सूबे में दस सीटों पर चुनाव होने हैं. इन चुनावों में भाजपा अपनी ताकत और जनता का मूड भांपना चाहती है. अगर उपचुनाव के नतीजे भाजपा के पक्ष में रहे, तो फिर वह काफी नाप-जोख कर दूसरे दलों के नेताओं को जगह देगी, लेकिन अगर वह उपचुनाव में कमजोर रही, तो फिर जदयू के नाराज विधायकों को काफी तवज्जो मिलेगी. यही वजह है कि जदयू के लोग भी वेट एंड वॉच की मुद्रा में हैं.


 
निशाने पर आरसीपी
नीतीश कुमार के खासमखास आरसीपी सिंह पर तो पार्टी के बड़े नेता काफी दिनों से नाराज थे, लेकिन अपने गुस्से का इजहार नहीं कर पा रहे थे. लोकसभा में जदयू की करारी हार ने बड़े नेताओं को आरसीपी सिंह पर अपनी भड़ास निकालने का सुनहरा अवसर दे दिया. ग़ौरतलब है कि हाल के दिनों में संगठन की पूरी ज़िम्मेदारी आरसीपी ही संभाल रहे थे. पार्टी अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह केवल आरसीपी के ़फैसलों पर मुहर लगाने का काम कर रहे थे. बूथ कमेटी बनाने से लेकर बोर्ड एवं निगमों में मनोनयन और पार्टी के विभिन्न प्रकोष्ठों में अपने लोगों को बैठाने में आरसीपी की खूब चली. वशिष्ठ बाबू उसके केवल मूक गवाह बन गए. जदयू नेता उपेंद्र चौहान कहते हैं कि पार्टी संगठनों में आधे से अधिक पदों पर कार्यकर्ताओं की जगह बिल्डर भर दिए गए थे. चौहान के अनुसार, जब पार्टी को कार्यकर्ताओं की जगह बिल्डर चलाएंगे, तो क्या नतीजा आएगा, यह सबके सामने है. समीक्षा बैठकों में आरसीपी वरिष्ठ मंत्रियों के निशाने पर रहे. बिजेंद्र यादव ने तो आरसीपी को यहां तक कह दिया कि आप तीन साल से राजनीति कर रहे हैं और हम चालीस साल से. आप हमको राजनीति मत समझाएं. बैठक में नेताओं ने साफ़ कहा कि आरसीपी के गलत ़फैसलों से पार्टी को भारी नुकसान हुआ. बूथ कमेटी के लोग बूथ पर नहीं पहुंचे. आरसीपी सिंह को बताना चाहिए कि आख़िर वे लोग किधर चले गए. बिजेंद्र यादव ने कहा कि आख़िर तीन साल से संगठन कैसे चल रहा है, मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं है. यादव ने कहा कि प्रकोष्ठों की बैठकों में स्थानीय विधायकों को शामिल नहीं किया जाता था. इज्जत बचाने के लिए विधायक बहाना बनाकर उस दिन क्षेत्र छोड़ देते थे. नरेंद्र सिंह ने कहा कि ज़िलों में जाने पर प्रभारी मंत्रियों को सलामी तक नहीं दी जाती है. आरसीपी ने कुछ नियम समझाने की कोशिश की, तो नरेंद्र सिंह ने उन्हें चुप रहने को कहा. समीक्षा बैठक में गुस्सा इस बात को लेकर था कि आरसीपी ने ज़रूरत से ज़्यादा सरकार और संगठन में हस्तक्षेप करके भारी नुकसान पहुंचाया. गलत लोगों को संगठन में महत्वपूर्ण जगह दी गई, जिससे समर्पित कार्यकर्ताओं का मनोबल काफी गिर गया और वे चुनाव में मन से नहीं लगे. यह पहली बार हुआ कि आरसीपी के ख़िलाफ़ मंत्रियों ने खुलकर अपने गुस्से का इजहार किया.


 

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here